प्रकाश मेहरा
शिमला। जराग्रस्त कांग्रेस को ताजा झटका हिमाचल से लगा है। वहां न केवल राज्यसभा के लिए पार्टी के अधिकृत प्रत्याशी अभिषेक मनु सिंघवी को अप्रत्याशित पराजय का सामना करना पड़ा, बल्कि लंबे समय तक इस पर्वतीय प्रदेश में कांग्रेस का चेहरा रहे वीरभद्र सिंह के पुत्र विक्रमादित्य सिंह ने भी इस्तीफा दे दिया। फिलहाल उन्हें पार्टी ने रोक लिया है, पर क्रॉस वोटिंग करने वाले छह विधायकों को अपनी सदस्यता से हाथ धोना पड़ गया। शिमला में सियासी तापमान इस समय चरम पर है। कांग्रेस अगर इस झंझावात से उबरने में कामयाब हो जाए, तब भी उस तबके में कोई कमी नहीं आएगी, जो इस पार्टी को पुरा ऐतिहासिक साबित करने में जुटा है।
ये लोग भूल जाते हैं कि राजनीति सांप- सीढ़ी का विषम खेल है, कोई परिकथा नहीं।
एक नज़र 40 साल पहले की राजनीति पर!
अपनी बात समझाने के लिए मैं आपको 40 साल पीछे ले चलता हूं। उस वर्ष के अंत में हुए आम चुनाव में कांग्रेस ने 414 और भारतीय जनता पार्टी ने महज दो सीटें जीती थीं। क्या तब किसी ने सोचा था कि हर ओर से निंदा के शिकार अटल बिहारी वाजपेयी कुलजमा 12 बरस में देश के प्रधानमंत्री बन जाएंगे और सूर्य की तरह चमकते राजीव महज चार साल में आभा खो बैठेंगे? इससे पहले जिन मोरारजी देसाई और चौधरी चरण सिंह को इंदिरा गांधी ने अलग पार्टी बनाने पर मजबूर कर दिया था, वे भी प्रधानमंत्री की कुरसी तक पहुंचे। इंदिरा गांधी के शुरुआती दौर में ही अपमानित महसूस करने वाले नीलम संजीव रेड्डी तो राष्ट्रपति बन गए थे। यही नहीं, राजीव ने जिन विश्वनाथ प्रताप सिंह को अपमानित कर पार्टी से निकाल दिया था, वह उनके तत्काल बाद प्रधानमंत्री चुने गए।
प्रधानमंत्री बनने पर जबरदस्त द्वंद था!
पता नहीं, आपको याद है या नहीं? 1989 के चुनाव में विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रमुख चेहरा तो थे, पर उनका रास्ता हमवार न था। शपथ ग्रहण से पहले परदे के पीछे जबर्दस्त द्वंद्व चल रहा था कि प्रधानमंत्री कौन बनेगा ? चंद्रशेखर उन्हें नेता मानने को तैयार न थे। इस कठिन परिस्थिति से उबरने के लिए कुछ सयानों ने सुझाया कि क्यों न हरियाणा के वरिष्ठ नेता चौधरी देवीलाल को प्रधानमंत्री बना दिया जाए? दोनों खेमे इस पर सहमत भी हो गए थे, लेकिन हरियाणा के ताऊ ने ऐन समय पर अकल्पनीय चाल चल दी। अपने नाम की घोषणा होने के बाद उन्होंने माइक संभाला और जो कहा, उससे सभी अचंभित रह गए। उनके शब्द थे कि मैं ताऊ ही बना रहना चाहता हूं, प्रधानमंत्री तो राजा साहब (वी.पी. सिंह) रहेंगे। वहां तत्काल जयघोष गूंजने लगा। यह फैसला जनभावना के अनुकूल था, मगर चंद्रशेखर और उनके साथियों ने इसे दिल पर ले लिया। वह पहले दिन से सरकार गिराने में जुट पड़े। महज 11 महीने के छोटे से अंतराल में अपना मनोरथ पूर्ण करने में वह सफल रहे और अब उनकी बारी थी।
है न गजब! जिस राजीव गांधी को बदनाम कर सत्ता से हटाने वालों के वह सरदार थे, उन्हें दर-बदर कर कुरसी हासिल करने में चंद्रशेखर को राजीव गांधी की मदद मिली। यह बात अलग है कि महज आठ महीनों में कांग्रेस ने उनके पैर के नीचे की कालीन सरका दी।
जब कांग्रेस संपन्न बहुमत थी!
अब कांग्रेस की बात। यह ठीक है कि 1989 से एक अपवाद को छोड़कर इस पार्टी का वोट बैंक छीजता चला गया है, पर भूलिए मत, आज भी तीन राज्यों में इसकी बहुमत संपन्न सरकार है। झारखंड की हुकूमत में यह हिस्सेदार है और जनवरी के अंत तक बिहार के सत्ता-सदन में भी इसका दखल होता था। 13 राज्यों में इसे प्रमुख विपक्षी पार्टी का दरजा हासिल है। देश के हर जिले में जर्जर ही सही, पर इसका संगठन मौजूद है और वह हमेशा के लिए गर्त में चला गया हो, ऐसा भी नहीं है। देश भर में पार्टी के पास 650 से अधिक विधायक हैं और पिछले लोकसभा चुनाव में लगभग 12 करोड़ मतदाताओं ने इस पर भरोसा जताया था। कुलजमा 196 लोकसभा सीटों पर यह दूसरे नंबर पर थी।
क्या आपको अब भी लगता है कि कांग्रेस का खेल खत्म हो रहा है?
रही बात राहुल गांधी की, तो यह तय जान लीजिए कि वह आज भी कांग्रेस के सबसे बड़े और लोकप्रिय नेता हैं। यह बात अलग है कि अगर हार का सिलसिला ऐसे ही जारी रहा, तब या तो कांग्रेस बिखर जाएगी अथवा उसे नया झंडाबरदार चुनना होगा। इससे बचने के लिए नेहरू-गांधी परिवार को अपनी ऐतिहासिक कमजोरियों से छुटकारा पाना होगा। उन्हें अपने संदेश का तरीका और नए संदेश-वाहक चुनने होंगे। इंदिरा गांधी के शुरुआती वक्त तक कांग्रेस बड़े क्षत्रपों की पार्टी हुआ करती थी। उसके पास हर राज्य में इतने कद्दावर नेता थे कि वे सत्ता और संगठन, दोनों को संभालने का माद्दा रखते थे। इंदिरा गांधी ने जिस एक नायकवाद की शुरुआत की, उनके वंशज उसी का शिकार बन रहे हैं। उनके पुत्र राजीव गांधी ने भी इसे सुधारने के बजाय बढ़ाने का अनर्थ किया। यहल भी राजनीति में अपने पिता की तरह हिचकते हुए आए थे। उनसे उम्मीद थी कि वह इस भूल को सुधारने का सार्थक प्रयास करेंगे। वह ऐसा न कर सके।
एक नज़र पूर्व विधानसभा चुनावों पर
इन चुनावों से पूर्व मध्य प्रदेश विधानसभा चुनावों में पार्टी ने सत्ता हासिल कर ली थी। कायदे से ज्योतिरादित्य सिंधिया को मुख्यमंत्री बनाया जाना चाहिए था, लेकिन उनकी जगह जराग्रस्त कमलनाथ को कुरसीं थमा दी गई। वह अपनी अवधि तक पूरी नहीं कर सके। यही हाल राजस्थान का था। मध्य प्रदेश के साथ ही राजस्थान का चुनाव भी कांग्रेस ने जीता था। उस समय सचिन पायलट प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष हुआ करते थे। उनको दरकिनार कर अशोक गहलोत को सत्ता सौंप दी गई, जबकि गहलोत नई दिल्ली में बतौर महासचिव-संगठन बहुत अच्छा काम कर रहे थे। यह अनघ यहीं नहीं रुका। कुछ महीने पहले हुए विधानसभा चुनावों में भी यही दो बुजुर्ग चेहरा बना दिए गए और पार्टी को लोकसभा चुनावों से ठीक पहले सांघातिक झटका लग गया। राहुल के पास अभी भी वक्त है कि वह तथाकथित पुराने वफादारों से मुक्ति पाएं और नए सिपहसालार नियुक्त करें। ऐसे जुझारू लोगों की कमी नहीं है, जिनके विचार भाजपा से मेल नहीं खाते।
राहुल नए चेहरों पर दांव क्यों नहीं लगाते?
कांग्रेस को नए लोगों के लिए भी दरवाजे खोलने चाहिए। भारतीय जनता पार्टी बिना संकोच इस काम को अंजाम देती है। यह भगवा दल का ही बूता था कि उसने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पद पर रहे देवेंद्र फडणवीस को सत्ता-प्राप्ति के लिए उप- मुख्यमंत्री बनने पर बाध्य कर दिया। नीतीश कुमार इस सिलसिले की अगली कड़ी हैं। कांग्रेस ने भी तेलंगाना में यह प्रयोग किया और वह सत्ता हासिल करने में सफल रही। राहुल क्यों नहीं रेवंत रेड्डी जैसे कुछ और चेहरों पर दांव लगाते ?
कांग्रेस की सबसे बड़ी भूल!
जहां तक गठबंधनों की बात है, तो इस मामले में भी पार्टी को कहीं लचीला, तो कहीं कठोर रुख अपनाना होगा। भाजपा की परंपरा थी कि वह बाहर से आए लोगों को मुख्यमंत्री नहीं बनाती थी। उसने इससे चिपके रहने के बजाय हिमंत बिस्वा सरमा और एकनाथ शिंदे जैसे लोगों पर दांव लगाया। अगर कांग्रेस इन भूलों में सुधार कर लेती है, तो आने वाले दिनों में उसे बेहतर दिन देखने को मिल सकते हैं। इस लोकसभा चुनाव के लिए तो देर हो चुकी है।