नई दिल्ली। दुनिया भर के लगभग सभी लोकतंत्रों में राजनीति में पैसे की बढ़ती भूमिका और इससे जुड़ी समस्याएं समाचारों में आती रहती हैं। आजकल भारत भी चर्चा में है इलेक्टोरल बॉन्ड को लेकर रोज कोई न कोई खुलासा सामने आ रहा है। आंकड़ों का अध्ययन अभी भी जारी है। खासकर बड़े कॉरपोरेट पर नजर है और यह देखा जा रहा है कि कौन किसका वफादार है ? क्या हम आने वाले समय में चंदे की व्यवस्था में सुधार कर सकते हैं ? पेश है एक्जीक्यूटिव एडिटर प्रकाश मेहरा की रिपोर्ट…
भारत के चुनाव आयोग द्वारा जारी आंकड़ों के विश्लेषण से पता चलता है कि एक से अधिक बार चुनावी बॉन्ड खरीदने वाली अधिकांश कंपनियां किसी एक पार्टी के प्रति वफादार नहीं थीं। भारतीय जनता पार्टी के पास 43 वफादार कॉरपोरेट दानदाता थे, जो दूसरी पार्टियों की तुलना में सबसे अधिक थे। भाजपा के बाद ममता बनर्जी की अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस (एआईटीसी) के पास 16 वफादार दानदाता थे। यह विश्लेषण वफादार दानदाताओं को उन कंपनियों के रूप में परिभाषित करता है, जिन्होंने एक से अधिक बार दान दिया और हर बार एक ही पार्टी को दिया है। ऐसे दानदाताओं में सबसे अधिक खरीदारी करने वाली कंपनी कोलकाता स्थित रिप्ले एंड कंपनी स्टीवडोरिंग एंड हैंडलिंग प्राइवेट लिमिटेड थी। लिमिटेड, जिसके सात दान तृणमूल द्वारा भुनाए गए। मूल्य के हिसाब से डीएलएफ कमर्शियल डेवलपर्स द्वारा भाजपा को दिए गए पांच दान शीर्ष पर हैं, जिनकी कीमत 130 करोड़ रुपये है।
एक से अधिक बार चुनावी बॉन्ड खरीदने वाली 91 कंपनियों ने एक ही पार्टी को कई बार चंदा दिया है। चुनाव आयोग की ओर से जारी चुनावी बॉन्ड के आंकड़ों का विश्लेषण अभी भी जारी है।
गौर करने की बात है, 263 कंपनियों ने कई बार चुनावी बॉन्ड खरीदे हैं। विश्लेषण के अनुसार, 762 कॉरपोरेट दानदाताओं में से 263 ने निर्धारित समय सीमा के भीतर एक से अधिक बार चुनावी बॉन्ड खरीदे। मेघा इंजीनियरिंग एंड इंफ्रास्ट्रक्चर सबसे अधिक बार बॉन्ड खरीदने वाली कंपनी रही, जिसने 36 बार बॉन्ड खरीदे और नौ अलग-अलग पार्टियों को चंदा दिया।
इलेक्टोरल बॉन्ड के मामले में किसको फायदा !
सबसे बड़ी लाभार्थी भाजपा को 362 अलग- अलग कॉरपोरेट दानदाताओं ने चंदा दिया, जिनमें से 43 वफादार दानकर्ता थे। इसके बाद कांग्रेस को 177 दानदाताओं ने चंदा दिया, पर केवल आठ दाताओं ने ही बार-बार चंदा दिया।
बड़ी पार्टी के साथ ही सत्ताधारी पार्टी को भी इलेक्टोरल बॉन्ड के मामले में फायदा हुआ है। अपने देश में अभी भाजपा अकेली पार्टी है, जिसके पास साढ़े तीन सौ से ज्यादा दानदाता हैं। उसके बाद कांग्रेस, बीआरएस, तृणमूल का स्थान है। इन प्रमुख चार पार्टियों के पास ही सौ से ज्यादा कॉरपोरेट दानदाता हैं। कॉरपोरेट उन पार्टियों को तरजीह देते हैं, जो सत्ता में हैं। इन कंपनियों की नीति को सहज ही समझा जा सकता है। हालांकि, कॉरपोरेट की ओर से किया जाने वाला दान अक्सर विवाद में भी रहता है और जिन पार्टियों को दान मिलता है, वो निशाने पर रहती हैं। अपने यहां पारदर्शिता का वह स्तर नहीं है, जैसा होना चाहिए। हम यह देख पा रहे हैं कि स्टेट बैंक ऑफ इंडिया, सर्वोच्च न्यायालय और चुनाव आयोग ने आंकड़े जारी करके पारदर्शिता सुनिश्चित करने की कोशिश की है, पर राजनीतिक पार्टियों ने स्वप्रेरणा से इस दिशा में कुछ भी नहीं किया। दरअसल, अपने देश में कोई भी राजनीतिक पार्टी ऐसी नहीं है, जो अपने खजाने में पूरी तरह से सफेद धन होने का दावा कर सके।
क्या भारत चुनावी चंदे संबंधी विवादों से बच सकता है ? इलेक्टोरल बॉन्ड के बाद भारत में कौन सी व्यवस्था बनने और लागू होने वाली है? क्या हम दूसरे आदर्श लोकतांत्रिक देशों से कुछ सीख सकते हैं? क्या अमेरिका से सीख सकते हैं?
दुनिया का सबसे पुराना लोकतंत्र
अमेरिका भले ही दुनिया का सबसे पुराना लोकतंत्र हो, पर यह दुनिया का सबसे महंगा लोकतंत्र भी है। यदि आप अमेरिका में राष्ट्रपति या कांग्रेस का चुनाव लड़ना चाहते हैं, तो श्रेष्ठ धन संचयकर्ता बनने के लिए तैयार रहें; पारदर्शिता मानदंडों को पूरा करने के लिए खुलासे के अनुरूप एक खाता, ऑडिट और कानूनी टीम होनी चाहिए। अमेरिका में हर लेन-देन पर कड़ी नजर होती है और स्थापित व्यवस्था के तहत लोगों को फंडिंग संबंधी जरूरी सूचनाएं मिलती रहती हैं।
किसी भी लोकतंत्र में राजनीतिक फंडिंग के सवाल पर पारदर्शिता, जवाबदेही, स्वतंत्रता के कई सिद्धांतों और अपेक्षाकृत समान अवसर के बीच एक संतुलन की भी जरूरत होती है। विशेष रूप से अमेरिकी न्यायपालिका ने अपने इतिहास और समझ से सीखा है, ताकि राजनीतिक प्रक्रिया में भाग लेने की सांविधानिक गारंटी के साथ राजनीतिक वित्त को संभाला जा सके।
चौंकाने वाली बात यह है कि जब भारतीय मामले में, विधायिका (कार्यपालिका द्वारा प्रेरित) ने उन बदलावों पर जोर दिया है, जो पार्टियों को धन जुटाने के लिए अधिक छूट देते हैं, पर यहां न्यायपालिका ने धन जुटाने की इस प्रक्रिया को रोक दिया। दूसरी ओर, अमेरिका में विधायिका ने महत्वपूर्ण मौकों पर दान और व्यय पर प्रतिबंध लगाने की मांग की है, लेकिन न्यायपालिका ने इसे पलट कर एक ज्यादा आरामदायक व्यवस्था बनाई है। अमेरिका में विधायिका इस पक्ष में है कि राजनीतिक दान की सीमा होनी चाहिए, पर वहां का सर्वोच्च न्यायालय सरकार के इस प्रयास को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप मानता है। वैसे यह माना जाता है कि अमेरिका में विधायिका और पार्टी संगठन अपेक्षाकृत ज्यादा ईमानदार है। क्या भारत में भी जरूरी बदलाव करते हुए ऐसा हो सकता है ?
चुनावी चंदे को पारदर्शी बनाने की जरूरत !
अमेरिका में तो न्यायालय ने अधिक धन जुटाने और अधिक खर्च करने के द्वार खोल दिए हैं, क्या भारत में भी ऐसा कुछ हो सकता है? चुनावी चंदे को पारदर्शी बनाने के लिए अनेक स्तरों पर बदलाव की जरूरत पड़ेगी। जैसा कि कार्नेगी एंडोमेंट फॉर इंटरनेशनल पीस के मिलन वैष्णव ने कहा है कि जब छोटे आदमी की बात आती है, तब पूरी पारदर्शिता बरती जाती है और जब बड़े आदमी की बात आती है, तो सूचनाओं को छिपाने का प्रयास शुरू हो जाता है। वास्तव में उलटा होना चाहिए। हर बड़े देन-देन में पारदर्शिता सुनिश्चित होनी चाहिए और छोटे लेन-देन का पीछा करने में समय जाया नहीं करना चाहिए। कथित बड़े लोगों को जब टोका जाएगा, तो पूरे समाज में सही संदेश जाएगा और भ्रष्टाचार पर अंकुश लगेगा।
भारत में चुनाव में धन की भूमिका जिस तरह से बढ़ रही है, उसमें पारदर्शिता बरतने की जरूरत भी बढ़ती जा रही है। बड़ी धन राशि को अनियंत्रित या खुला नहीं छोड़ा जा सकता। दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र अमेरिका से हम सीख सकते हैं। 2020 में राजनीतिक धन पर नजर रखने वाले ओपनसीक्रेट्स के अनुसार, अमेरिका में राष्ट्रपति, सीनेट और हाउस के चुनावों में राजनीतिक खर्च 14.4 अरब डॉलर था। वहां सतर्कता के बावजूद 2020 के चुनाव में यह अनुमान लगाया गया था कि काला धन एक अरब डॉलर से अधिक का था। कुल मिलाकर, राजनीति में धन को पारदर्शी बनाने के लिए जैसी व्यवस्था अमेरिका में है, उससे हमें सीखना चाहिए। काले धन व भ्रष्टाचार को पूरी तरह से खत्म नहीं किया जा सकता, पर न्यूनतम जरूर किया जा सकता है।
क्या सबसे पुराने लोकतंत्र अमेरिका में राजनीतिक चंदा पारदर्शी है?
अमेरिका ने से सीखा है। हालांकि, अपने अनुभवों चंदा पूरी तरह से पारदर्शी नहीं वहां भी है। वहां यदि आप सीधे किसी उम्मीदवार के अभियान के लिए 50 डॉलर से अधिक की कोई राशि दान करते हैं, तो अभियान को दाता की पहचान और राशि के बारे में संघीय चुनाव आयोग को बताना पड़ता है। कमी वहां हैं, जहां गैर-लाभकारी संगठन दानदाताओं का खुलासा किए बिना पैसे खर्च कर सकते हैं। अमेरिका में साल 2020 के चुनाव में अनुमान लगाया गया था कि काला धन एक अरब डॉलर से अधिक का था।
सियासी चंदे से दुनिया के लोकतंत्रों पर पड़ा असर
राजनीति के लिए धन की जरूरत है और ज्यादातर देशों में यह चुनावी धन व्यवस्था पर असर डालता है। उदाहरण के लिए, जापान में भर्ती घोटाला या ब्रिटेन में सनसनीखेज वेस्टमिंस्टर घोटाला, अमेरिका में प्रसिद्ध वाटरगेट घोटाला, ब्राजील में चुनावी भुगतान से संबंधित घोटालों की श्रृंखला हमेशा याद आती है। लगभग सभी लोकतंत्रों में वित्त की समस्या चिंताजनक है। चुनाव-आधारित राजनीतिक भ्रष्टाचार ने कई यूरोपीय लोकतंत्रों, जैसे इटली, ग्रीस, फ्रांस, स्पेन और बेल्जियम को भी प्रभावित किया है।
कंपनियां भी पसंद के हिसाब से चुनती हैं पार्टी
ध्यान देने की बात है कि इलेक्टोरल बॉन्ड के अब तक के आंकड़ों के अनुसार, 11 कंपनियों ने पार्टिया बदली है। एक बार एक पार्टी को चंदा देने के बाद 11 कंपनियों ने अगली बार दूसरी पार्टी को दान देने का फैसला किया। इनमें से एक कंपनी अरबिंदो फार्मा भी है, जिसकी खूब चर्चा हो रही है। इन 11 मामलों में से पांच में तृणमूल कांग्रेस लाभार्थी रही। भाजपा को केवल तीन मामलों में ही लाभ पहुंचा। कोई भी कंपनी किसी भी दल से संबंध खराब करना नहीं चाहती है, इसलिए भी वह एकाधिक दलों को धन देती हैं