श्रुति व्यास
दोनों तरफ के फ्रिंज तत्वों की बल्ले-बल्ले है वहीं मोदी सरकार-भाजपा की मुख्यधारा में टर्निंग प्वाइंट है। फिलहाल पूरा मामला भय से आगे बढ़ा हुआ है। हर पक्ष एक-दूसरे को तौलते हुए है और भय चुपचाप गुस्से व बदले की भावना तथा फायदे की सोच में कन्वर्ट होता हुआ।
हमारे (हिंदुओं) और उनके (मुसलमानों) मौजूदा समय में डर का भंवर फिर चौड़ी खाई बनाते हुए है। इस दफा दुनिया का भी ध्यान ‘न्यू इंडिया’ पर केंद्रित हैं। यों मोदी सरकार के आठ वर्षों में राजनीति हिंदू बनाम मुस्लिम की धुरी पर ही है। वह उसी से जीतती आई है। मगर ऐसा पहली बार है जो देशों ने हमारी निंदा की है। आईना दिखाया है। हमारा तिरस्कार है और हमारे ‘सर्वधर्म समभाव’ के दावे को संदेह से देखा जा रहा है। अरब देश नाराज हैं, खुश कतई नहीं हैं। वे भारत के रवैए पर सोचते हुए हैं। भारत कूटनीति समझाने की हर संभव कोशिश कर रहा है बावजूद इसके अरब देशों के नागरिक भारतीय उत्पादों का बहिष्कार कर रहे हैं। भारत को बदनाम कर रहे हैं और दोनों तरफ के लोग सोशल मीडिया पर एक-दूसरे को ट्रोल करते हुए हैं। तभी सवाल है इस्लामी देशों बनाम भारत के रिश्तों में जो खाई बनी है उसमें आगे क्या होना है? जैसे देश में भंवर और खाई है वैसे ही क्या वैश्विक स्तर पर भी नफरत के रिश्ते होने हैं?
बात सिर्फ अरब देशों की आलोचना और निंदा की नहीं है, कूटनीतिक नतीजों की नहीं है, आर्थिक नुकसान या विश्व मंच पर भारत की स्थिति को ले कर नहीं है, बल्कि इस सच्चाई पर विचारने की है कि जब खाड़ी-अरब देशों, बांग्लादेश, मालदीव जैसे देशों और भारत की आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से परस्पर जरूरत है तो मौजूदा संकट का दुराव आगे कितना बढ़ेगा? भारत के हम लोग कतर, दुबई और सऊदी अरब के विकास, उनके कंक्रीट जंगल बनाने के लिए कड़ी मेहनत करते आए हैं। वे हमारे बॉलीवुड के अभिनेता और अभिनेत्रियों के मुरीद हैं। हमारे मनोरंजन व्यवसाय के पोषक हैं। क्रिकेट के हमारे जुनून और उसके कारोबार की ताकत हैं तो इस्लामी देशों से हमारा कितना गुजारा है, इसे समझना मुश्किल नहीं है। बेशक अरब जमीं में पैदा अल कायदा की चेतावनी को गंभीरता से लिया जाना चाहिए। इससे सत्ता गलियारों में चिंता पैदा होना स्वभाविक है। भक्तों को भी चिंता करनी चाहिए। मगर सवाल है कि इस सबसे भारत की अंदरूनी राजनीति में क्या कोई चिंता होगी? हमारी राजनीति क्या तनिक भी बदलेगी? उसमें क्या नए मोड़ आ सकते है? मुख्यधारा और फ्रिंज तत्वों की केमिस्ट्री क्या बदलेगी?
यही विकट कैच-22 है। बहुत पहले से, 2014 से ही जब भारत की मुख्यधारा नफरत, भय और वैमनस्य के भंवर में है तो यह फर्क करना और सोचना क्या व्यर्थ नहीं है कि जिन कथित फ्रिंज तत्वों से संकट पैदा है वे ही तो 1947 से लेकर अब तक भारत की राजनीति को एक छोर से दूसरे छोर लाते-ले जाते रहे हैं।
1947 में आजादी से पहले और बाद में भी फ्रिंज तत्वों से राजनीति बार-बार बिगड़ी। नेहरू के आइडिया ऑफ इंडिया के पोषक और विरोधियों में फ्रिंज तत्वों से क्या बना और बिगड़ा, उसका हिसाब असंख्य गड़े मुर्दों की दास्तां है। मुख्यधारा और फ्रिंज तत्वों का साझा दूध-पानी जैसा गहरा और स्थायी है। तभी दुनिया में मुख्यधारा और फ्रिंज तत्वों के अलग-अलग होने की सफाई से कुछ बनना नहीं है।
यह बात हिंदू और मुस्लिम दोनों की राजनीति में समान रूप से लागू है। आजादी के बाद भी भारत में मुस्लिम लीग, मौलानाओं, इमामों की फ्रिंज अंडरकरंट से राजनीति आगे बढ़ते हुए थी तो संघ परिवार, सावरकर के अनुयायी फ्रिंज अस्तित्व में ही हिंदू राजनीति का मुख्यधारा में विकल्प बना। जनसंघ फ्रिंज पार्टी ही हुआ करती थी। यहीं स्थिति सन् 2014 में मोदी सरकार के आने से पहले थी। तब प्रवीण तोगडिय़ा थे, प्रज्ञा ठाकुर थीं, आज नूपुर शर्मा हैं तो उधर ओवैसी हैं।
पैगंबर मोहम्मद पर बीजेपी के दो नेताओं की टिप्पणियों और उसके बाद के घटनाक्रम से जहां दोनों तरफ के फ्रिंज तत्वों की बल्ले-बल्ले है वहीं मोदी सरकार-भाजपा की मुख्यधारा में टर्निंग प्वाइंट है। सरकार-बीजेपी-आरएसएस की राजनीति के आगे नए भंवर बनेंगें। मोदी सरकार और भारत के बारे में अंतरराष्ट्रीय धारणा बदल गई है तो इससे भी फ्रिंज तत्वों को नई जड़ें मिलेंगी। वैसे अंतरराष्ट्रीय मीडिया, थिंक टैंक, छद्म उदारवादी विश्व व्यवस्था का मोदी सरकार के प्रति पहले भी सकारात्मक दृष्टिकोण नहीं था, इसलिए जब वे अपने लंबे संपादकीय में ‘भारत के गहरे होते राजनयिक संकट’ के बारे में चेतावनी दे रहे हैं, तो यह सीधे तौर पर घरेलू हालातों पर ऊंगली उठी होना है। इसलिए जो बात मायने की है वह है आगे घर का मूड।
सरकार यह बतलाने की कोशिश में है घर पर सब ठीक है। नूपुर शर्मा को हटा दिया गया, भाजपा ने कम समय में दो राजनेताओं को ‘अनुशासित’ किया है और इससे ज्यादा फ्रिंज तत्वों का कुछ नहीं हो सकता है। टेलीविजन और सोशल मीडिया यदि उनका हल्ला बना रहा है तो जैसे दूसरी तरफ के फ्रिंज तत्वों का कुछ नहीं कर सकते तो इनका भी क्या किया जाए?
यह दुनिया का ध्यान हटवाने की सियासी चतुराई है। प्रधानमंत्री मोदी, और उनका थिंक टैंक न केवल भारत की घरेलू राजनीति से दुनिया का ध्यान हटाने के तरीके खोजने में, बल्कि घर पर लाभ, शक्ति और दबदबे के लिए बहुत होशियारी और सावधानी से काम करता हुआ है।
कारोबारी लोग नफे-नुकसान की पड़ताल में स्वोट (स्ङ्खह्रञ्ज) विश्लेषण का उपयोग करते हैं। यह किसी कंपनी, संगठन की सेहत के आकलन में विकल्प-ए और विकल्प-बी की उपयुक्तता, नफे-नुकसान की संभावना जांचने का प्रभावी तरीका है। इसका राजनीति में उपयोग प्रोपेगेंडा के फायदे-नुकसान को जांचने में किया जाता है। अरब-इस्लामी राष्ट्रों की आलोचना, अल कायदा की धमकी ऐसे समय में है जब आगामी राज्य चुनावों के लिए प्रचार स्क्रिप्ट लिखी जानी है। जिन्हें आजमा और परख कर 2024 के लोकसभा चुनाव में फायदा लेना है। तकनीकी तौर पर यदि हम दूसरे समय में होते, तो आज के मिजाज को देखते हुए चुनने के लिए केवल दो विकल्प होते। पहले जो किया जा रहा है उसे करते रहो, यानी हिंदू के फ्रिंज तत्वों का उपयोग करके दिमाग में भय, चिंता पैदा करते रहो। इसके दूसरे विकल्प में असली मुद्दों याकि विकास, रोजगार, शासन आदि के हवाले वोट मांगे जाएं। दोनों विकल्पों में जोखिम, खतरे और कमजोरियां जुड़ी हुई हैं। लेकिन यह भी सत्य है कि ‘न्यू इंडिया’ के मौजूदा समय में सरकार के काम, असली मुद्दों का विकल्प अधिक जोखिमभरा है।
जैसा कि पिछले और हाल के चुनावों से जाहिर है भारत की राजनीति और चुनाव फिलहाल हिंदू बनाम मुस्लिम भय के मनोविज्ञान से कंडीशन्ड है। ये उनके लिए शक्तिदायी है जो इसका शातिरता से उपयोग करते है। ऐसे में इस्लामी देशों की निंदा सत्तारूढ़ पार्टी के लिए एक वरदान है। इससे न केवल नैरेटिव को दम मिलेगा, बल्कि लोगों के गले यह कहा भी उतरेगा कि हम तो पहले ही कह रहे थे। ‘फ्रिंज एलिमेंट्स’ का शब्द बुद्धिजीवियों और विश्लेषकों के ऑप-एड लिखने और बहस पैदा करने का सामान्य तरीका है, इसमें आलोचक जहां उलझे हुए हैं वहीं कथित फ्रिंज तत्वों का हल्ला भी बनता हुआ है।
ध्यान रहे भाजपा ने पैगंबर मोहम्मद पर टिप्पणी करने वाले दो नेताओं पर कार्रवाई तभी की जब अरब देशों ने आलोचना की। यदि पार्टी गंभीर होती तो कार्रवाई करने में देरी नहीं करती। अपने सोशल मीडिया, आईटी टीम को पहले ही संभलने के लिए कह दिया होता। वैसे सोशल मीडिया के हल्ले में अरब-इस्लामी देशों के खिलाफ कम हल्ला नहीं है। जैसे यह कि जब इस्लाम के नाम पर आतंकवादी कश्मीर घाटी के हिंदुओं और मुसलमानों को मार रहे हैं तो वे उस पर बोलते हुए क्यों नहीं हैं? तुम लोगों का गुस्सा पाखंडी और दिखावे का है।
संदेह नहीं फिलहाल पूरा मामला भय से आगे बढ़ा हुआ है। हर पक्ष एक-दूसरे को तौलते हुए है और भय चुपचाप गुस्से व बदले की भावना तथा फायदे की सोच में कन्वर्ट होता हुआ।
अमेरिका के राष्ट्रपति फ्रैंकलिन रूजवेल्ट ने 1933 के पहले उद्घाटन भाषण में आगाह किया था कि केवल एक चीज है, जिससे हमें डरना है, वह है स्वयं भय।
‘न्यू इंडिया’ में डर से डरा नहीं जाता है, बल्कि उसका सत्ता हासिल करने के लिए उपयोग किया जाता है।
इसलिए कल कुछ नहीं बदलेगा। हमेशा की तरह राजनीति होगी, बावजूद इसके यह मोड़ राजनीतिक हल्लेबाजी को और खतरनाक बनाएगा। पिछले कुछ वर्षों में, कम ही संख्या में एक वर्ग यदि मोदी की भाजपा के बाहर सोचने लगा था, आर्थिक दिक्कतों से चिंता में था तो वह फिर सोचता हुआ होगा कि कुछ भी हो वक्त का तकाजा हिंदू राष्ट्रवाद है। हिंदुत्व से ही सुरक्षा है। चिंता, भ्रम और गुस्से में दोनों संप्रदायों के बीच जो खाई बनी है वह तनाव के कच्चे क्षणों में यह धारणा बनवाने वाली है कि, ‘मोदी के रहते डरने की कोई बात नहीं’।
जहां तक मौजूदा संकट में नरेंद्र मोदी और भाजपा की रीति-नीति की बात है तो ज्यादा सफाई देने और चिंता जाहिर करने जैसा कुछ नहीं होना। बीजेपी दहशत, डर को गले लगाएगी और वहीं दहशत और डर फेंकेगी। देश में जैसा चल रहा है वैसा चलता रहेगा। आलोचना, प्रतिक्रिया और प्रदर्शन सब बेमानी। वहीं विदेश में हिंदुओं के प्रति पहले से ही नजरिया बदलता हुए था अब उन्हें और संदेह से देखा जाएगा। मजाक उड़ाया जाएगा। उपहास होगा तो भेदभाव भी। हम क्रोध के उस समय में जी रहे हैं, जहां भय न केवल स्वीकार्य है, बल्कि पॉवर की पूर्णता के लिए आवश्यक भी।