कौशल किशोर
नई दिल्ली। किसानों के नेता भारत रत्न चौधरी चरण सिंह को 37वीं पुण्यतिथि पर याद करना चाहिए। गाजियाबाद जिले के नूरपुर गांव में 23 दिसंबर 1902 को जन्म हुआ था। राष्ट्रीय राजधानी के तुगलक रोड स्थित आवास पर 28-29 मई के बीच की देर रात में विदा हो गए थे। साल 1987 में। चर्चित अमरीकी विद्वान प्रोफेसर पॉल रिचर्ड ब्रॉस स्वतंत्र भारत के इतिहास के तीन नायकों को समकक्ष मानते हैं। इनमें राम मनोहर लोहिया, कर्पूरी ठाकुर और चौधरी चरण सिंह का नाम शामिल करते थे। भारत में कई साल रहने के बाद भी ब्रॉस यदि देशी राजनीति को सही समझ पाते तो लोहिया के समकक्ष के रुप में किसान नेता स्वामी सहजानंद सरस्वती और जय प्रकाश नारायण का नाम लेते। निश्चय ही कर्पूरी ठाकुर और चौधरी चरण सिंह की तुलना लोहिया और जय प्रकाश नारायण से करना गांधी और नेहरु को बराबर तराजू पर तौलने की राजनीति है।
इस तुलना के दरम्यान ब्रॉस उनकी तीन खूबियों को चिन्हित करते हैं। राजनीति को अपने काम की तरह देखते थे। लक्ष्य स्पष्ट कर उनका पीछा करते थे और इस प्रक्रिया में खुद को आर्थिक रुप से समृद्ध कतई नहीं करते थे। चौधरी साहब साबुन के बदले मुल्तानी मिट्टी का उपयोग करते थे। ठेठ देशी अंदाज उनके व्यक्तित्व में झलकता की है। बीसवीं सदी में नेहरु की कोपरेटिव फार्मिंग और विनोबा भावे की भूदान नीति पर उठाए उनके सवाल आज सही साबित हो रहे हैं।
आज सामाजिक राजनीतिक जीवन में सफलता के इन तीन सूत्रों का पुनर्पाठ होता है, जब कर्पूरी ठाकुर और चौधरी चरण सिंह को केंद्र सरकार भारत रत्न से सम्मानित करती है। आशा करते हैं कि किसी दिन राम मनोहर लोहिया को भी देश का सर्वोच्च नागरिक सम्मान मिलेगा।
इस साल मरणोपरांत भारत रत्न से सम्मानित हुए विभूतियों में पूर्व प्रधान मंत्री नरसिंह राव और कृषि वैज्ञानिक एम.एस. स्वामीनाथन भी शामिल हैं। साथ ही भाजपा के शिखर पुरुष श्री लाल कृष्ण आडवाणी जी को उनके घर पहुंच कर राष्ट्रपति मुर्मू और प्रधानमंत्री मोदी ने सम्मानित किया गया है। बीते 23 जनवरी को शुरु हुई यह प्रक्रिया पिछले सप्ताह पूरी होती है। चौधरी चरण सिंह भारत के पांचवें प्रधान मंत्री और उत्तर प्रदेश के पांचवें मुख्य मंत्री थे। यह भी एक संयोग है कि भारत सरकार पांच विभूतियों को इस साल सम्मानित करती है।
चौधरी साहब के पूर्वजों ने बल्लभगढ़ के जाट राजा नाहर सिंह के साथ 1857 की क्रांति में हिस्सा लिया था। जन्म के समय हरियाणा के गुरुग्राम से निकल कर उनके पूर्वज नूरपुर में बस गए थे। आर्य समाज और स्वतंत्रता की अलख उनको विरासत में मिली। आगरा विश्वविद्यालय से कला और कानून की पढ़ाई कर गाजियाबाद कोर्ट में प्रैक्टिस शुरु किया था। नमक सत्याग्रह के दिनों से ही महात्मा गांधी से प्रभावित रहे और कांग्रेस की राजनीति में शामिल हुए। ब्रिटिश राज में कई बार जेल भी भेजे गए। पहली बार 1937 में उत्तर प्रदेश की विधान सभा का गठन हुआ तो चौधरी साहब इसके 228 सदस्यों में एक थे। 1939 के कर्ज मुक्ति बिल पारित होने पर अहम किरदार साबित हुए। किसानों और पिछड़ों को इससे राहत मिली। इससे उनकी इस वर्ग के प्रति संसदीय राजनीति में प्रतिबद्धता अभिव्यक्त हुई।
आजादी के बाद प्रदेश में गोविन्द बल्लभ पंत की सरकार में संसदीय सचिव और राजस्व मंत्री के रुप में कार्य करते हुए भूमि सुधार का काम किया था। उनकी किताब ज्वाइंट फार्मिंग एक्सरेड 1959 में पहली बार छपी थी। यह नागपुर में उसी साल हुए कांग्रेस के अधिवेशन में उनकी तकरीरों की व्यवस्थित प्रस्तुति है। तत्कालीन प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरु के संयुक्त खेती की नीति की आलोचना कर उन्हें राष्ट्रीय फलक पर पहचान मिली और उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की राजनीति में उनकी हैसियत पर बट्टा लगा। पर पूरे हिंदीभाषी क्षेत्र के किसानों और मजदूरों के बीच छा गए थे। कांग्रेस को अलविदा कह कर 1967 में पहली बार उत्तर प्रदेश के गैरकांग्रेसी मुख्य मंत्री हुए थे। हालांकि संयुक्त विधायक दल की यह गठबंधन सरकार अपना टर्म पूरा करने से पहले ही बिखर गई थी। उनके त्यागपत्र सौंपने पर राष्ट्रपति शासन लागू किया गया था।
उन्होंने भारतीय क्रांति दल का भी गठन किया था और कांग्रेस का विभाजन जब 1970 में हुआ तो दूसरी बार उन्हें उत्तर प्रदेश के नेतृत्व का मौका मिला था। पर इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस के समर्थन वापस लेने पर यह सरकार भी गिर गई और फिर से राष्ट्रपति शासन लागू किया गया था। सत्तर के दशक में इंदिरा गांधी की तानाशाही ‘इमरजेंसी’ के रुप में उभरी। चौधरी साहब भी इसका शिकार हुए थे। इसके बाद केंद्र में मोरारजी देसाई के नेतृत्व में पहली बार एक गैरकांग्रेसी सरकार बनी तो चौधरी साहब को गृह मंत्रालय मिला था। उन्होंने कांग्रेस शासित सभी राज्यों की विधानसभा को भंग करने का काम किया था। इस चुनाव में सरकारी संसाधनों के दुरुपयोग के आरोप में इंदिरा गांधी को जेल भेज दिया और इस मामले में सवाल उठने पर त्यागपत्र भी सौंप दिया था।
बाद में फिर से सरकार में उनकी वापसी उप प्रधान मंत्री और वित्त मंत्री के रुप में हुई थी। इंदिरा गांधी के कांग्रेस ने बाहर से सहयोग देने का वादा किया। 28 जुलाई 1979 को प्रधान मंत्री भी बने और लाल किला की प्राचीर से देश को संबोधित भी किया। संजय गांधी के खिलाफ चल रहे मुकदमे वापस लेने की बात नहीं मान कर 20 अगस्त को त्यागपत्र देना मुनासिब समझा था। इस तरह उनकी सरकार कुल 23 दिनों तक चली।
इसके बाद उन्होंने लोक दल का गठन किया। जमींदारी उन्मूलन और किसानों के फसल की बेहतर कीमत का प्रविधान उनकी अहम देन है। सभी फसलों पर एम.एस.पी. की मांग करने वाले किसानों को अपने हक की मांग करते देख बरबस उनकी याद आती रही। राज घाट के पास किसान घाट पर उनकी समाधि मौजूद है। किसानों के हित में पूरा जीवन समर्पित करने के कारण उनका जन्म दिन किसान दिवस के रुप में मनाते हैं। भूदान कानून में संशोधन कर सरकारें यदि श्रद्धांजलि देने का काम करे तो आज सत्याग्रह कर रहे हजारों लोगो को राहत मिलेगा।