कर्नाटक विधानसभा चुनावों में जीत से कांग्रेस कुछ ज्यादा ही उत्साहित हो गई और इसके नतीजों को पूरे देश का मूड मानकर उसने नरेंद्र मोदी सरकार के खिलाफ अपने आक्रमण की धार को और तेज़ करने का फैसला किया। उसकी इस अतिशय तेज़ी के कारण भाजपा-विरोधी अन्य दल भी हड़बड़ा गए और इसीलिए नए संसद भवन के उद्घाटन का बहिष्कार करके गड़बड़ा गए।
देखा जाए तो 140 करोड़ देशवासियों के लिए यह गौरव का एक अभूतपूर्ण क्षण था, जब आजादी के 75 साल बाद पहली बार देश को स्वनिर्मित संसद भवन की सौगात मिलनी थी, लेकिन मोदी से नफरत की आग में जलते भाजपा-विरोधी दलों ने दलील दी कि चूंकि संसद भवन का उद्घाटन राष्ट्रपति से नहीं, प्रधानमंत्री से कराया जा रहा है, इसलिए वे इसका बहिष्कार करेंगे।
लोकतंत्र में सत्ता पक्ष की नीतियों और फैसलों का विरोध करना विपक्षी पार्टियों का अधिकार है, लेकिन राजनीति के तीरंदाजों को यह बात भली-भांति मालूम होनी चाहिए कि कमान को किस हद तक खींचा जाए जिससे कि वह टूटे नहीं। यदि विरोधी दलों को ऐसा लगता था कि नए संसद भवन का उद्घाटन राष्ट्रपति से नहीं कराना सचमुच ही उनका अपमान है, तो सीधे बहिष्कार से पहले इस मुद्दे पर वे पहले मीडिया और सोशल मीडिया के जरिए राष्ट्रव्यापी बहस चलाते; देश भर में धरना-प्रदर्शन-जनसभाएं करते; राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष इत्यादि से मिलने का समय मांगते। माहौल को गरमाए रखते, हड़बड़ाहट में अपने पत्ते नहीं खोलते और केंद्र सरकार एवं भाजपा के तर्कों को सामने आने देते। इससे वे अधिक सटीक रणनीति बना पाते। यदि उनके तर्क सरकार और भाजपा पर भारी पड़ते और उनके पक्ष को देश में ज्यादा समर्थन मिल रहा होता, तो बेशक वे बहिष्कार भी कर लेते।
लेकिन राहुल गांधी ज्यादातर मामलों में जिस प्रकार से अतिरिक्त हड़बड़ी और उत्तेजना में दिखाई देते हैं, लगभग वैसा ही इस मामले में भी दिखाई दिया। 21 मई को राहुल गांधी ने ट्वीट किया कि “नए संसद भवन का उद्घाटन राष्ट्रपति जी को ही करना चाहिए, प्रधानमंत्री को नहीं।” इसके बाद इस मुद्दे पर बिना अधिक शोर-शराबा किये अंदरखाने अपने नेताओं को उन्होंने बहिष्कार के लिए विपक्षी दलों को तैयार करने में झोंक दिया। शायद उन्हें सरकार के विरोध में विपक्षी दलों की एकता और विशाल संख्या को दिखाकर देश को चौंकाना था, इसलिए आनन-फानन में 24 मई को ही 19 पार्टियों ने उद्घाटन समारोह के बहिष्कार का एलान कर दिया। यानी कांग्रेस और सहयोगी दलों ने अपना सबसे बड़ा हथियार बिल्कुल शुरू में ही चल दिया। चूंकि विपक्ष इससे ज्यादा कुछ कर नहीं सकता था, इसलिए सरकार और भाजपा दोनों को फुलप्रूफ जवाबी रणनीति बनाने का पर्याप्त मौका मिल गया।
सरकार और भाजपा ने राष्ट्रपति को बाइपास करके इंदिरा गांधी और राजीव गांधी द्वारा किये गये उद्घाटनों के बारे में तो देश को बताया ही, स्वयं राहुल गांधी, सोनिया गांधी और अनेक विपक्षी मुख्यमंत्रियों द्वारा विभिन्न राज्यपालों को बाइपास करके किये गये उद्घाटनों का ब्यौरा भी जनता के सामने प्रस्तुत कर दिया। राष्ट्रपति चुने जाने से पहले और चुने जाने के बाद द्रोपदी मुर्मू के बारे में विभिन्न विपक्षी नेताओं के आपत्तिजनक बयानों का लेखा-जोखा भी पेश कर दिया गया, जिससे लोगों को यह पता चला कि राष्ट्रपति के सम्मान का नारा कितना असली है और कितना नकली है।
मोदी सरकार और भाजपा ने मिलकर यह भी सुनिश्चित किया कि और अधिक दल इस मुद्दे पर कांग्रेस के साथ न जाने पाएं। कांग्रेस के साथ लगभग 20 पार्टियां ही रहीं, जबकि सरकार के साथ 25 से अधिक पार्टियां आ गईं। इनमें बहुजन समाज पार्टी, बीजू जनता दल, तेलुगु देशम पार्टी, वाईएसआर कांग्रेस, शिरोमणि अकाली दल, जनता दल सेक्युलर इत्यादि कई महत्वपूर्ण गैर-एनडीए पार्टियां भी शामिल रहीं। वर्तमान 539 लोकसभा सदस्यों में से 382 सदस्यों का और 238 राज्यसभा सदस्यों में से 131 सदस्यों का समर्थन सरकार को हासिल हो गया।
फिर जब उद्घाटन का वक्त आया, तो इसमें वैदिक विधि-विधान से हवन पूजन तो हुआ ही, सर्व पंथ प्रार्थना भी हुई। इसमें हिन्दू, सिख, बौद्ध और जैन जैसे सनातनियों के अलावा मुस्लिम, ईसाई और पारसी संप्रदाय के गुरुओं को भी शामिल किया गया। इससे विपक्ष की उस योजना की भी हवा निकल गई, जिसके तहत वे नई संसद के भगवाकरण का आरोप लगाने वाले थे। लोकसभा कक्ष में अध्यक्ष के आसन के पास सेंगोल स्थापना को काफी महत्व दिया गया। प्रधानमंत्री मोदी इसके सामने साष्टांग दंडवत हुए। लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला के साथ स्वयं ही इसे स्थापित किया और फिर से प्रणाम किया। शुरू में भाजपा नेता सेंगोल के बारे में बताते हुए इसे जवाहर लाल नेहरू से जोड़कर काफी विनम्रता का परिचय दे रहे थे, लेकिन विपक्ष के बहिष्कार के बाद वे अचानक ही आक्रामक हो उठे और कांग्रेस को एक्सपोज़ करने के अंदाज़ में बताने लगे कि इसे तो जवाहर लाल नेहरू की “गोल्डेन वॉकिंग स्टिक” कहकर इलाहाबाद के संग्रहालय में रख दिया गया था।
विपक्षी दलों ने सरकार पर राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति को आमंत्रित तक नहीं करने का आरोप लगाया था, लेकिन उद्घाटन समारोह में राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति दोनों का लिखित संदेश पढ़ा गया, जिससे इस उद्यम में उनकी गरिमापूर्ण सहभागिता अपने आप प्रमाणित हो गई। इतना ही नहीं, राष्ट्रपति ने अपने लिखित वक्तव्य में साफ-साफ कह दिया कि “मुझे इस बात पर गहरा संतोष है कि संसद के विश्वास के प्रतीक प्रधानमंत्री इस भवन का उद्घाटन कर रहे हैं।” पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद और पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा की उपस्थिति से समारोह और भी समावेशी दिखाई दिया।
AIMIM के असदुद्दीन ओवैसी ने यह कहते हुए कार्यक्रम का बहिष्कार किया था कि नए संसद भवन का उद्घाटन लोकसभा अध्यक्ष से कराया जाए, लेकिन उनकी यह जिद भी बेमानी सिद्ध हुई, क्योंकि लोकसभा अध्यक्ष तो कार्यक्रम में शुरु से लेकर अंत तक प्रधानमंत्री की छाया की तरह दिखाई दिये। राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश नारायण सिंह भी महत्वपूर्ण भूमिका में दिखे, जो कि वास्तव में इस कार्यक्रम का बहिष्कार करने वाली पार्टी नीतीश कुमार के जनता दल यूनाइटेड के ही सांसद हैं। इससे यह भी सिद्ध हो गया कि या तो नीतीश कुमार का विरोध सैद्धांतिक न होकर केवल राजनीतिक था, या फिर इस मुद्दे पर उनकी पार्टी में फूट पड़ चुकी है।
इस कार्यक्रम की संरचना ऐसी थी कि तमिलनाडु में भारतीयता के विचार को मजबूती मिलना सुनिश्चित है। तमिलनाडु की परंपरा और अधीनम संतों को देश की संसद में इतना सम्मान मिलने से इस सुदूर दक्षिण राज्य में एक सकारात्मक संदेश जाएगा। इसी तरह, वीर सावरकर की जयंती के दिन वैदिक रीति-रिवाज से संपन्न हुए इस उद्घाटन समारोह का बहिष्कार करने से शिवसेना उद्धव ठाकरे गुट की हिन्दुत्ववादी छवि पर भी थोड़ी और खरोंचें आएंगी।
इधर राष्ट्रीय जनता दल की हताशा भी उसके एक ट्वीट से प्रकट हुई, जिसमें नए संसद भवन की आकृति को ताबूत जैसा दिखाने की कोशिश करते हुए उसने लोगों से पूछा – “ये क्या है?” यदि किसी राजनीतिक दल को देश की संसद ताबूत जैसी दिखाई देने लगे, तो इसे नफरत और नकारात्मक राजनीति की अति ही कहा जाएगा। क्या इन दलों ने एक बार भी यह नहीं सोचा कि जिस संसद भवन के प्रति ऐसी नकारात्मकता का वे इजहार कर रहे हैं, वास्तव में उसी में पहुंचने के लिए वे सारी राजनीति कर रहे हैं?