कौशल किशोर
भारत छोड़ो आंदोलन को आज 82 साल पूरे होते हैं। गांधी अंग्रेजों को समझाने हेतु इसके नामकरण पर मंथन करते हैं। युसूफ मेहर अली ने क्विट इंडिया मूवमेंट नाम सुझाया था। आज अपने देश में एक ऐसा इंडिया भी है, जिसे भारत ही नहीं कह सकते। आर्यावर्त और जम्बूद्वीप तो दूर इसे हिंदुस्तान भी नहीं कह सकते हैं। कांग्रेस नेता शशि थरूर इसे ही असली इंडिया कहते हैं। बंगलुरु में पहली बार यह नाम गूंजता है। सही में कर्नाटक विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की जीत के बाद अगले चुनाव की यह जुमलेबाज़ी है।
बंगलुरु में सबसे पुराने पार्टी के नेतृत्व में 26 दल मिलकर चुनाव लड़ना तय करते हैं। समझौता के इस किस्त में समर भूमि का समीकरण निर्धारित हुआ। कांग्रेस के नेतृत्व वाला राजनीतिक प्रयोग संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) का पटाक्षेप हुआ व ‘इंडिया’ (भारतीय राष्ट्रीय विकासात्मक समावेशी गठबंधन) शुरू हो गया। इस मंत्र का आगामी लोकसभा चुनाव पर व्यापक प्रभाव होगा। इसकी व्यापकता 14 फरवरी 2019 को हुई पुलवामा आतंकी हमले की याद दिलाती है।
भाजपा के नेता रविशंकर प्रसाद फिर ब्रिटिश नौकरशाह और पक्षीविज्ञानी एलन ऑक्टेवियन ह्यूम को याद करते हैं। उन्होंने 19वीं शताब्दी में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस शुरु किया था। इस नये ‘इंडिया’ की तुलना ईस्ट इंडिया कंपनी से लेकर इंडियन मुजाहिदीन व पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया से भी होने लगी है। अमेरिका में पहले ही इसके नेता राहुल गांधी इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग (आईयूएमएल) की सम्पूर्ण धर्मनिरपेक्षता का प्रमाण पत्र जारी कर चुके हैं।
पूर्व कांग्रेस नेता और असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा शर्मा ट्विटर पर इंडिया की जगह भारत लिख कर नए सिरे से क्विट इंडिया मूवमेंट को परिभाषित करते हैं। निश्चय ही यही एक दिन संवैधानिक संशोधन में परिणत होगा। ‘इंडिया दैट इज भारत’ की परिभाषा को ‘भारत दैट इज आर्यावर्त’ के रूप में परिवर्तित कर सकता। इस प्रक्रिया में 18 सितंबर 1949 को संविधान सभा में शुरु हुई बहस की श्रृंखला देखने की विवशता होगी। अंग्रेज श्रीलंका को सीलोन कहते थे। इस औपनिवेशिक पहचान को उन्होंने पहली चीज के तौर पर खारिज किया है। सिपाही विद्रोह के बाद आर्यों की इस भूमि की आर्यावर्त के रूप में महर्षि दयानंद ने व्याख्या दी। बीसवीं शताब्दी में बाबा आमटे की भारत जोड़ो यात्रा में वही दर्शन मौजूद दिखता है।
सत्तारूढ़ गठबन्धन एनडीए (राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन) शक्ति प्रदर्शन हेतु राष्ट्रीय राजधानी में एकत्र होता है। कुल 38 सहयोगियों के साथ मोदी के नेतृत्व वाला गठबंधन अगली लड़ाई लड़ने को तैयार है। मायावती के नेतृत्व वाली बसपा उत्तर प्रदेश में इन दोनों को चुनौती देने के लिए मैदान में होगी। तेलंगाना में के.चंद्रशेखर राव की बीआरएस, आंध्र प्रदेश में जगन मोहन रेड्डी की वाईएसआर कांग्रेस और ओडिशा में नवीन पटनायक की बीजेडी भी होगी। संसद में दिल्ली अध्यादेश पर प्रतिक्रिया से समीकरण और स्पष्ट होता है।
भारत में लोकतंत्र की जगह विकास लेती प्रतीत होती है। बिहार के नेता नीतीश कुमार ने विपक्षी गठबंधन के नाम पर आपत्ति जताई थी। नीतीश लंबे समय से इस गठबन्धन का सपना देखते हैं। उन्होंने राहुल गांधी, तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख ममता बनर्जी और आप के संयोजक अरविंद केजरीवाल को एक साथ लाने में अहम भूमिका निभाई। गठबंधन का संयोजक और सचिवालय ही नहीं है। बिहार के नेताओं की जल्दी वापसी के पीछे यह एक वजह हो सकती है। उस दिन संयुक्त प्रेस कॉन्फ्रेंस से पहले राजद और जदयू नेता अचानक बेंगलुरु छोड़कर चले गए थे।
श्रीलंका के राष्ट्रपति रानिल विक्रमसिंघे भी इस बीच भारत आते हैं। पिछले साल पद संभालने के बाद यह उनकी आधिकारिक नई दिल्ली का प्रवास था। तमिलनाडु के मुख्य मंत्री एमके स्टालिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक दिन पहले ही खत लिखते हैं। उन्होंने श्रीलंका से कच्चातिवु द्वीप की वापसी की पुरानी मांग को दोहराया है। भारत सरकार ने 1974 में ही इसे श्रीलंका को सौंप दिया था। इसका उनके पिता व तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री एम. करुणानिधि ने उस समय विरोध किया था। राजनीति के जाने माने पंडित डीएमके सुप्रीमो के इस कदम को क्विट ‘इंडिया’ की ओर ईशारा मानते हैं।
एक सदी पहले भारत और श्रीलंका कच्चातिवु द्वीप पर दावा करती है। यह 14वीं शताब्दी में ज्वालामुखी फटने के कारण हिंद महासागर मे बना। तमिलनाडु की पूर्व मुख्यमंत्री जयललिता ने कहा था कि भारत सरकार ने सूबे की सहमति के बिना ही इसे पड़ोसी को सौंप दिया। विधान सभा में प्रस्ताव पारित कर इसे असंवैधानिक भी घोषित किया गया। तमिलनाडु ने 2008 में शीर्ष अदालत में एक याचिका दायर की थी। अटॉर्नी जनरल अदालत को बताते हैं कि ऐसी मांग से निश्चित रूप से दो पड़ोसियों के बीच के संबंधों को नुकसान होगा।
तमिलनाडु इस तथ्य को शायद ही भूल सके कि यह वही रानिल विक्रमसिंघे हैं जिन्होंने 2015 में प्रधानमंत्री रहते इस द्वीप के पास पहुंचने वाले भारतीय मछुआरों को गोली मारने की बात कह दी थी। डीएमके के लोक सभा सदस्यों ने इसे प्रधान मंत्री मोदी और श्रीलंका के राष्ट्रपति विक्रमसिंघे के सामने उठाया था। इस पर दोनों नेताओं के बीच की बातचीत के परिणामस्वरूप 15 मछुआरों को मल्लाडी (श्रीलंका) की जेल से रिहा भी किया गया।
इस द्वीप को पुनः प्राप्त करने के साथ डीएमके श्रीलंकाई अधिकारियों द्वारा भारतीय मछुआरों को हिरासत में लेने और श्रीलंका की आबादी के तमिल वर्ग की आकांक्षाओं पर ध्यान देती है। पर विक्रमसिंघे के जाने के तुरन्त बाद श्रीलंका की नौसेना ने नौ भारतीय मछुआरों को गिरफ्तार कर लिया। रामनाथपुरम और तुथुकुडी में मछली पकड़ने वाला समुदाय आंदोलित है। इस गंभीर समस्या को सुलझाने हेतु कोई द्रविड़ नेता किस सीमा तक जाएगा कहा नहीं जा सकता है।
क्रिश्चियन प्रेस ने खूब मुहावरा गढ़ा, व्हाइट मैन्स बर्डन। 19वीं सदी में ब्रिटिश साम्राज्यवाद के गीत गाने वाले कवि रुडयार्ड किपलिंग की कविता में यह राजनीति खूब परिभाषित हुई है। पहली बार 4 फरवरी 1899 को लंदन में द टाइम्स ने द व्हाइट मैन्स बर्डन शीर्षक से इसे छापा था और अगले दिन न्यूयॉर्क में द सन यह छपती है। श्वेत लोगों का बोझ, एशिया व यूरोप से लेकर अमेरिका तक बहस का हिस्सा बनी। किपलिंग ने शेष विश्व को सभ्य बनाने में पश्चिम के तथाकथित नैतिक कर्तव्य पर नए विमर्श को जन्म दिया।
इसकी पृष्ठभूमि में 1857 का सिपाही विद्रोह है। हिंदुओ और मुसलमानों ने मिल कर अंग्रेजों के खिलाफ यह लड़ाई लड़ी थी। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान मुस्लिम लीग और कांग्रेस ने एकता और सद्भाव की भावना को पुनर्जीवित करने का एक प्रयास किया था। बाल गंगाधर तिलक, अली बंधु और मुहम्मद अली जिन्ना लखनऊ पैक्ट में इसे दोहराते। बाद में महात्मा गांधी इसे आगे बढ़ाते प्रतीत होते। फूट डालो और राज करो की पुरानी नीति भी तभी से चलन में रही है। यह राजनीति अखंड भारत के विभाजन का कारण भी बनी। राहुल एंड कंपनी इसी तरह की राजनीति को फिर से परिभाषित करने की कोशिश कर रही है। हाल ही में उन्होंने भारत विरोधी ताकतों से चुनाव में सहयोग सुनिश्चित करने के लिए यूरोप व अमेरिका का दौरा भी किया था। प्रधान मंत्री मोदी नये भारत की राजनीति को विकास और आकांक्षाओं के संदर्भ में परिभाषित करते हुए कहते हैं, ”राजनीति में प्रतिस्पर्धा हो सकती है, लेकिन दुश्मनी नहीं। दुर्भाग्य से आज विपक्ष ने हमें गाली देना ही अपनी पहचान बना लिया है। हमने हमेशा भारत को सभी राजनीतिक हितों से ऊपर रखा है।”
भारत छोड़ो आंदोलन की वर्षगांठ से पहले एक ऐसा अवसर बन पड़ा कि कोई भी क्विट इंडिया का समर्थन कर सकता है। श्वेत लोगों का बोझ ढोते हुए शशि थरूर की कांग्रेस भी अब झक्क सफेद हो गई है। भारत का लोकतंत्र परिपक्व होने से पहले ही दम तोड़ता प्रतीत होता है। इस तनावपूर्ण दशा में सत्तारूढ़ दल के लिए संसद के नए भवन में सभी दलों की भागीदारी के साथ सत्र शुरु करना संभव नहीं हो सका है।