नई दिल्ली : भारतीय इतिहास में जलियांवाला बाग हत्याकांड एक गहरे सदमे की तरह दर्ज है. 13 अप्रैल सन् 1919 को बैसाखी को मौके पर हजारों लोग पंजाब के जलियांवाला बाग में एकट्ठा हुए थे. इस अहिंसक प्रदर्शन में महिलाएं और बच्चे भी शामिल थे. मकसद था अंग्रेजी सरकार के दमनकारी ‘रोलेट एक्ट’ के खिलाफ अपना शांतिपूर्ण विरोध दर्ज करना. मगर कुछ ही देर में चारों ओर से दीवारों से बंद बाग के एकलौते गेट को अंग्रेज सिपाहियों ने बंद कर दिया और इसे हर तरफ से घेर लिया.
अंग्रेज अधिकारी रेजिनाल्ड एडवर्ड हैरी डायर ने निहत्थे प्रर्दशनकारियों पर गोलियां चलाने का आदेश दे डाला. कुछ देर तक आसमान गोलियों की गूंज से कांपता रहा और जब हवा से बारूद की महक कुछ हल्की हुई, तो हजारों बेगुनाहों की खून से सनी लाशों से पूरा जलियांवाला बाग पट चुका था. कईयों ने तो अपनी जान बचाने के लिए बाग के अंदर मौजूद कुंए में छलांग लगा दी थी. इस खौफनाक घटना में 500 से 1200 लोगों की जानें गईं जिसमें हर उम्र के लोग शामिल थे.
क्या था Rowlatt Act?
रोलेट अधिनियम, (फरवरी 1919), इंपीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल, ब्रिटिश भारत की विधायिका द्वारा पारित कानून था. दरअसल, पहले विश्वयुद्ध (1914-1918) दौरान ब्रिटिश सरकार ने अपने उपनिवेशों पर कड़े नियम थोपे थे. जब विश्वयुद्ध खत्म हुआ तो भारत की जनता को उम्मीद थी कि ‘डिफेंस ऑफ इंडिया एक्ट 1915’ के कड़े प्रतिबंध हट जाएंगे. मगर जस्टिस एस.ए.टी. रोलेट कमेटी 1918 की सिफारिशों के तहत ब्रिटिश सरकार ने इन प्रतिबंधों को पर्मानेंट करने का फैसला किया.
रोलेट ऐक्ट के अधिनियमों के तहत सरकार को अनुमति होती कि वह राजनीतिक मामलों को बिना किसी जूरी के फैसला करती और बिना मुकदमे के ही संदिग्धों को नजरबंद कर सकती थी. इसका मतलत था कि ब्रिटिश सरकार बिना मुकदमे के ही किसी को भी जेल में डाल सकती थी. भारतीय जनता द्वारा रोलेट एक्ट का कड़ा विरोध किया गया.
महात्मा गांधी ने रोलेट एक्ट के खिलाफ एक विरोध आंदोलन शुरू किया जो अमृतसर के नरसंहार (अप्रैल 1919) और उसके बाद उनके असहयोग आंदोलन (1920-22) तक जारी रहा. स्वाधीनता सेनानियों के प्रयासों के चलते रोलेट एक्ट के अधिनियमों को वास्तव में कभी लागू नहीं किया जा सका.