दिल्ली : दिल्ली ही नहीं बल्कि पूरे देश में चर्चा चल पड़ी है कि दिल्ली के संबंध में आए अध्यादेश का क्या होगा| अरविन्द केजरीवाल को लगता था कि सुप्रीमकोर्ट अध्यादेश को पांच मिनट में खारिज कर देगी, उनके वकील अभिषेक मनु सिंघवी ने भी अध्यादेश को असंवैधानिक कहा था| विपक्ष के अनेक नेताओं ने अध्यादेश के खिलाफ बयान दिया| कांग्रेस ने कोई बयान नहीं दिया, तो मीडिया ने अभिषेक मनु सिंघवी के बयान को कांग्रेस के बयान के तौर पर इस्तेमाल कर समूचे विपक्ष को अध्यादेश के खिलाफ बता दिया| जबकि यह सच नहीं था|
केजरीवाल को जब यह पता चला कि सुप्रीमकोर्ट के जिस फैसले के बाद उन्होंने अफसरों को धमकाना शुरू कर दिया था, उसी फैसले के पैराग्राफ 95 में लिखा था कि कोर्ट यह फैसला इसलिए दे रही है कि 1991 के जिस क़ानून में दिल्ली सरकार और केंद्र के अधिकार बताए गए हैं, उसमें प्रशासन के बारे में स्थिति स्पष्ट नहीं है| भविष्य में अगर संसद कोई क़ानून बनाती है, तो उपराज्यपाल के प्रशासनिक अधिकार उसी क़ानून के अनुसार तब्दील हो जाएंगे और राज्य सरकार को उसे मानना होगा| अध्यादेश जारी कर के केंद्र सरकार ने सुप्रीमकोर्ट के फैसले को क़ानून के मुताबिक़ बदलने के लिए पुनर्विचार की याचिका लगा दी है|
केजरीवाल को बहुत देर बाद समझ आया कि अब सुप्रीमकोर्ट इस मामले में कुछ नहीं करेगी, जो करेगी संसद करेगी| अध्यादेश पर आधारित बिल संसद में पास हो गया, तो उसे सुप्रीमकोर्ट में चुनौती देने का भी फायदा नहीं होगा| इसलिए अब उन्होंने सारा जोर क़ानून को पास होने से रोकने पर लगा दिया है| केजरीवाल ने अध्यादेश को संघीय ढांचे पर हमले के रूप में प्रचारित करते हुए सभी विपक्षी दलों से समर्थन मांगा है|
सुप्रीमकोर्ट ने भी अपने फैसले में संघीय ढांचे का जिक्र करते हुए दिल्ली सरकार को प्रशासनिक अधिकार दिए थे| जबकि दिल्ली पूर्ण राज्य नहीं है, दिल्ली यूनियन टेरिटरी है, केंद्र शासित है| सुप्रीमकोर्ट ने दिल्ली को पूर्ण राज्य मानकर उसे प्रशासनिक अधिकार दे दिए थे| अब उसी का फायदा उठा कर अरविन्द केजरीवाल अध्यादेश को संघीय ढांचे पर प्रहार बता रहे हैं|
संघीय ढांचे के नाम पर क्षेत्रीय दलों की राज्य सरकारें और क्षेत्रीय दल केजरीवाल को समर्थन दे रहे हैं| केजरीवाल इस बहाने देश भर में अलख जगाने निकल चुके हैं| इस अध्यादेश ने उन्हें क्षेत्रीय दलों का केंद्र बिन्दु बनने का मौक़ा दे दिया है| लेकिन क्षेत्रीय दलों की राज्यसभा में इतनी संख्या नहीं है कि वे सब मिल कर भी बिल को रोक सकें|
आम तौर पर तटस्थ या केंद्र सरकार के साथ रहने वाले बीजू जनता दल और वाईएसआर कांग्रेस के 18 राज्यसभा सांसदों को अलग कर दें, तो आम आदमी पार्टी समेत क्षेत्रीय दलों के विपक्षी सांसदों की संख्या सिर्फ 79 है| जबकि 238 के मौजूदा प्रभावी सदन में भाजपा की अपनी संख्या ही 93 है, एनडीए के सांसदों की संख्या 110 है| कांग्रेस के 31 सांसद मिलाकर विपक्ष की संख्या भी 110 ही बनती है|
कांग्रेस अगर केजरीवाल के साथ खड़ी होती है, तब जाकर राज्यसभा में वोटिंग करवाने का कोई फायदा होगा| वैसे तब भी सरकार को बिल पास करवाने में कोई दिक्कत नहीं आएगी| इस समय का सब से अहम सवाल यह है कि कांग्रेस कहां खड़ी है| कांग्रेस ने संघीय ढांचे के नाम पर सुप्रीमकोर्ट के फैसले का स्वागत किया था|
संवैधानिक रूप से घिर चुके केजरीवाल ने अब नीतीश कुमार के माध्यम से उस कांग्रेस से मदद मांगी है, जिसके विरोध के आधार आम आदमी पार्टी खड़ी हुई है| दिल्ली, पंजाब, गोवा और गुजरात में कांग्रेस को तबाह करके अरविन्द केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी को राष्ट्रीय पार्टी बनाया है| कांग्रेस अगर भाजपा को नंबर एक विरोधी पार्टी मानती है, तो आम आदमी पार्टी को अपने लिए दूसरे नंबर का खतरा मानती है| इसलिए कांग्रेस ने कर्नाटक के शपथ ग्रहण में केजरीवाल को न्योता नहीं भेजा था|
आम आदमी पार्टी की अब तक की सारी रणनीति भी अखिल भारतीय स्तर पर कांग्रेस की जगह लेने की है| ऐसे में क्या नीतीश कुमार उनकी कोई मदद कर सकेंगे| कांग्रेस ने विपक्षी एकता के लिए सभी दलों से बात करने की जिम्मेदारी नीतीश कुमार को दे रखी है| नीतीश कुमार अपने प्रयासों के सिलसिले में तीन बार केजरीवाल से मिल चुके हैं| केजरीवाल अलग से ममता बनर्जी और चन्द्रशेखर राव के साथ मिल कर तीसरा मोर्चा बनाने की कवायद करते रहे हैं, इसलिए मालूम नहीं कि तीन दौर की बातचीत में केजरीवाल का क्या स्टैंड था| न तो इसे कभी केजरीवाल ने जाहिर किया, न नीतीश कुमार ने| लेकिन अध्यादेश को केजरीवाल और नीतीश कुमार विपक्षी एकता का केंद्र बिन्दु मानकर चल रहे हैं|
नीतीश कुमार जब समर्थन जताने केजरीवाल के बंगले पर पहुंचे, तो केजरीवाल ने उनके माध्यम से कांग्रेस से समर्थन मांगा| नीतीश कुमार ने एक तरह से विपक्षी एकता के प्रयासों को समर्थन देते हुए पहली बार सार्वजनिक तौर पर कहा कि अध्यादेश के मुद्दे पर राज्यसभा में 2024 का सेमी फाईनल होगा| यह बात उन्होंने विपक्षी एकता के लिए कही थी, एक तरह से यह उनकी शर्त थी कि कांग्रेस अध्यादेश के मुद्दे पर राज्यसभा में उनका समर्थन करे तो वह 2024 का लोकसभा चुनाव मिलकर लड़ने को तैयार है|
केजरीवाल का संदेश लेकर राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खड़गे से मिले नीतीश कुमार ने राहुल गांधी के दिमाग में बिठा दिया था कि यह विपक्षी एकता का बड़ा मौका है, केजरीवाल ने इसे 2024 का सेमीफाइनल कहा है| सच्चाई यह है कि राहुल गांधी पिघल गए। सूत्रों के हवाले से एक खबर जारी करवाई गई कि कांग्रेस ने हमेशा फेडरलिज्म पर हमले का विरोध किया है| खबर क्योंकि कांग्रेस बीट के पत्रकारों ने लिखी थी, इसलिए स्पष्ट था कि यह पुख्ता खबर थी|
इसका मतलब यह निकलता है कि कांग्रेस बिल का विरोध करेगी| जैसे ही यह खबर फैली दिल्ली के कांग्रेसी आग बबूला हो गए| कांग्रेसी नेताओं ने राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खड़गे तक अपनी बात पहुंचाई कि अध्यादेश ने प्रशासन की उसी स्थिति को बहाल किया है, जिसमें 15 साल तक बिना विवाद के शीला दीक्षित ने दिल्ली का शासन चलाया| इस बीच छह साल केंद्र में एनडीए की सरकार थी, लेकिन प्रशासनिक अधिकारियों को लेकर कभी विवाद नहीं हुआ|
दिल्ली के कांग्रेसियों का कहना है कि यह केजरीवाल का खड़ा किया हुआ विवाद है| शीला दीक्षित सरकार में मंत्री रहे अजय माकन ने पहले कांग्रेस हाईकमान को धीरे से इशारा करने के लिए एक घटना का जिक्र करते हुए ट्विट किया, जिसमें उन्होंने बताया कि चुने हुए नुमाईन्दों को ब्यूरोक्रेसी से साथ किस तरह व्यवहार करना चाहिए| यह घटना उस समय की थी, जब वह शीला दीक्षित सरकार में ट्रांसपोर्ट मंत्री थे|
लेकिन जब राहुल गांधी, मल्लिकार्जुन खड़गे या केसी वेणुगोपाल ने कांग्रेस की स्थिति साफ़ नहीं की, तो दिल्ली प्रदेश कांग्रेस में बगावत की सुगबुगाहट शुरू हो गई| क्योंकि दिल्ली प्रदेश कांग्रेस का एक भी नेता अध्यादेश का विरोध करने के पक्ष में नहीं है| इस सुगबुगाहट के बाद सोमवार रात को केसी वेणुगोपाल को ट्विट लिखना पड़ा कि कांग्रेस ने कोई फैसला नहीं किया है|
केसी वेणुगोपाल का ट्विट अध्यादेश का विरोध करने का स्टैंड लेने वाला नहीं था, बल्कि फैसला नहीं होने की बात कहता था| उन्होंने कहा कि पार्टी अपने नेताओं और समान विचारधारा के विपक्षी नेताओं से सलाह कर के फैसला करेगी| केजरीवाल और नीतीश कुमार अध्यादेश का विरोध करने के लिए लामबंदी शुरू कर चुके हैं, उससे दिल्ली के कांग्रेसियों को आशंका है कि राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खड़गे विपक्षी एकता के नाम पर दबाव में आ जाएंगे| इसलिए कांग्रेस के भीतर इस पर बवाल खड़ा हो गया है|
अध्यादेश का समर्थन और केजरीवाल का विरोध करने के लिए मंगलवार को दिल्ली और पंजाब के कांग्रेसी नेताओं की बैठक हुई| इस बैठक में अजय माकन, संदीप दीक्षित और पंजाब विधानसभा में विपक्ष के नेता प्रताप सिंह बाजवा शामिल थे| बाद में इन्होंने हरियाणा और हिमाचल प्रदेश कांग्रेस के नेताओं से भी संपर्क साधा| अजय माकन और प्रताप सिंह बाजवा ने ट्विट करके अध्यादेश के पक्ष में दलीलें दी हैं और कांग्रेस हाईकमान से दो टूक कहा है कि अध्यादेश का विरोध नहीं किया जाए। प्रताप सिंह बाजवा ने तो अपने ट्विट में यह भी लिखा है कि केजरीवाल का समर्थन करना अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना है| कांग्रेस विपक्षी एकता के नाम पर अपने पैरों पर कुल्हाड़ी नहीं मारे|
कांग्रेस महासचिव अजय माकन ने अपने लंबे ट्विट में लिखा है कि दिल्ली यूनियन टेरिटरी है, बल्कि राष्ट्रीय राजधानी भी है, राज्य नहीं है| इसलिए इसे संघीय ढांचे पर प्रहार के रूप में देखना गलत होगा| राष्ट्रीय राजधानी के तौर पर केंद्र सरकार हर साल दिल्ली पर 37500 करोड़ रुपया खर्च करती है| अजय माकन ने दिल्ली के प्रशासन के बारे में बनी डाक्टर अंबेडकर कमेटी की रिपोर्ट का भी हवाला दिया| इस रिपोर्ट में अमेरिका और आस्ट्रेलिया की राष्ट्रीय राजधानियों के प्रशासन का हवाला भी दिया गया है|
उन्होंने बाकायदा रिसर्च करके अपने इस लंबे ट्विट में लिखा है कि जवाहर लाल नेहरु, सरदार पटेल , अंबेडकर और लाल बहादुर शास्त्री भी दिल्ली को प्रशासनिक अधिकार देने के खिलाफ थे| उन्होंने कहा कि अध्यादेश का विरोध करना इन सब नेताओं की समझ पर सवाल उठाना होगा| अपने ट्विट में अजय माकन ने अध्यादेश का समर्थन करने के पक्ष में प्रशासनिक, राजनीतिक और कानूनी पहलुओं पर चर्चा की है|
उन्होंने लिखा है कि केजरीवाल का समर्थन करने से पहले कांग्रेस को बाबा साहेब अंबेडकर का 21 अक्टूबर 1947 का स्टैंड, जवाहर लाल नेहरू और सरदार पटेल का 1951 का स्टैंड, बाद में फिर नेहरू का 1956 का स्टैंड, लाल बहादुर शास्त्री का 1964 और 1965 का स्टैंड पढ़ लेना चाहिए| इतना ही नहीं बल्कि जब 1991 में विधानसभा दुबारा गठित की गई, तब नरसिंह राव का स्टैंड भी पढ़ लेना चाहिए|
माकन ने लिखा है कि जिन अधिकारों के बिना शीला दीक्षित, मदन लाल खुराना, साहिब सिंह वर्मा और सुषमा स्वराज ने मुख्यमंत्री के तौर पर काम किया, वे अधिकार केजरीवाल को क्यों चाहिए| अजय माकन का इस तरह खुल कर सामने आना इस बात का संकेत है कि कांग्रेस के नेता विपक्षी एकता के नाम पर अध्यादेश का विरोध करने पर सहमत नहीं है|
केजरीवाल को पता है कि कांग्रेस के बिना बात बनेगी ही नहीं, और उन्हें यह भी पता है कि दिल्ली प्रदेश कांग्रेस के नेता कांग्रेस को अध्यादेश का विरोध करने नहीं देंगे| उन्हें पता है कि वह यह बाजी हार चुके हैं। तो सवाल खड़ा होता है कि फिर वह देश भर में दौरा करने क्यों निकले हैं| अगर वह विपक्षी एकता चाहते होते तो बिना कांग्रेस की सहमति लिए दूसरी पार्टियों से समर्थन लेने न निकलते| वैसे भी संसद का सत्र जुलाई के आखिर में शुरू होगा, फिर केजरीवाल की इस भागदौड़ का मतलब क्या है| वह किस के खिलाफ माहौल बना रहे हैं, भाजपा के खिलाफ या कांग्रेस के खिलाफ?
मतलब साफ़ है कि वह अध्यादेश के बहाने तीसरा मोर्चा बनाने निकल चुके हैं| वह तो राजस्थान में भी कांग्रेस को हराने के लिए इसी महीने के आखिर में बड़ी रैली की योजना बना रहे हैं| एक तरफ वह कांग्रेस से समर्थन मांग रहे हैं, तो दूसरी तरफ ममता, अखिलेश और केसीआर के साथ मिलकर तीसरे मोर्चे की इबारत भी लिख रहे हैं|