कौशल किशोर | twitter @mrkkjha
गांधी और सावरकर अलग अलग कारणों से इन दिनों चर्चा में हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ के मुख्यालय में महात्मा गांधी की प्रतिमा का अनावरण किया गया है। भारत की ओर से मिले इस उपहार को न्यूयॉर्क में स्थाई तौर पर नॉर्थ लॉन गार्डन में जगह मिली है। इस मौके पर बहुलतावाद की पैरवी के साथ भेदभाव दूर करने और शांतिपूर्ण सहअस्तित्व को बढ़ावा देने की बात होती है। लंबे समय से जारी रूस और यूक्रेन की लड़ाई के बीच निष्क्रिय रहे संयुक्त राष्ट्र के इस कदम से “मजबूरी का नाम महात्मा गांधी” वाली कहावत खूब चरितार्थ होती है।
कर्नाटक सरकार ने विधान भवन में गांधी और सावरकर समेत सात मनीषियों की तस्वीर इसी बीच लगाई है। सावरकर की तस्वीर का अनावरण किए जाने से एक ओर अन्याय के शिकार क्रांतिकारी से प्रेम रखने वाले उत्साहित हैं। वहीं दूसरी ओर कर्नाटक कांग्रेस के नेताओं ने गांधी बनाम सावरकर की राजनीति को धार देने हेतु विधान सभा के बाहर धरना प्रदर्शन किया। इन दोनों अतुलनीय स्वतंत्रता सेनानियों की अनावश्यक तुलना हाल के वर्षों में तेज हुई है। इस मामले में 2022 पिछले तमाम सालों पर भारी पड़ता है। यह राहुल गांधी की महत्वपूर्ण भूमिका से संभव हो सका है। बीसवीं सदी में अंग्रेजों ने दो बार 25 साल कैद की सजा देकर जिस परंपरा को शुरु किया था, आजाद भारत में उन्हें दो बार जेल भेज कर दोहराया ही गया। इस मामले में राहुल भी नेहरु की नीति पर ही चलते प्रतीत होते हैं।
गांधी की हत्या के दोषी नाथूराम गोडसे और नारायण आप्टे को फांसी देने से पहले ही मणिलाल और रामदास जैसे उनके पुत्रों ने इसका विरोध किया था। विनोबा भावे एवं रामदास ने तो जेल पहुंच कर बापू का पक्ष बताने का असफल प्रयास भी किया। दुनिया के तमाम हिस्सों से गांधीवादियों ने फांसी का विरोध और दोषियों की रिहाई की मांग कर उनके विचार से सरकार को अवगत करा दिया। तत्कालीन गवर्नर जनरल सी राजगोपालाचारी, प्रधानमंत्री नेहरू और गृह मंत्री सरदार पटेल ने महात्मा से पल्ला झाड़ कर कानून का पाठ ही पढ़ाना जरूरी माना। सत्ता की राजनीति आज भी यूक्रेन में अपनी मजबूरी को भांप कर उनको याद करती है। महात्मा को याद करने व उनका नाम लेने से पहले गोडसे को माफ करने की शर्त हमेशा रही। 30 जनवरी 1948 के उपरांत सच्चे गांधीजन इसे स्वीकार कर ही अपनी पहचान उजागर करते हैं। ऐसा नहीं कर पाने वालों के लिए सावरकर तो दूर की कौड़ी साबित होते रहेंगे।
क्रांतिकारी विचारों के प्रवर्तक सावरकर के आर्थिक सहयोग से शुरु हुई कंपनी का पत्र गोडसे और आप्टे छापते थे। महात्मा गांधी के विचारों का खण्डन करने में अग्रणी और हिन्दू राष्ट्र के लेखों का अपना ही इतिहास है। इन्हीं बातों को ध्यान में रखकर उन्हें हत्या का मुख्य साजिशकर्ता मान कर जेल भेजा गया। परंतु आत्मा चरण की अदालत उन्हें निर्दोष पाती है। कार्यक्षेत्र से बाहर जाकर कपूर कमीशन ने भी इस गलती को दोहराया था। संसद ने 1969 में इसे ठंडे बस्ते में डाल कर उनके साथ अन्याय की परंपरा को आगे बढ़ाया। करीब 50 साल बीतने पर 2018 में सुप्रीम कोर्ट में स्थिति स्पष्ट हुई। इसके बाद कपूर कमीशन के हवाले से सावरकर को हत्याकांड का दोषी ठहराने वाले स्वयं को ही आखिरी अदालत साबित करने का प्रयास करते हैं। अमरीका में गांधी के सत्याग्रह की राजनीति को आगे बढ़ाने में मार्टिन लूथर किंग और जेम्स डगलस जैसे कैथोलिक प्रमुख हैं। किंग की हत्या के उपरांत आण्विक हथियारों के खिलाफ सत्याग्रह से डगलस ने गांधीवाद को परिभाषित किया। पर इक्कीसवीं सदी में गांधी बनाम सावरकर की राजनीति का शिकार होकर रह गए। उन्होंने भी जस्टिस जीवन लाल कपूर की तरह सत्यान्वेषण के नाम पर कुछ और ही किया। सावरकर के अंगरक्षक अप्पा कसार और निजी सचिव गजाननराव दामले को यातना देकर तैयार की गवाही अदालत में पेश करने से प्रशासन की पोल खुल जाती। जस्टिस कपूर ने तमाम लोगों को सुना पर जीवित होने के बाद भी इन दोनों गवाहों को बुलाना मुनासिब नहीं माना। डगलस पुरानी शराब को नई बोतल में पेश करते हुए गांधी बनाम सावरकर की ओछी राजनीति को अंतरराष्ट्रीय फलक पर पहुंचाते हैं।
गांधीजी की हत्या को सावरकर पितृहत्या करार देते हैं। यह एक नवजात राष्ट्र के रूप में भारत के अस्तित्व के लिए खतरा उत्पन्न करेगी। ऐसी चेतावनी भी देते हैं। सरकार इसके बाद उन्हें गिरफ्तार कर साल भर से ज्यादा समय तक जेल में रखती है। गांधी और सावरकर की 1906 से जारी मित्रता राजनीतिक षड्यंत्र पर भारी पड़ा। लेकिन कोर्ट द्वारा निर्दोष करार देने के बावजूद भी उन्हें सताने का सिलसिला खत्म नहीं हो सका। पाकिस्तानी नेता लियाकत अली खान को खुश करने के लिए उन्हें 1950 में फिर से जेल भेजा गया। हाई कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एम.सी. छागला की अध्यक्षता वाली पीठ ने 100 दिनों के उपरांत निर्दोष सावरकर को आजाद किया (कीर 431)। इस क्रांतिकारी के साथ आजाद भारत की सरकार ने अन्याय ही किया है। सत्ता की राजनीति करने वालों के बीच गांधी की तरह उनका नाम भी साधन बन कर ही रह गया है।
राहुल गांधी आज गांधी बनाम सावरकर के नाम पर जारी बहस को विस्तार देते हैं। सुप्रीम कोर्ट के चार साल पुराने आदेश से गांधी हत्या में उन्हें लपेटने का काम संभव नहीं है। फिर माफीवीर के नाम पर जुमलेबाजी ही करते हैं। भारत जोड़ो यात्रा के महाराष्ट्र पहुंचने पर सुर्खियां बटोरने के लिए उन्होंने नुस्खे की तरह इसका इस्तेमाल किया था। सही मायनों में माफीनामा गांधीवादी विचार है। इसे उन्होंने नजरंदाज खूब किया है।
राजनीति में भारतीय लोगों की भागीदारी के लिए सावरकर ने क्रांतिकारी पथ चुना। उनकी गिरफ्तारी के 8 साल बाद 1918 के सुधार और 1919 के गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट से स्थिति बदल गई। इसके साथ ही पहले विश्व युद्ध में भारतीय लोगों की मदद के बदले ब्रिटिश हुकूमत राजनीतिक कैदियों की रिहाई का हुक्म जारी कर इस माफीनामे की जरूरत खत्म करती है। हैरत की बात है कि इन सब के बावजूद उनके साथ अन्याय ही होता रहा। यही अन्याय गांधी हत्याकांड में कारावास भोगने वाले लोगों को सजा पूरी होने के बाद भारत की सरकार भी दोहराती है।
आज गांधी बनाम सावरकर के साथ चीन से लगे सीमा पर तनाव का बढ़ना जारी है। वैमनस्य की इस राजनीति से सावरकर और गांधी ही नहीं, बल्कि देश और दुनिया को भी नुकसान पहुंचा है। नमक सत्याग्रह में विरोचित अहिंसा का प्रदर्शन करने वाले तिब्बत का पतन रोकने से चूक गए। चीन पर आक्रामक रुख अख्तियार करने वाले राहुल गांधी दो बातें नजरंदाज कर रहे हैं। सावरकर का समर्थक कह कर उन्होंने जिस दिशा में अंगुली उठाई है, वहां तो गांधी की मूर्ति विराजमान हो गई है। विस्तारवादी चीन के संदर्भ में सावरकर और अंबेडकर आज भी प्रासंगिक हैं। इन तथ्यों को नजरंदाज करने से देशहित पर कुठाराघात होगा। भले ही ध्रुवीकरण के इस प्रयास से कांग्रेस को आगामी लोकसभा चुनाव में लाभ हो।
सत्ता का समीकरण साधने के लिए गांधी बनाम सावरकर का राग आलापने में लगे नेताओं को यह नहीं भूलना चाहिए कि इन दोनों विभूतियों में समानताएं भी रहीं। स्वयं को सत्ता से दूर रख कर भारत के लोगों को राजनीतिक संप्रभुता से संपन्न करने का काम किया था। छुआछूत मानने वाले गांधी अश्पृष्यता निवारण की बात करते थे। इस मामले में सावरकर और अंबेडकर के काम की चर्चा होती है। आजादी के पचहत्तरवें में वर्ष में देश अमृत महोत्सव मना रहा है। ऐसे माहौल में गांधी बनाम सावरकर की राजनीति को तिलांजलि देना ही मुनासिब है। इसके लिए यथार्थ और निहितार्थ पर विचार विमर्श मददगार साबित होगी।