स्पेशल डेस्क/नई दिल्ली: भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के दो सांसदों, निशिकांत दुबे और दिनेश शर्मा, द्वारा सुप्रीम कोर्ट पर दिए गए विवादास्पद बयानों से संबंधित है, जिसके बाद पार्टी ने इन बयानों से किनारा कर लिया। इस विवाद ने राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर काफी हंगामा मचाया है। आइए, इसे विस्तार से एग्जीक्यूटिव एडिटर प्रकाश मेहरा से समझते हैं।
निशिकांत दुबे ने क्या बयान दिया ?
झारखंड के गोड्डा से भाजपा सांसद निशिकांत दुबे ने सुप्रीम कोर्ट पर तीखा हमला बोला। उन्होंने वक्फ कानून और राष्ट्रपति के फैसले से संबंधित एक मामले में सुप्रीम कोर्ट की भूमिका पर सवाल उठाए। दुबे ने कहा कि “सुप्रीम कोर्ट अपनी “सीमाओं को लांघ रहा है” और “देश में धार्मिक युद्ध या गृहयुद्ध जैसी स्थिति” के लिए जिम्मेदार हो सकता है। उन्होंने यह भी टिप्पणी की कि अगर सुप्रीम कोर्ट को ही कानून बनाना है, तो संसद और राज्य विधानसभाओं को बंद कर देना चाहिए।”
#WATCH | Delhi: BJP MP Nishikant Dubey says "Chief Justice of India, Sanjiv Khanna is responsible for all the civil wars happening in this country" https://t.co/EqRdbjJqIE pic.twitter.com/LqEfuLWlSr
— ANI (@ANI) April 19, 2025
उनके बयान का आधार यह था कि सुप्रीम कोर्ट विधायिका के कार्यक्षेत्र में हस्तक्षेप कर रहा है, जो उनके अनुसार, संवैधानिक ढांचे के खिलाफ है।
क्या है दिनेश शर्मा का बयान ?
भाजपा के एक अन्य सांसद, दिनेश शर्मा, ने भी सुप्रीम कोर्ट की कार्यप्रणाली पर टिप्पणी की और इसे विधायिका के काम में दखल देने वाला बताया। हालांकि, उनके बयान की तीव्रता दुबे की तुलना में कम थी, लेकिन यह भी विवाद का हिस्सा बना।
वक्फ कानून और राष्ट्रपति का संदर्भ !
यह विवाद विशेष रूप से वक्फ (संशोधन) विधेयक 2024 से जुड़ा हुआ प्रतीत होता है, जिसे केंद्र सरकार ने संसद में पेश किया था। इस विधेयक पर सुप्रीम कोर्ट में कुछ सुनवाई हुई, और दुबे ने कोर्ट के रुख को विधायिका की स्वायत्तता पर हमला माना। इसके अलावा, दुबे ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा राष्ट्रपति के फैसले पर सवाल उठाने को भी अस्वीकार्य बताया, क्योंकि भारत में राष्ट्रपति संवैधानिक प्रमुख होते हैं।
वक्फ विधेयक और राष्ट्रपति का कनेक्शन !
वक्फ (संशोधन) विधेयक २०२४, यह एक कानून है, जिसे केंद्र सरकार ने संसद में पेश किया। इसका मकसद वक्फ बोर्ड और वक्फ संपत्तियों के प्रबंधन को और पारदर्शी बनाना है। इस विधेयक पर कुछ लोग खुश हैं, तो कुछ (खासकर मुस्लिम संगठन और विपक्ष) इसका विरोध कर रहे हैं। उनका कहना है कि यह अल्पसंख्यक समुदाय के अधिकारों पर हमला है। सुप्रीम कोर्ट में इस विधेयक से जुड़ा कोई मामला चल रहा है, और निशिकांत दुबे को लगता है कि कोर्ट ने इस मामले में गलत तरीके से हस्तक्षेप किया।
राष्ट्रपति के फैसले पर सवाल नहीं !
भारत में राष्ट्रपति संवैधानिक प्रमुख होते हैं, और उनके फैसलों को आमतौर पर अंतिम माना जाता है। दुबे ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट को राष्ट्रपति के फैसले पर सवाल नहीं उठाना चाहिए। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट का यह अधिकार है कि वह किसी भी फैसले की संवैधानिकता की जांच करे, चाहे वह राष्ट्रपति का ही क्यों न हो।
विवाद क्यों हुआ ?
सुप्रीम कोर्ट भारत का सर्वोच्च न्यायिक निकाय है, और इसकी स्वतंत्रता संविधान का मूलभूत हिस्सा है। सांसदों के बयानों को कई लोगों ने न्यायपालिका की गरिमा और स्वायत्तता पर हमला माना। विपक्षी दलों, खासकर कांग्रेस और समाजवादी पार्टी, ने इसे संविधान विरोधी और लोकतंत्र के लिए खतरा बताया। उदाहरण के लिए, कांग्रेस नेता दिव्या मादर्ना ने कहा कि यह बयान “न्यायपालिका और संविधान पर हमला” है।
निशिकांत दुबे के “धार्मिक युद्ध” और “गृहयुद्ध” जैसे शब्दों का इस्तेमाल विशेष रूप से आपत्तिजनक माना गया। इन शब्दों को सामाजिक सौहार्द के लिए खतरनाक और उत्तेजक माना गया।
#WATCH | BJP MP Nishikant Dubey says, "How can you give direction to the appointing authority? The President appoints the Chief Justice of India. The Parliament makes the law of this country. You will dictate that Parliament?… How did you make a new law? In which law is it… https://t.co/CjTk4wBzHA pic.twitter.com/HYNa8sxBVt
— ANI (@ANI) April 19, 2025
क्या है सांसद का आपराधिक रिकॉर्ड ?
विपक्ष ने निशिकांत दुबे के खिलाफ दर्ज कथित आपराधिक मुकदमों का हवाला देकर उनके बयान की विश्वसनीयता पर सवाल उठाए। कांग्रेस नेता ने कहा कि जिनके खिलाफ दर्जनों गंभीर मुकदमे हों, वे सुप्रीम कोर्ट की आलोचना करने की स्थिति में नहीं हैं।
भाजपा ने बयानों से किया किनारा !
विवाद बढ़ने के बाद भाजपा ने दोनों सांसदों के बयानों से दूरी बना ली। पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने स्पष्ट किया कि निशिकांत दुबे और दिनेश शर्मा के बयान उनके “निजी विचार” हैं और इनका पार्टी के आधिकारिक रुख से कोई लेना-देना नहीं है। यह कदम संभवतः इसलिए उठाया गया ताकि पार्टी की छवि को नुकसान न हो और न्यायपालिका के साथ टकराव की स्थिति से बचा जा सके।
भाजपा सांसद निशिकांत दुबे और दिनेश शर्मा का न्यायपालिका एवं देश के चीफ जस्टिस पर दिए गए बयान से भारतीय जनता पार्टी का कोई लेना–देना नहीं है। यह इनका व्यक्तिगत बयान है, लेकिन भाजपा ऐसे बयानों से न तो कोई इत्तेफाक रखती है और न ही कभी भी ऐसे बयानों का समर्थन करती है। भाजपा इन बयान…
— Jagat Prakash Nadda (@JPNadda) April 19, 2025
एग्जीक्यूटिव एडिटर प्रकाश मेहरा का मानना है कि “भाजपा ने इस मामले में त्वरित किनारा करके विवाद को ठंडा करने की कोशिश की। हालांकि, विपक्ष ने इसे भाजपा की दोहरी नीति करार दिया, यह कहते हुए कि पार्टी अपने नेताओं को ऐसी टिप्पणियों के लिए प्रोत्साहित करती है, लेकिन विवाद होने पर दूरी बना लेती है।”
विपक्ष ने कहा लोकतंत्र की आत्मा पर हमला !
समाजवादी पार्टी के नेता नफीस अहमद ने कहा कि यह बयान “लोकतंत्र की आत्मा पर हमला” है और यह दर्शाता है कि सत्ताधारी दल खुद को देश से ऊपर मानता है। कांग्रेस और अन्य विपक्षी नेताओं ने इसे भाजपा की “संविधान विरोधी मानसिकता” का सबूत बताया।
सोशल मीडिया पर बयानों से हंगामा !
एक्स पर कई यूजर्स ने इस बयान की निंदा की, इसे न्यायपालिका के खिलाफ खुला हमला बताया। कुछ ने इसे भाजपा की रणनीति का हिस्सा माना, जिसमें संवैधानिक संस्थाओं को कमजोर करने की कोशिश की जा रही है। हालांकि, कुछ यूजर्स ने सांसदों के बयान का समर्थन भी किया, यह कहते हुए कि सुप्रीम कोर्ट कई बार विधायिका के क्षेत्र में दखल देता है।
न्यायपालिका बनाम विधायिका !
यह विवाद एक बार फिर न्यायपालिका और विधायिका के बीच शक्तियों के बंटवारे के सवाल को सामने 0लाता है। भारत में संविधान तीनों अंगों—कार्यपालिका, विधायिका, और न्यायपालिका—को अलग-अलग जिम्मेदारियां देता है, लेकिन कई बार इनके बीच टकराव की स्थिति बनती है। सुप्रीम कोर्ट का “न्यायिक समीक्षा” का अधिकार उसे विधायिका द्वारा बनाए गए कानूनों की संवैधानिकता की जांच करने की शक्ति देता है। दुबे का बयान इस अधिकार पर सवाल उठाता है, जो संवैधानिक ढांचे के लिए संवेदनशील मसला है।
देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता !
सांसदों को संसद में अपनी बात रखने की विशेष छूट (विशेषाधिकार) होती है, लेकिन सार्वजनिक मंचों पर उनकी टिप्पणियां कानूनी जांच के दायरे में आ सकती हैं। सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ ऐसी टिप्पणियों को “अदालत की अवमानना” के तौर पर देखा जा सकता है, हालांकि अभी तक इस मामले में कोई कानूनी कार्रवाई की खबर नहीं है।
यह विवाद अभी ताजा है (20 अप्रैल 2025 तक), और सुप्रीम कोर्ट या सरकार की ओर से कोई आधिकारिक प्रतिक्रिया नहीं आई है। भाजपा ने बयानों से किनारा करके मामले को शांत करने की कोशिश की है, लेकिन विपक्ष इसे राजनीतिक मुद्दा बनाने में जुटा है। सोशल मीडिया पर यह चर्चा जोरों पर है, और यह देखना बाकी है कि क्या यह मामला संसद या अदालत तक पहुंचता है।
भाजपा सांसदों के बयानों की चर्चा !
यह विवाद न केवल भाजपा सांसदों के बयानों के कारण चर्चा में है, बल्कि यह भारत के संवैधानिक ढांचे और संस्थाओं के बीच संतुलन के सवाल को भी उजागर करता है। निशिकांत दुबे और दिनेश शर्मा के बयानों ने सुप्रीम कोर्ट की भूमिका पर बहस छेड़ दी है, लेकिन भाजपा का किनारा करना दर्शाता है कि पार्टी इस मामले को आगे नहीं बढ़ाना चाहती। फिर भी, विपक्ष और सामाजिक मंचों पर इसकी गूंज लंबे समय तक सुनाई दे सकती है।
अब क्या हो सकता है ?
अगर सुप्रीम कोर्ट इसे गंभीरता से लेता है, तो वह सांसदों के खिलाफ अवमानना का मामला शुरू कर सकता है। लेकिन अभी तक कोर्ट की ओर से कोई बयान नहीं आया। विपक्ष इस मुद्दे को BJP के खिलाफ बड़ा हथियार बनाने की कोशिश करेगा, खासकर आने वाले विधानसभा चुनावों में। BJP इसे शांत करने की कोशिश करेगी ताकि उसकी छवि को नुकसान न हो। “धार्मिक युद्ध” जैसे शब्दों से सामाजिक तनाव बढ़ सकता है, खासकर संवेदनशील मुद्दों जैसे वक्फ विधेयक पर।