पिछले साल ग्लासगो में हुई क्लाइमेट चेंज कॉन्फ़्रेंस यानी सीओपी26 के दौरान वैश्विक नेता इकट्ठा हुए थे और जलवायु परिवर्त रोकने के लिए उठाए जाने वाले क़दमों पर सहमत हुए थे. लेकिन जलवायु विशेषज्ञों ने बीबीसी को बताया है कि साल 2022 में इस दिशा में प्रगति धीमी रही है और दुनियाभर में सरकारों का ध्यान वैश्विक ऊर्जा और वित्तीय संकट की वजह से इस तरफ़ से हटा है.
पिछले सप्ताह संयुक्त राष्ट्र ने चेतावनी दी थी कि दुनिया बर्बाद की तरफ़ बढ़ रही है. लेकिन उम्मीद की कुछ किरणें भी हैं- जिनमें अमेरिका में लाया गया नया क़ानून और ब्राज़ील में हुआ सत्ता परिवर्तन शामिल है. ये उम्मीद की जा रही है कि ब्राज़ील की नई सरकार अमेज़न के जंगलों को हो रहे नुक़सान की भरपाई करेगी. अगले सप्ताह मिस्र में होने वाले सीओपी27 के लिए वैश्विक नेता रवाना हो रहे हैं. हम सात अहम देशों पर नज़र डाल रहे हैं ताकि ये समझा जा सके कि कौन आगे है और कौन अपने पांव पीछे खींच रहा है.
इंफ्लेशन रिडक्शन एक्ट के तहत किए गए प्रावधान अमेरिका में ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को 2030 तक चालीस प्रतिशत तक कम करने का लक्ष्य है.
वर्ल्ड रिसोर्सेज़ इंस्टीट्यूट के अमेरिका निदेशक डेन लैशॉफ़ ने बीबीसी से कहा, “ये जलवायु समाधान की दिशा में अमेरिका के इतिहास का सबसे बड़ा निवेश है. ये प्रगति का एक बड़ा संकेत है.”इस न ए विधेयक का मक़सद कई बड़े सेक्टरों जैसे बिजली, परिवहन और उद्योग में अक्षय ऊर्जा (ग्रीन इनर्जी) को पहली पसंद बनाना है. आम लोगों के लिए सबसे बड़ा फ़ायदा इलेक्ट्रिक वाहन ख़रीदने पर टैक्स में कटौती है. जो लोग इलेक्ट्रिक कार ख़रीदेंगे उन्हें क़रीब 7500 डॉलर की सब्सिडी दी जाएगी.
लेकिन हर ख़बर अच्छी ही नहीं है. अमेरिकी की वरिष्ठ राजनेता नेंसी पलोसी की विवादित ताइवान यात्रा के बाद चीन ने जलवायु के मुद्दे पर अमेरिका के साथ अपने सहयोग को समाप्त कर दिया है. इसका अंतरराष्ट्रीय जलवायु वार्ताओं और समझौतों पर ग़हरा असर हो सकता है.
और ऊर्जा संकट के कारण राष्ट्रपति जो बाइडेन को 1.5 करोड़ बैरल रिज़र्व ऑयल बाज़ार में उतारना पड़ा है. यही नहीं उन्होंने तेल और गैस की खोज के लिए नई ड्रिलिंग लीज़ (खुदाई करने के ठेके) भी जारी कर दिए हैं.
जलवायु परिवर्तन के सबसे गंभीर परीणाम झेल रहे विकासशील देशों की मदद के लिए जो फंड जारी करने का वादा हुआ है उसमें भी अमेरिका ने अपना उचित हिस्सा नहीं दिया है. इससे भी सीओपी27 के दौरान रिश्ते ख़राब हो सकते हैं.
ब्रिटेन: नेतृत्व और ‘घबराहट’
ब्रिटेन ने सीओपी26 की मेज़बानी की थी और कई बड़े वैश्विक वादे हासिल करने में कामयाब हुआ था. ब्रिटेन ने जलवायु परिवर्तन के मामले में अपने नेतृत्व को साबित किया था. लेकिन अब सीओपी27 में ब्रिटेन कमज़ोर स्थिति में जा रहा है. इंपीरियल कॉलेज लंदन के ग्रैंथम इंस्टीट्यूट की डॉयरेक्टर ऑफ़ पॉलिसी एलीसा गिल्बर्ट कहती हैं, “ब्रिटेन सीओपी27 में ‘कमज़ोर’ और ‘निराशाजनक’ नेतृत्व के साथ जा रहा है.”
प्रधानमंत्री ऋषि सुनक ने पहले अन्य प्राथमिकताओं की वजह से सीओपी27 के लिए मिस्र जाने में असमर्थता जताई थी, लेकिन बुधवार को उन्होंने यू-टर्न ले लिया और अब वो भी सम्मेलन में जा रहे हैं. विशेषज्ञों का कहना है कि इससे भी ब्रिटेन की स्थिति कमज़ोर हुई है. गिल्बर्ट कहती हैं, “सीओपी के बारे में एक सबसे अहम बात है शीर्ष का राजनीतिक नेतृत्व. ऐसे साल में जब ब्रिटेन सीओपी का अध्यक्ष हो, प्रधानमंत्री का ‘कांपते हुए दिखना’ और भी ख़राब है.”
संयुक्त राष्ट्र में जलवायु परिवर्तन को लेकर जो योजनाए पेश की गई हैं उसके विश्लेषण के आधार पर क्लाइमेट एक्शन ट्रैकर का मानना है कि जलवायु परिवर्तन से निबटने में अपनी भूमिका को और बढ़ाने की कोई महत्वकांक्षा भी ब्रिटेन ने नहीं दिखाई है. वैश्विक ऊर्जा संकट की वजह से भी ब्रिटेन नॉर्थ सी (उत्तरी सागर) से नई गैस और तेल निकालने और कोयला आधारित बिजली संयंत्रों को बंद करने के अपने वादे से भी पीछे हट रहा है.
लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स में अंतरराष्ट्रीय संबंधों के प्रोफ़ेसर रॉबर्टन फॉल्कनर के मुताबिक, इन बदलावों से भले ही ब्रिटेन के ऊर्जा संतुलन में आमूलचूल बदलाव न हो लेकिन ‘ग़लत संकेत तो जाता ही है.’
यूरोपीय संघः रूस ने निचोड़ा
जलवायु परिवर्तन से निबटने के मामले में यूरोपीय संघ ऐतिहासिक रूप से आगे रहा है, लेकिन यूक्रेन पर रूस के आक्रमण और उससे ऊर्जा आपूर्ति के प्रभावित होने से इस दिशा में ईयू के प्रयास भी कम हुए है. रॉबर्ट फॉल्कनर कहते हैं, “नेताओं ने कोयला आधारित बिजली संयंत्रों की उम्र सीमा को बढ़ा दिया है और हमारे अनुमान के मुताबिक इस साल के पहले छह महीनों में ही कार्बन उत्सर्जन 2 प्रतिशत तक बढ़ गया है.”
क्लाइमेट एक्शन ट्रेकर के मुताबिक अब यूरोपीय संघ के ‘जलवायु लक्ष्य’, नीतियां और वित्तीय सहयोग अपर्याप्त है. यूरोपीय संघ ने जलवायु परिवर्तन को लेकर अपनी योजना के बारे में संयुक्त राष्ट्र को जानकारी भी नहीं दी है. लेकिन प्रोफ़ेसर फॉल्कनर मानते हैं कि जीवाश्व ईंधन की तरफ़ लौटना एक अस्थायी झटका है और यूरोपीय संघ इस मौके पर अक्षय ऊर्जा में निवेश करके स्वयं को ऊर्जा के मामले में आत्मनिर्भर बनाने के प्रयास भी कर सकता है.
एक नई योजना, रीपॉवर ईयू प्लान, का लक्ष्य 2030 में अक्षय ऊर्जा में यूरोपीय संघ की हिस्सेदारी को 40 प्रतिशत से बढ़ाकर 50 प्रतिशत तक करना है.
भारतः कोयले से प्रभावित हुईं बड़ी महत्वाकांक्षाएं
भारत उन कुछ चुनिंदा देशों में शामिल है जिन्होंने 2022 में जलवायु को लेकर अपने नए लक्ष्यों को प्रकाशित किया है. लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स की कामया चौधरी कहती हैं, “प्रगति के बारे में बात किए बिना भारत के बारे में बात करना असंभव है.” भारत ने साल 2030 तक उत्सर्जन को 45 प्रतिशत तक कम करने का वादा किया है- इसका मतलब ये है कि भारत हर डॉलर पर भारत उत्सर्जन कम करना चाहता है. भारत का लक्ष्य भी स्थापित ऊर्जा क्षमता में से 50 प्रतिशत को अक्षय ऊर्जा में बदलना है.
लेकिन भारत ने 100 कोयला बिजली संयंत्रों को फिर से खोलने की योजना बनाई है (कोयला सबसे ज़्यादा प्रदूषण फैलाने वाला ईंधन है), ये उसके लक्ष्य को हासिल करने में बाधक हो सकता है. सेंटर फॉर पब्लिक पॉलिसी से जुड़े और संयुक्त राष्ट्र के जलवायु मामलों के सलाहकार प्रोफ़ेर नवरोज़ दुवाश बीबीसी से कहते हैं कि कोयले पर लगने वाले कर से महत्वपूर्ण इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए फंड मिलता है और कमाई में होने वाले उस नुक़सान की भरपाई की ज़रूरत है.
हालांकि, चौधरी के मुताबिक, जैसा की दूसरे देशों में हो रहा है, ये ऊर्जा ज़रूरतों को पूरा करने के लिए उठाया गया अल्पकालिक क़दम है. क्लाइमेट एक्शन ट्रैकर का कहना है कि भारत ने जो वादे किए हैं वो बहुत महत्वाकांक्षी नहीं हैं और सरकार की बहुत सीमित कार्रवाई से भी इन्हें हासिल किया जा सकता है.
ब्राज़ीलः नए राष्ट्रपति, नई उम्मीदें?
ब्राज़ील के पास जलवायु परिवर्तन से लड़ने की एक कुंजी है- इसके विशाल अमेज़न वर्षा वन, जिन्हें धरती के फेफड़े भी कहा जाता है, ये बड़ी तादाद में कॉर्बन को सोख लेते हैं. पिछले सप्ताह हुए नाटकीय चुनाव में, राष्ट्रपति जाइर बोलसोनारो को वामपंथी नेता लूला डा सिल्वा ने सत्ता से बाहर कर दिया है. इस राजनीतिक बदलाव ने एक रात में ही अमेज़न के जंगलों की क़िस्मत भी बदल दी है.
रविवार को लूला ने कहा था, “जलवायु संकट के ख़िलाफ़ लड़ाई में ब्राज़ील अपने नेतृत्व की भूमिका को फिर से लेने के लिए तैयार है.” सिर्फ़ 2021 में ही जंगलों का कटान 48 फ़ीसदी बढ़ गया था. इंस्टीट्यूटो अरापयाऊ के कार्यकारी निदेशक रेनाटा पियाज़ॉन के मुताबिक बोलसोनारे ने अमेज़न के जंगलों में खनन को बढ़ावा दिया और यही इसका कारण है.
ग्लासगो सम्मेलन के बाद ब्राज़ील के कार्बन उत्सर्जन कम करने के ‘वादों’ की कम महत्वकांक्षी होने के लिए आलोचना हुई थी. ये 2016 में किए गए वादों से भी कम थे. ब्राज़ील किए गए अपने वादों को पूरा भी नहीं कर सका है.
बढ़ती आबादी धरती के लिए बोझ है या वरदान
ऐतिहासिक रूप से ब्राज़ील हाइड्रो पॉवर से स्वच्छ ऊर्जा उत्पादित करता रहा है लेकिन 2021 के सूखे ने उसके बांधों को सुखा दिया था. इसके जवाब में ब्राज़ील ने तेल और गैस में निवेश किया है. अनुमानों के मुताबिक साल 2030 तक ब्राज़ील की तेल खपत 70 फ़ीसदी तक बढ़ सकती है.
हालांकि, इंटरनेशनल इनर्जी एजेंसी का अनुमान है कि जो नुक़सान हाइड्रोपॉवर का हुआ है उसकी भरपाई सौर ऊर्जा से की जा सकती है.
ऑस्ट्रेलियाः खोई ज़मीन पाने की कोशिश
राजनीति ने ऑस्ट्रेलिया की स्थिति को भी बदला है. मई में निर्वाचित नए प्रधानमंत्री एंथॉनी अल्बानीज़ ने जलवायु योजनाओं को गति दी है और पीछे हटने के दशक को ख़त्म किया है. ऑसट्रेलिया ने संयुक्त राष्ट्र को अपने नए लक्ष्य भी सौंप दिए हैं और 2030 तक कॉर्बन उत्सर्जन को 43 प्रतिशत कम करने का वादा किया है. ये पहले पेश किए गए 26 प्रतिशत के लक्ष्य से लंबी छलांग है.
लेकिन क्लाइमेट एनेलिटिक्स के सीईओ बिल हारे कहते हैं कि ये बड़ी प्रगति की तरह दिख रहा है क्योंकि ऑस्ट्रेलिया पहले से ही बहुत पीछे है. वो कहते हैं, “अब तक नीतियों में कई बड़ा बदलाव नहीं हुआ है, ख़ासकर जीवाश्म ईंधन के मामले में.” ऑस्ट्रेलिया के प्रांत ज़रूर अक्षय ऊर्जा की दिशा में क़दम बढ़ा रहे हैं- लेकिन अभी भी ऑस्ट्रेलिया दुनिया में कोयला उत्पादित करने वाले शीर्ष पांच देशों में शामिल है.
हालांकि, ऑस्ट्रेलिया ने सीओपी26 में जंगलों का कटान रोकने का वादा किया था, हालांकि 2021 में ऑस्ट्रेलिया एकमात्र ऐसा विकसित देश था जो जंगलों के कटान का हॉटस्पॉट बना हुआ था. अब तक ऑस्ट्रेलिया के लगभग आधे जंगल काटे जा चुके हैं.
चीनः भीषण प्रदूषक जो अक्षय ऊर्जा में निवेश कर रहा है
जलवायु परिवर्तन पर काम करने के मामले में चीन की भूमकिा जटिल रही है. विकसित दुनिया के देशों से अलग, चीन ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के लिए ऐतिहासिक रूप से ज़िम्मेदार नहीं है. वैज्ञानिक इन्हें ही अब तक जलवायु परिवर्तन के लिए ज़िम्मेदार मानते हैं.
ग्रैंथम इंस्टीट्यूट में इनर्जी एंड मिटिगेशन के सीनियर पॉलिसी फैलो नील हर्स्ट के मुताबि, लेकिन अपनी बेहद तेज़ आर्थिक प्रगति की वजह से चीन अब एक भीषण प्रदूषक है. दुनियाभर में कोयले की आधी खपत सिर्फ़ चीन में होती है और ऊर्जा की कमी की वजह से चीन इसमें कटौती करने के लिए तैयार नहीं है. हालांकि, चीन अक्षय ऊर्जा के मामले में सबसे बड़ा निवेशक भी है. चीन में पंजीकृत होने वाली एक चौथाई नई कारें इलेक्ट्रिक हैं.
हर्स्ट कहते हैं, “वो बड़े प्रयार कर रहे हैं और ऐसे लक्ष्य रख रहे हैं जिनके लिए काम करने की ज़रूरत है, इनमें 2030 तक कार्बन उत्सर्जन के शीर्ष पर ठहरना भी है.”चीन पौधारोपण के ज़रिए भी कार्बन उत्सर्जन से निबटने की बड़ी महत्वाकांक्षा रखता है. मई में राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने 2030 तक सात अरब पेड़ लगाने का लक्ष्य निर्धारित किया था.