नई दिल्ली: पंजाब में भगवंत मान सरकार और राज्यपाल बनवारी लाल पुरोहित आमने-सामने आ गए हैं. हाल ही में पंजाब सरकार ने इस सिलसिले में सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका फ़ाइल की, जिसमें कहा गया कि राज्यपाल विधानसभा से पास बिलों को मंजूरी नहीं देकर बेवजह सरकार के विकास कार्यों को रोक रहे हैं.
पंजाब विधानसभा में पास बिलों को मंजूरी देने में देरी करने के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को सुनवाई की. सॉलिसीटर जनरल ने कोर्ट को बताया कि राज्यपाल ने सभी बिलों पर फैसला ले लिया है. जल्द ही सरकार को इसकी जानकारी दे दी जाएगी. राज्यपाल की तरफ से देरी के खिलाफ पंजाब सरकार ने ये याचिका सुप्रीम कोर्ट में डाली है.
अब इस मामले में 10 नवंबर यानी आगामी शुक्रवार को सुनवाई होगी. कुछ पंजाब की तरह के विवाद केरल एवं तमिलनाडु में भी सामने आते रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट ने उन मामलों को भी इसी के साथ सुनने का फैसला किया है. मतलब, 10 नवंबर को पंजाब, तमिलनाडु और केरल के राज्यपाल को लेकर जितने भी मामले सर्वोच्च अदालत के सामने आए हैं, सबकी सुनवाई होगी.
राज्यपाल-राज्य सरकार में क्यों होते हैं विवाद?
भारत में राज्यपाल की नियुक्ति केंद्र सरकार की सिफारिश पर राष्ट्रपति करते हैं. किसी भी स्टेट में राज्यपाल राष्ट्रपति और केंद्र सरकार का प्रतिनिधि होता है. राज्य में उसकी भूमिका एकदम स्पष्ट है. राज्य सरकार की सलाह से अपने दायित्वों का निर्वहन करना राज्यपाल का मुख्य काम है. राज्य में कुछ भी असामान्य होता है और राज्यपाल किसी बिल से सहमत नहीं हैं तो उसे नामंजूर कर सकते हैं लेकिन सरकार उसे दोबारा भेज देगी तो नियमानुसार उसे मंजूरी देना होगा.
राज्यपाल के पास यह भी अधिकार है कि वे असहमत होने पर बिल राष्ट्रपति के पास भेज सकते हैं. अधिकार यह भी है कि राज्यपाल बिल पर कोई फैसला ही न लें. इस मुद्दे पर कानून भी मौन है और इसीलिए राज्य सरकारें राज्यपाल के पास बिल लटकने की स्थिति में सुप्रीम कोर्ट पहुंचती हैं.
पंजाब में कैसे पैदा हुआ विवाद?
असल में पंजाब, तमिलनाडु, केरल जैसे राज्यों में राज्यपाल और राज्य सरकारें कई बार इसलिए आमने-सामने आ जाती हैं क्योंकि वहां दूसरे दलों की सरकारें हैं. यह बात किसी से छिपी नहीं है कि केंद्र सरकार अपने ही बुजुर्ग कार्यकर्ताओं को राज्यपाल के पद पर तैनाती देती रही है. केंद्र में जिसकी सरकार, राज्यों में उसी दल के राज्यपालों की संख्या ज्यादा देखी जाती है. राज्यपाल का पद यूं तो संवैधानिक कहा जाता है लेकिन हाल के वर्षों में यह विवादों में आता रहा है.
कुछ समय पहले ही महाराष्ट्र के राज्यपाल रहे भगत सिंह कोशयारी को लेकर भी सुप्रीम कोर्ट ने तीखी टिप्पणी की थी. पंजाब मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि राज्यपाल को यह नहीं भूलना है कि वे जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि नहीं हैं.
कौन कितना पावरफुल? एक्सपर्ट से समझें
सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता अश्विनी कुमार दुबे कहते हैं कि किसी भी राज्यपाल के पास सीमित लेकिन स्पष्ट शक्तियां हैं. उन्हें राज्य सरकार की ओर से मंजूर बिल पर या तो दस्तखत करना होगा या फिर उसे लौटाना होगा. राज्यपाल किसी भी तरह की दुविधा की स्थिति में बिल को राष्ट्रपति को भेज सकते हैं. बस संविधान यह मार्गदर्शन नहीं करता कि राज्यपाल किसी भी बिल को कब तक रोक सकते हैं? मायने समय सीमा नहीं तय है.
ऐसे में बिल रोकने की स्थिति में विवाद की संभावना बढ़ जाती है. यह तब और बनती है जब केंद्र और राज्य में अलग-अलग दलों की सरकार हो. पंजाब के केस में भी यही है.
सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता विनीत जिंदल कहते हैं कि राज्यपाल का पद संवैधानिक है. जब स्टेट में इनकी नियुक्ति की बात तय हुई तो यह भी तय हुआ था कि इस पद पर राजनीतिक दलों के लोग नहीं नियुक्त किए जाएंगे. पर, यह बात अब दूर की कौड़ी है. अब तो ज्यादातर राज्यों में पार्टी के पुराने-बुजुर्ग कार्यकर्ता ही राज्यपाल के रूप में तैनात हैं. शपथ लेने से पहले भले ही वे पार्टी के पदों से इस्तीफा दे देते हैं लेकिन जड़ें तो वहीं हैं. ऐसे में जब समान विचारधारा की सरकार होगी तो विवाद भी कम होगा और विपरीत विचार धारा की सरकार होने पर विवाद बढ़ने की आशंका बनी रहेगी. यही पंजाब की जड़ में है.