नई दिल्ली : झारखंड में 2024 में क्या कांग्रेस (Congress) साल 2004 दोहरा पाएगी? इस सवाल का जवाब तलाशने के लिए झारखंड के इतिहास पर को गौर करना होगा. दरअसल, साल 2000 में 28 वें राज्य के रूप में झारखंड का उदय हुआ था. उस वक्त केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए की सरकार थी. ऐसे में स्वाभाविक तौर पर झारखंड के अलग राज्य के गठन का श्रेय उनकी ही सरकार को जाता है. बता दें कि, झारखंड बनने के बाद साल 2004 में जब पहली बार लोकसभा के चुनाव हुए तो उम्मीद की जा रही थी कि इस नवगठित राज्य में अटल-आडवाणी की पार्टी यानी बीजेपी को वोटरों का जमकर समर्थन मिलेगा, लेकिन यहां ठीक इसके उलटा हुआ.
झारखंड की 14 लोकसभा सीटों में से बीजेपी के हिस्से मात्र एक सीट आई. कांग्रेस-झामुमो-राजद और सीपीआई ने एक साथ मिलकर चुनाव लड़ा था और उन्होंने राज्य की 13 सीटों पर जीत दर्ज की. दरअसल, अकेले कांग्रेस की झोली में छह सीटें आईं. यह इस राज्य में संसदीय चुनाव में कांग्रेस का अब तक का सबसे सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन रहा है. ऐसे में चुनावी उपलब्धि की इस लकीर को 2024 में लांघ पाना या फिर से छू पाना पार्टी के लिए आसान नहीं है. वह भी तब, जब आज की तारीख में कांग्रेस राज्य की सत्ता में शामिल है. झारखंड की मौजूदा सरकार में झारखंड मुक्ति मोर्चा के बाद वह सबसे बड़ी साझीदार-हिस्सेदार है. पार्टी के चार विधायक हेमंत सोरेन की कैबिनेट में मंत्री भी हैं.
कांग्रेस पार्टी के कुल 17 विधायक
बता दें कि, 82 सदस्यीय झारखंड विधानसभा में पार्टी के कुल 17 विधायक हैं. इसके पहले इस विधानसभा में कांग्रेस के पास कभी इतना संख्या बल नहीं रहा. यानी सत्ता-सियासत में हैसियत के नजरिए से यह उसके लिए मुफीद स्थिति है. माना जा रहा है कि 2024 के चुनाव में साधनों-संसाधनों के लिहाज से पार्टी पिछले चुनावों की तुलना में बेहतर पोजीशन में होगी, लेकिन सच यह भी है कि राज्य में पावर शेयरर होकर भी कांग्रेस की पोजीशन एक सत्तारूढ़ पार्टी जैसी नहीं दिखती है. राज्य की गठबंधन सरकार ने पिछले साढ़े तीन साल में जितने भी बड़े फैसले लिए या बड़े काम किए, उसका श्रेय सीएम हेमंत सोरेन के हिस्से में ही आया है. इस सरकार की ओर से राजनीतिक तौर पर मुफीद वही फैसले लिए गए या लिए जा रहे हैं जो हेमंत सोरेन और उनकी पार्टी चाहती थी.
हेमंत सोरेन का निजी स्टैंड रहा प्रभावी
अगर बात करें 1932 के खतियान पर आधारित डोमिसाइल पॉलिसी स्टैंड को या फिर एससी-एसटी-ओबीसी के आरक्षण बढ़ाने का फैसला हो, राज्य में प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए नियमावली हो या फिर कर्मचारियों की ओल्ड पेंशन बहाली का मसला हो. इन तमाम फैसलों में हेमंत सोरेन और उनकी पार्टी का निजी स्टैंड प्रभावी रहा. हालांकि, अदालत ने हेमंत सोरेन सरकार के इन फैसलों में कुछ को खारिज कर दिया, लेकिन वह इनकी बदौलत अपने कोर वोटर्स को राजनीतिक तौर पर मजबूत संदेश देने में सफल रहे हैं. कांग्रेस इस स्थिति में नहीं है कि वह 2024 के लोकसभा और विधानसभा चुनाव में इस सरकार के कामकाज या फैसलों को अपनी उपलब्धियों के तौर पर गिना-बता सके. वजह यह है कि डोमिसाइल, परीक्षा नियमावली, भाषा आदि पर हेमंत सरकार के बड़े फैसले कांग्रेस के एजेंडे के अनुकूल नहीं थे.
क्या कहते हैं कांग्रेस विधायक
कांग्रेस के विधायकों ने ऐसे कुछ फैसलों पर एतराज भी जताया था, लेकिन सीएम हेमंत सोरेन के आगे उनकी एक न चली. कांग्रेस के एक बड़े नेता निजी बातचीत में कहते हैं कि सोरेन सरकार में हमारी पार्टी की हैसियत रेलगाड़ी के इंजन में लगी बोगी से ज्यादा नहीं है. राज्य सरकार के चार कांग्रेसी मंत्रियों का अपने विभागों में प्रदर्शन चाहे जैसा रहा हो, लेकिन उनके कामकाज को लेकर पार्टी के नेता-कार्यकर्ता उत्साहित नहीं दिखते हैं. इन मंत्रियों का पार्टी में संगठनात्मक स्तर पर न तो दखल दिखता है, न ही कोई खास सक्रियता नजर आती है.