प्रकाश मेहरा
नई दिल्ली। कुछ खतरे कभी नहीं टलते। चाहे जितने भी नए साल आएं और चले जाएं। जैसे, ग्लोबल वार्मिंग का संकट। हर बार साल जब बीतता है, तो हमें पता चलता है कि यह साल इतिहास का सबसे गरम साल था। इसके साथ ही यह चेतावनी भी नत्थी होती है कि अगला साल इससे भी गरम हो सकता है। इसी तरह, कुछ उम्मीदें कभी सिरे नहीं चढ़तीं, जैसे विश्व शांति की उम्मीद। अभी जब हमने साल 2024 में प्रवेश किया है, तो दुनिया के एक सिरे पर रूस और यूक्रेन महीनों से खून बहा रहे हैं, तो दूसरी तरफ, गाजा के खिलाफ जंगी अभियान जारी है। हालांकि, बहुत से इतिहासकार कहते हैं कि अगर हम पिछली सदी या उसकी पूर्ववर्ती सदी से तुलना करें, तो 21वीं सदी की दुनिया अपेक्षाकृत शांत है। अब उतने युद्ध नहीं होते, और जो होते हैं, वे उतने भीषण नहीं हैं। वावजूद इसके कि इस सदी में संहारक- क्षमता का विकास भी हुआ है और विस्तार भी।
दुनिया राजनीतिक नजरिए से
पर्यावरण और अमन से अलग हम अगर दुनिया को सिर्फ राजनीतिक नजरिये से देखें, तो साल 2024 एक महत्वपूर्ण वर्ष होने वाला है। इसी 7 जनवरी को पड़ोसी बांग्लादेश में आम चुनाव है। उसके बाद तकरीबन हर महीने दुनिया भर में ढेर सारे चुनाव होंगे। इंटेग्रिटी इंस्टीट्यूट के आंकड़ों को अग्र सही मानें, तो इस साल पूरी दुनिया के 78 देशों में तरह-तरह के चुनाव होंगे। दुनिया की आधी से ज्यादा वयस्क आबादी इस साल अपनी सरकार चुनने घर से निकलेगी। इनमें भारत और अमेरिका जैसे दुनिया के दो बड़े लोकतंत्र के साथ ही, रूस और यूक्रेन जैसे देश भी हैं। बांग्लादेश के अलावा पाकिस्तान और श्रीलंका के आम चुनाव भी इसी साल होने हैं। अगर तालिबान काबिज न हुए होते, तो शायद अफगानिस्तान में भी इसी साल चुनाव होते।
2024 में दुनिया में चुनाव
कहा जा रहा है कि इतिहास में यह पहला मौका है, जब एक ही साल में दुनिया के इतने सारे देशों में सरकारों की किस्मत का फैसला होने जा रहा है। अगर ऐसा है भी, तो यह महज गणित का एक संयोग है, क्योंकि इसके पीछे न कोई राजनीतिक ट्रेंड है और न कोई ऐसी प्रक्रिया, जो एक साथ इतने देशों को जनादेश की ओर धकेल रही हो, मगर इतिहास में यह पहला मौका जरूर है, जब दुनिया के अनेक देशों में लोकतंत्र की मजबूती पर संदेह व्यक्त किए जाने लगे हैं।
कुछ साल पहले हार्वर्ड विश्वविद्यालय के दो प्रोफेसरों स्टीवन लेविस्की और डेनियल जिबल्ट ने एक किताब लिखी थी- हाउ डेमोक्रेसीज डाइज, यानी लोकतंत्र कैसे मर जाते हैं। जिस समय यह किताब बाजार में आई, उस समय अमेरिका में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की सरकार थी और उन तमाम संस्थाओं पर लगातर हमले हो रहे थे, जिन्हें लोकतंत्र की प्राण-वायु माना जाता है। यह किताब मूल रूप में यही कहती है कि इस सदी में लोकतंत्र को जितना खतरा अपने भीतर से है, उतना बाहर से नहीं है। लोकतांत्रिक रूप से चुने गए नेता भी तानाशाह हो सकते हैं और लोगों के उन अधिकारों को खत्म कर सकते हैं, जिनके लिए लोकतंत्र जाना जाता है।
सरकार चुनने की रवायत
जहां तक सरकार चुनने की रवायत का सवाल है, तो उस पर भी एक नया खतरा मंडरा रहा है। इतिहास में पहली बार, इस साल आटिफिशियल इंटेलीजेंस, यानी एआई दुनिया की राजनीति में एक बड़ा हस्तक्षेप करने जा रही है। पिछले कुछ चुनावों की सूरत हमने सोशल मीडिया, फेक न्यूज और डाटा एनालिटिक्स के जरिये बदलते देखी है, लेकिन एआई का हस्तक्षेप उससे कहीं बड़े बदलाव हमारे सामने खड़े कर सकता है। इससे चुनाव के प्रबंधन में बहुत सारी कुशलता लाई जा सकती है, पर फिलहाल चर्चा इस बात की ज्यादा है कि इसका इस्तेमाल हर तरह के झूठ को सच साबित करने और मतदाताओं को भरमाने में होगा। बहुत-सी रिपोटें बताती हैं कि यह काम शुरू भी हो चुका है। एआई को लेकर एक और बात कही जा रही है। अंततः यह लोकतंत्र को मजबूत बनाएगी, अगर इसके हमले से लोकतंत्र बच गया तो।
इसलिए इस साल जब दुनिया की आधी से ज्यादा वयस्क आवादी अपने घर से वोट देने निकलेगी, तो वह सिर्फ अपनी सरकार ही नहीं चुनेगी, बल्कि लोकतंत्र के भविष्य का फैसला भी सुनाएगी।
इतिहास में पहला मौका है, जब एक ही साल में दुनिया के करीब 78 देशों में चुनाव होंगे, सरकारों की किस्मत का फैसला होगा- प्रकाश मेहरा