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राजनीति में विचारधारा का क्या कोई महत्त्व नहीं

पहल टाइम्स डेस्क by पहल टाइम्स डेस्क
April 24, 2023
in राष्ट्रीय, विशेष
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नई दिल्ली: कर्नाटक के भाजपाई मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई, वरिष्ठ कांग्रेस नेता और पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धरमैया और कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी में क्या समानता है? संभवतः लोग कहेंगे कि ये अपने-अपने दलों के शीर्ष नेता हैं किन्तु बहुत कम लोगों को ज्ञात होगा कि ये सभी नेता किसी समय जनता दल के बड़े नेता हुआ करते थे। कुमारस्वामी तो अभी भी हैं।

सिद्धरमैया 1999 से 2005 तक जनता दल (सेक्युलर) और बसवराज बोम्मई 1998 से 2008 तक जनता दल (यूनाइटेड) के प्रमुख नेता रहे हैं। बोम्मई के पिता एसआर बोम्मई भी जनता दल कोटे से कर्नाटक के मुख्यमंत्री रहे हैं और पिता-पुत्र की यह जोड़ी पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा और एचडी कुमारस्वामी के अलावा दूसरी है जिसने बतौर मुख्यमंत्री कर्नाटक राज्य की कमान संभाली है। एचडी कुमारस्वामी तो प्रारंभ से ही जनता दल (सेक्युलर) की परिवारवाद की राजनीति को आगे बढ़ा रहे हैं।

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कुमारस्वामी को छोड़कर दोनों वरिष्ठ नेताओं ने अपनी राजनीति की शुरुआत एक पार्टी से की और मुख्यमंत्री की कुर्सी तक किसी अन्य पार्टी में आकर पहुंचे। मतलब साफ है राजनीति में वैचारिक प्रतिबद्धता का “सत्ता के मोह” के आगे कोई लेना-देना नहीं है। हाल ही में पूर्व मुख्यमंत्री और जनसंघ के जमाने से वैचारिक राजनीति करने वाले जगदीश शिवप्पा शेट्टार ने भाजपा से टिकट न मिलने पर पार्टी से इस्तीफा देते हुए कांग्रेस की सदस्यता ले ली। कांग्रेस ने भी उन्हें तत्काल हुबली-धारवाड़ मध्य सीट से अधिकृत प्रत्याशी घोषित कर दिया। इसी प्रकार पूर्व उपमुख्यमंत्री और वरिष्ठ भाजपा नेता लक्ष्मण संगप्पा सावदी ने भी भाजपा से त्यागपत्र देते हुए कांग्रेस की सदस्यता ले ली और अब वे भी “हाथ के पंजे” को मजबूत करने के लिए मैदान में हैं।

अपने आदर्शों को लज्जित करते वर्तमान राजनेता

1963 में हुए एक उपचुनाव में पूरे देश की नजरें उत्तर प्रदेश की जौनपुर लोकसभा पर टिकी थीं क्योंकि वहां से जनसंघ के बड़े नेता और वर्तमान भाजपा के आदर्श पुरुष दीनदयाल उपाध्याय चुनाव लड़ रहे थे। जनसंघ के सांसद ब्रह्मजीत सिंह के निधन के कारण हुए उपचुनाव में दीनदयाल उपाध्याय का पलड़ा भारी लग रहा था किंतु कांग्रेस प्रत्याशी और इंदिरा गांधी के करीबी राजदेव सिंह ने जातीय ध्रुवीकरण के चलते एकाएक बढ़त बना ली। राजपूत वोटरों का कांग्रेस के पक्ष में ध्रुवीकरण हुआ तो जनसंघ के नेताओं ने दीनदयाल उपाध्याय को सलाह दी कि हमें भी ब्राह्मण मतदाताओं को अपनी ओर करना चाहिए किन्तु वैचारिक प्रतिबद्धता के कारण उन्होंने ऐसा करने से मना कर दिया और वे अपने जीवन का एकमात्र लोकसभा का चुनाव हार गए। उन्हें हार बर्दाश्त थी किन्तु राजनीति में जातीय ध्रुवीकरण को वे समाज के लिए खतरा मानते थे।

इसी प्रकार देश में ग़ैर कांग्रेसवाद की अलख जगाने वाले समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया भी राजनीति में शुचिता के पक्षधर थे। उन्होंने कई बार अपने ही दल की सरकारों का त्यागपत्र मांग लिया क्योंकि वे जन-हितैषी कार्यों से विमुख हो रही थीं। उन्हीं के अनुयायियों में से एक एचडी देवेगौड़ा बाद में उसी कांग्रेस के बाहरी समर्थन से देश के 11वें प्रधानमंत्री बने जिसका विरोध लोहिया और जयप्रकाश नारायण करते थे। यहां तक कि देवेगौड़ा के बेटे कुमारस्वामी ने भी कांग्रेस के सहयोग से ही कर्नाटक के मुख्यमंत्री पद को सुशोभित किया। यहां यह भी ज्ञात हो कि कांग्रेस ने ही देवेगौड़ा को आपातकाल में गिरफ्तार कर एक साल के लिए बैंगलौर सेंट्रल जेल में कैद कर दिया था। यानी यहां भी पद के आगे सभी आदर्श बौने साबित हुए।

दल-बदल मात्र सत्ता पाने का साधन

देश में 1952 में पहली बार आम चुनाव हुए। उस दौर में भी कई पुराने कांग्रेसियों और हिंदू महासभा के नेताओं ने वैचारिक प्रतिबद्धता को सर्वोपरि रखते हुए जनसंघ की सदस्यता ली। उनका ऐसा करना समझ में आता है क्योंकि तत्कालीन राजनीति में कांग्रेस एक वटवृक्ष थी तथा शेष दल उसकी छाया में पल्लवित होने को बाध्य थे। किंतु वर्तमान में भारत के राष्ट्रीय दल जो साम्यवाद, समाजवाद और राष्ट्रवाद से प्रेरणा पाकर चल रहे हैं उनके नेताओं में भी वैचारिक प्रतिबद्धता का नितांत अभाव है।

भारत में दल-बदल क़ानून है किंतु इसका दायरा अभी इतना सीमित है कि यह राजनीतिक भ्रष्टाचार पर नकेल कसने में अक्षम है। ऐन चुनाव के समय नेताओं का दल बदलना लोकतंत्र के मूल भाव की हत्या भी है। कर्नाटक राज्य के राजनीतिक इतिहास को देखें तो 1985 के बाद से किसी भी दल की सरकार की सत्ता में पुनः वापसी नहीं हुई है अतः चुनावी वर्ष में सत्ताधारी दल के नेताओं का अपने मूल दल को छोड़कर जाना अब अचंभित नहीं करता। ऐसा प्रतीत होता है मानो जनता-जनार्दन ने भी इसे ही अपनी नियति मान उन्हें स्वीकार कर लिया है।

हार का इतिहास, फिर भी दल बदल रहे कर्नाटक के नेता

अगले माह होने वाले कर्नाटक विधानसभा चुनाव में जनता दल (सेक्युलर) ने 28 पूर्व भाजपाइयों और कांग्रेसियों को टिकट दी है। इन सभी दल-बदलू नेताओं ने अपने दल से टिकट न मिलने पर उसकी सदस्यता से इस्तीफा दे दिया था। जनता दल (सेक्युलर) की ओर से पूर्व मुख्यमंत्री और फायर ब्रांड भाजपा नेता बीएस येद्दियुरप्पा के पोते एनटी संतोष को हासन जिले की अर्सीकेरे सीट से टिकट दिया है। एनटी संतोष को भाजपा ने टिकट देने से मना कर दिया था। वहीं पूर्व कांग्रेसी मंत्री मनोहर तहसीलदार को पार्टी ने हंगल से टिकट दिया है।

कांग्रेस के पूर्व विधायक रघु अचार को भी जनता दल (सेक्युलर) में शामिल होने के बाद टिकट मिला है। यही हाल कांग्रेस का भी है जिसने दर्जन भर भाजपाइयों और जनता दल के बाग़ियों को टिकट दिया है जिनमें प्रमुख चेहरों का उल्लेख किया जा चुका है। भाजपा ने उम्मीदवारों की अपनी पहली बड़ी सूची में 52 नए चेहरों पर भरोसा जताते हुए 11 विधायकों के टिकट काट दिए जिससे पार्टी में भगदड़ की स्थिति बनी और बड़ी संख्या में कार्यकर्ता और विधायक भाग खड़े हुए।

यहां एक ज्वलंत प्रश्न उठता है कि क्या दल बदलने से नेताओं को राजनीतिक लाभ होता है? कर्नाटक की राजनीति देखें तो ऐसा नहीं होता है। दल बदलकर चुनाव लड़ने वाले अधिकांश नेता चुनाव हार जाते हैं। वर्ष 2008 में दल बदलने वाले 107 नेताओं ने चुनाव लड़ा, जिनमें से 25 उम्मीदवार जीते और 82 हारे। जबकि वर्ष 2013 में 103 दल-बदलुओं ने चुनाव लड़ा जिनमें से 16 जीते और 87 हारे। 2018 में दल बदलकर चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों की संख्या बढ़कर 131 थी जिनमें से 37 जीते और 94 उम्मीदवार चुनाव हार गए।

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