कौशल किशोर
नई दिल्ली: पिछले कुछ सालों की सिविल सेवा परीक्षा के परिणाम पर गौर करने से महिलाओं की बढ़ती भूमिका का पता चलता है। इस साल के टॉप टेन में आधा दर्जन लड़कियां शामिल हैं। कुल 1016 सफल उम्मीदवारों में महिलाओं की संख्या 352 है। अल्पसंख्यक समुदाय से भी 50 उम्मीदवार सफल हुए हैं। विदेश सेवा के लिए चुने गए कुल भर्तियों की संख्या 37 है।साथ ही प्रशासनिक सेवा के लिए 180 और पुलिस सेवा के लिए 200 तथा वन सेवा के लिए 147 अभ्यर्थी चुने गए हैं।
आजकल महिला अधिकार आंदोलनों ही नहीं बल्कि सरकार भी संसदीय राजनीति में उनके लिए एक तिहाई सीटों की व्यवस्था में लगी है। इसे पूरा करने के लिए नवीन संसद भवन के उद्घाटन के बाद नारी शक्ति वंदन अधिनियम (महिला आरक्षण विधेयक) पारित किया गया था। लेकिन यहां लड़कियों ने अपनी योग्यता के बूते मांग से थोड़ा अधिक हासिल किया है। 21वीं सदी के दूसरे दशक में नौकरशाही में महिलाओं की भागीदारी महत्वपूर्ण होती है। यह 2018 में 24 प्रतिशत से बढ़कर 2024 में 34 प्रतिशत हो गई। आज महिलाएं संघर्ष और ताकत की अद्भुत कहानियां लिखने के लिए कड़ी मेहनत कर रही हैं।
22 साल की अवस्था में महिला टॉपर डोनुरु अनन्या रेड्डी अखिल भारतीय रैंकिंग में तीसरा स्थान हासिल करती हैं। यह उनका पहला ही प्रयास था। वह तेलंगाना में महबूबनगर जिला मुख्यालय से 23 किलोमीटर दूर पोन्नकल नामक एक छोटे से गांव से आती हैं। उनके पिता धान की खेती करते हैं। उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय के मिरांडा हाउस से भूगोल में स्नातक की उपाधि प्राप्त की और वैकल्पिक विषय के रूप में नृविज्ञान चुना था। गुरुग्राम की 28 वर्षीय रूहानी छठे और अंतिम प्रयास में पांचवां स्थान हासिल कर चुकी हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय के सेंट स्टीफंस कॉलेज से वह अर्थशास्त्र में स्नातक हैं। पिछले एक प्रयास में मिली सफलता की वजह से रूहानी परिणाम के दिन 16 अप्रैल को हैदराबाद में प्रशिक्षण ले रही थी।
शीर्ष दस में अभ्यर्थियों में अल्पसंख्यक समूह से आने वाली एक मात्र उम्मीदवार महिला हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश के कुशीनगर में जन्मी नौशीन चौथे प्रयास में नौवां स्थान हासिल करती हैं। तीसरे असफल प्रयास के बाद वह डिप्रेशन में चली गई थी। लेकिन अगले परिणाम से पता चलता है कि वह जल्द ही स्वस्थ हो गई थी। वह भी दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक करने वालों में से एक हैं। नौशीन के पिता अब्दुल कय्यूम आकाशवाणी (ऑल इंडिया रेडियो) में सहायक निदेशक हैं।
पंजाब ने शीर्ष 100 उम्मीदवारों में एक सीट हासिल किया है। 31 वर्षीय गुरलीन कौर ने अपने चौथे प्रयास में तीसवीं रैंक हासिल की। डॉक्टर बलविंदर कौर मान (सेवानिवृत्त जिला स्वास्थ्य अधिकारी) की बेटी भी एक प्रशिक्षित डॉक्टर है। उन्हें 2021 में प्रांतीय लोक सेवा परीक्षा में नौवां स्थान मिलने पर प्रशासनिक सेवा में शामिल हो गईं थीं। उनकी सफलता अपने आप में एक संघर्षपूर्ण कहानी कहती है। क्योंकि उन्होंने अपने पूर्णकालिक नौकरी से अध्ययन अवकाश के बिना ही लक्ष्य साध कर इतिहास कायम किया है।
1972 में राष्ट्रीय स्तर पर टेनिस खेलने वाली किरण बेदी (पेशावरिया) ने सिविल सेवा की परीक्षा उत्तीर्ण किया और भारत की पहली महिला आईपीएस अधिकारी बनीं थीं। आधी शताब्दी से अधिक बीतने के बाद जब अगले साल उनके जीवन पर फिल्म की घोषणा होती तो राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पर खेलने वाली दूसरी महिला खिलाड़ी भारतीय पुलिस सेवा में शामिल हुई। 25 वर्षीय कुहू गर्ग बैडमिंटन में पचास से अधिक राष्ट्रीय व 19 अंतरराष्ट्रीय पदक जीतने के बाद लक्ष्य साध कर इतिहास कायम करती हैं। दूसरे प्रयास में उन्हें 178वां स्थान मिला है। उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय के श्री राम कॉलेज ऑफ कॉमर्स से अर्थशास्त्र में स्नातक किया है।
बैडमिंटन खिलाड़ी कुहू गर्ग पहली शटलर हैं, जिन्होंने 6 साल तक भारत का प्रतिनिधित्व किया और फिर आईपीएस अधिकारी होती हैं। उनके पिता अशोक कुमार 1989 बैच के आईपीएस अधिकारी और एक खिलाड़ी हैं। उत्तराखंड में पुलिस महानिदेशक के पद से पिछले साल सेवानिवृत्त होने के बाद हरियाणा स्पोर्ट्स यूनिवर्सिटी में उपकुलपति के रूप में सक्रिय हैं। उनके ही नक्शेकदम पर चलते हुए आखिर कुहू पुलिस सेवा में शामिल होती है।
खेल के मैदान में अपने करियर के चरम पर मिक्स्ड डबल्स में उनकी शीर्ष विश्व रैंकिंग 34 रही है। उस समय वह भारत में नंबर एक थीं। उसी वर्ष उन्होंने विश्व चैंपियनशिप का क्वार्टर फाइनल भी खेला था। कुहू को 2021 में उबर एशिया कप के ट्रायल के दौरान घुटने में गंभीर चोट लगी, जिसके कारण कैरियर बदलने की यह नौबत आई। एंटीरियर क्रूसिएट लिगामेंट (एसीएल) टूटने के कारण सर्जरी हुई। अब वह एक साल तक कोई मैच नहीं खेल सकती थी। ऐसी स्थिति में उसने यूपीएससी की परीक्षा के लिए तैयारी करने का फैसला किया।
याद करते हुए कुहू गर्ग कहती हैं, “मैंने विश्व चैंपियनशिप और एशियाई चैंपियनशिप में खेला था। और ओलंपिक अगला कदम था।” रिकवरी प्रक्रिया के दौरान प्रतिदिन 5 से 10 घंटे खेल के मैदान में अभ्यास के बदले करने को कुछ नहीं था। उसने इस नई उपलब्धि के लिए तैयारी शुरू किया। ऑनलाइन उपलब्ध स्रोतों और पिता से खूब मदद मिली। साथ ही जीबी पंत कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के कॉलेज ऑफ टेक्नोलॉजी की डीन उनकी मां डा. अलकनंदा अशोक भी बड़ी सहयोगी साबित हुई।
“मैं किसी भी कीमत पर लड़ने जा रही हूँ” यह मंत्र उनके अधिकांश प्रयासों के पीछे ध्वनित होता है। खेल के मैदान के सितारों के लिए तो सरकारी विभागों से लेकर संसदीय राजनीति तक के द्वार खुले रहते हैं। नौकरशाही की भी इसमें अपनी ही भूमिका है। शायद ही कोई प्रसिद्ध खिलाड़ी परीक्षा पास कर सफलता अर्जित किया हो। बाबुओं ने उन्हें प्रतिष्ठित लोक सेवा में कभी बढ़ावा भी नहीं दिया। इस प्रकार किरण बेदी और कुहू गर्ग वर्दी में खेल भावना को पोषित करने वाले अनुकरणीय उदाहरण हैं। दोनों 9 साल की उम्र से अभ्यास करना शुरू करती हैं। यह बात दोनों में समान है। बेदी 1966 और 1972 में राष्ट्रीय जूनियर चैंपियनशिप जीतती हैं। आईपीएस में शामिल होने के उपरांत उन्होंने 1974 में सीनियर्स का खिताब जीता। कुहू की खेलों में उपलब्धियां काफी प्रभावशाली हैं। यह उनके समर्पण और इसके प्रति ईमानदारी को दर्शाती हैं।
महिलाओं के संघर्ष और ताकत की कहानी सारिका ए.के. के बिना अधूरी है। 23 वर्षीय इस केरलवासी के पिता शशि कतर में ड्राइवर हैं और मां रागी गृहिणी हैं। वह सेरेब्रल पाल्सी से पीड़ित हैं। ऐसा विकार जो मांसपेशियों की गति को प्रभावित करता है। इसके लक्षण हर व्यक्ति में अलग-अलग होते हैं और हल्के से लेकर गंभीर तक हो सकते हैं। सारिका का दाहिना हाथ पूरी तरह से अक्षम है और उनके बाएं हाथ की केवल तीन उंगलियां काम कर रही हैं। शारीरिक रूप से अक्षम इस महिला ने दूसरे प्रयास में 922वीं रैंक हासिल किया है। उनकी प्रेरणा स्रोत बिना हाथ वाली लाइसेंस प्राप्त पायलट जेसिका कॉक्स हैं।
हालांकि किरण बेदी और कुहू गर्ग आदर्श व्यक्तित्व के रूप में उभरे हैं, जो वर्दी में खेल भावना को मूर्त रूप देते हैं। दोनों ने 9 साल की उम्र में ही अभ्यास शुरू कर दिया था, जो दोनों के बीच एक साझा विशेषता है। बेदी ने 1966 और 1972 में राष्ट्रीय जूनियर चैंपियनशिप जीती और आईपीएस में शामिल होने के बाद, उन्होंने 1974 में सीनियर्स का खिताब हासिल किया। खेलों में कुहू की उपलब्धियाँ भी उतनी ही प्रभावशाली हैं, जो खेल के प्रति उनके समर्पण और ईमानदारी को दर्शाती हैं।
अभी भी सार्वजनिक सेवा भारत में युवा पीढ़ी की शीर्ष आकांक्षाओं में से एक है। नौकरशाही और कार्यकारी तंत्र इस पर निर्भर रहा है। इन साहसी महिलाओं के संघर्ष ने हमें शक्ति की कई हृदयस्पर्शी कहानियों से परिचित कराया है। साथ ही युवा भारत के लिए प्रेरणा का नया स्रोत बन कर उभरी हैं।