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Home विशेष

नीतीश से चिंतित होगी भाजपा

पहल टाइम्स डेस्क by पहल टाइम्स डेस्क
August 16, 2022
in विशेष
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अजीत द्विवेदी

भाजपा ने पिछले पांच साल में कई पुराने सहयोगी गंवाएं हैं। टीडीपी से लेकर शिव सेना और अकाली दल जैसी पार्टियां साथ छोड़ कर गईं। भाजपा ने उनकी परवाह नहीं की। लेकिन नीतीश कुमार और उनकी पार्टी का अलग मतलब है। उनके साथ छोडऩे से भाजपा चिंता में होगी। भले पार्टी के नेता इस चिंता का इजहार न करें लेकिन उनको पता है कि नीतीश बाकी पुराने सहयोगियों से अलग हैं। उनके साथ भाजपा ने सबसे लंबे समय तक सत्ता की साझेदारी की है। केंद्र से लेकर बिहार सरकार तक में भाजपा और जदयू करीब 20 साल तक साथ रहे हैं। नीतीश ऐसे राज्य के नेता हैं, जहां से नए राजनीतिक विमर्श बनते हैं। भाजपा नेताओं को याद होगा कि नरेंद्र मोदी के लिए भी सबसे पहले बिहार से ही आवाज उठी थी। उनके समर्थन और विरोध दोनों की सबसे बुलंद आवाज बिहार में थी। सो, नरेंद्र मोदी के तीसरे चुनाव से पहले जदयू और नीतीश कुमार का अलग होना बहुत दूरगामी असर वाला घटनाक्रम साबित होगा।

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इस राजनीतिक घटनाक्रम का आकलन कई पहलुओं से करना होगा। एक पहलू बिहार की 40 लोकसभा सीटों का है। पिछले चुनाव में एनडीए ने इसमें से 39 सीटें जीती थीं। राज्य की सबसे बड़ी पार्टी राजद को एक भी सीट नहीं मिल पाई थी। भाजपा ने 17, जदयू ने 16 और लोक जनशक्ति पार्टी ने छह सीटें जीती थीं। पहली नजर में लगेगा कि जदयू के अलग होने से एनडीए को 17 सीटों का नुकसान हुआ है और अगले चुनाव में भी इतना ही नुकसान होगा। लेकिन ऐसा नहीं है। नीतीश कुमार अलग हो जाते और 2013 की तरह अकेले चलते तब हो सकता है कि नतीजे 2014 की तरह आते, जब नीतीश की जदयू दो सीट की पार्टी रह गई थी और भाजपा के नेतृत्व में एनडीए ने 32 सीटें जीती थीं। इस बार नीतीश अलग होकर अकेले नहीं हए हैं, बल्कि राजद के साथ गए हैं, इसलिए नतीजे 2015 के विधानसभा चुनाव की तरह हो सकते हैं, जब तमाम प्रयास के बावजूद भाजपा विधानसभा की 243 में से सिर्फ 54 सीट जीत पाई थी। सोचें, उसके पास लोकसभा की 23 सीटें थीं और विधानसभा में सिर्फ 54 सीट मिली। पूरे एनडीए को कुल 32 लोकसभा सीटें थीं और विधानसभा में सिर्फ 59 सीटें मिलीं। अगर राजद, जदयू, कांग्रेस, हम, वीआईपी और वामपंथी पार्टियां साथ रहती हैं तो संभव है कि 2024 में एनडीए दहाई में पहुंचने के लिए तरस जाए। जदयू के नेतृत्व वाले सात पार्टियों के गठबंधन का वोट जोड़ें तो 2020 के विधानसभा चुनाव में इनके पास 54 फीसदी से ज्यादा वोट थे और 2019 के लोकसभा चुनाव में 49 फीसदी के करीब वोट थे।

दूसरा आयाम बिहार से सटे दूसरे राज्यों या हिंदी पट्टी के अन्य राज्यों पर इसके असर का है। नीतीश कुमार के भाजपा से अलग होने का असर पूर्वी और उत्तरी भारत के कई राज्यों पर होगा। बिहार से सटे झारखंड को लेकर नीतीश ने पहले ही राजनीति शुरू कर दी है। उन्होंने झारखंड के प्रदेश अध्यक्ष खीरू महतो को राज्यसभा में भेजा है। यह सही है कि झारखंड के महतो या कुर्मी मतदाताओं में नीतीश का वैसा असर नहीं है। लेकिन अगर नीतीश विपक्ष का चेहरा बनते हैं और अगले चुनाव में उनके चेहरे पर चुनाव लड़ा जाता है तो झारखंड के 17-18 फीसदी के करीब महतो वोट में एक बड़ा मैसेज बनेगा। झारखंड में जेएमएम, कांग्रेस और राजद की साझा सरकार है। उनके साथ अगर जदयू जुड़ता है तो यह एक्स फैक्टर की तरह हो सकता है। राज्य की 14 में से 12 सीटें भाजपा के पास हैं। बिहार की राजनीति के असर में वह बढ़त गंवा सकती है। पूर्वी भारत के दो और राज्यों- पश्चिम बंगाल और ओडिशा में भाजपा ने पिछले चुनाव में बहुत अच्छा प्रदर्शन किया था। लेकिन इस बार हालात बदले होंगे। लोकसभा के बाद हुए विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी ने अपनी स्थिति मजबूत की है। पड़ोस के तीन राज्यों- बिहार, झारखंड और ओडिशा में विपक्षी सरकार होने से उनको ताकत मिलेगी। बंगाल में प्रवासी बिहारी मतदाताओं की संख्या भी अच्छी खासी है।

तीसरा पहलू धारणा का है। अब तक नरेंद्र मोदी के मुकाबले कोई नहीं दिख रहा था। कम से कम धारणा के स्तर पर लोगों के मन में यह बात बैठाई गई थी कि मोदी के मुकाबले कोई नहीं है। भाजपा ने अपनी तरफ से राहुल गांधी को दावेदार बना कर एक काल्पनिक मुकाबला बनाया हुआ है। हकीकत में राहुल दावेदार नहीं हैं। वे न तो पार्टी के अध्यक्ष हैं न कभी केंद्र में मंत्री रहे हैं, न मुख्यमंत्री रहे हैं इसके बावजूद भाजपा ने उनको दावेदार बनाया है। झूठी-सच्ची खबरें और वीडियो के जरिए उनको कम बुद्धि का नेता स्थापित किया गया है। इस तरह भाजपा अब तक एक कमजोर प्रतिद्वंद्वी खड़ा करके उससे लड़ रही थी। अगर नीतीश कुमार मुकाबले में आते हैं तो धारणा अपने आप बदल जाएगी। वे कई बरस तक केंद्र में मंत्री रहे हैं और 15 साल से ज्यादा समय से बिहार के मुख्यमंत्री हैं। उनको प्रशासन का अनुभव है और वे भी 24 घंटे राजनीति करने वाले नेता हैं। सो, उनके आने से धारणा अपने आप बदल जाएगी। देयर इज नो ऑल्टरनेटिव यानी टीना फैक्टर समाप्त हो जाएगा। नीतीश उत्तर भारत के नेता हैं, प्रशासन का अनुभव है और पिछड़ी जाति से आते हैं। इतना काफी है उनको मजबूत प्रतिद्वंद्वी बनाने के लिए।

चौथा पहलू यह कि नीतीश के खिलाफ हमला करने या उनका चरित्रहनन करने के लिए कुछ नहीं है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समूचे विपक्ष को परिवारवादी और भ्रष्ट बता कर आलोचना करते रहे हैं। राहुल गांधी से लेकर के चंद्रशेखर राव, अखिलेश यादव, एमके स्टालिन, एचडी देवगौड़ा, शरद पवार, लालू प्रसाद, ममता बनर्जी आदि सारे विपक्षी नेता परिवारवादी और भ्रष्ट बताए जाते हैं। लेकिन नीतीश कुमार के बारे में ऐसा कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। वे न तो परिवारवादी हैं और न उनके ऊपर भ्रष्टाचार के आरोप हैं। ऊपर से भाजपा के साथ रहते हुए भी उन्होंने अपनी छवि सांप्रदायिक नहीं होने दी है। अगर भाजपा उनके ऊपर कोई भी आरोप लगाती है तो वह पलट कर उसके ऊपर ही आएगा क्योंकि लगभग सारे समय वह उनके साथ सत्ता में साझेदार रही है। तभी नीतीश कुमार को लेकर निश्चित रूप से भाजपा को चिंता हो रही होगी। अगर वे सिर्फ बिहार में राजनीति करें तब भाजपा को चिंता नहीं होगी लेकिन जैसे ही वे राष्ट्रीय राजनीति में सक्रिय होंगे, भाजपा की मुश्किलें बढ़ जाएंगी। उसके लिए 2024 का चुनाव मुश्किल हो जाएगा।

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