नई दिल्ली। भारत 18वीं लोकसभा के चुनाव के बीच पहुंच गया है। आजादी के बाद हुए पहले आठ लोकसभा चुनावों में जीतने वाली पार्टी के पास सरकार बनाने के लिए जरूरी बहुमत से ज्यादा सीटें हुआ करती थीं। साल 1967 में इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस को बहुमत से 22 सीटें ज्यादा मिली थीं, जबकि साल 1984 में कांग्रेस के ही राजीव गांधी की झोली में बहुमत से 143 सीटें ज्यादा आई थीं।
लोकसभा सीटों की संख्या भी समय के साथ बदलती रही!
वैसे, कुल लोकसभा सीटों की संख्या भी समय के साथ बदलती रही है, साल 1951 में हुए पहले चुनाव के लिए 489 के निचले स्तर से लेकर वर्तमान 543 सीटों तक। साल 2009 में नौवें से लेकर 15वें आम चुनाव तक, जीतने वाली पार्टी बहुमत से दूर रही थी, साल 2004 में मनमोहन सिंह कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार के प्रधानमंत्री बने, तब कांग्रेस के पास बहुमत से 127 सीटें कम थीं, जबकि साल 1991 में जब पीवी नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री बने, तब कांग्रेस के पास बहुमत से 24 सीटें कम थीं। किसी एक पार्टी के पास अगर बहुमत न हो, तो जाहिर है, गठबंधन सरकारों की जरूरत पड़ती है। खैर, साल 2014 और 2019 के आम चुनाव में प्रारूप बदल गया, जब भारतीय जनता पार्टी को बहुमत के आंकड़े से क्रमशः 10 और 31 सीटें ज्यादा हासिल हुईं।
बहु-चरणीय चुनाव में राजनीतिक दलों को सुविधा !
अब लोकसभा चुनाव 2024 में क्या भाजपा या कांग्रेस संसद में बहुमत से ज्यादा सीटें हासिल करने वाली किसी एक पार्टी की परंपरा को बरकरार रखेगी ? बहुमत के लिए जरूरी सीटों से ज्यादा सीटें पाने का कारनामा यही दो पार्टियां कर सकती हैं, क्योंकि केवल यही दो हैं, जो बहुमत के लिए जरूरी 272 सीटों से अधिक पर चुनाव लड़ रही हैं। भाजपा उम्मीदवारों ने 446 निर्वाचन क्षेत्रों में और कांग्रेस नेताओं ने 327 निर्वाचन क्षेत्रों में पंजीकरण कराया है। सांख्यिकीय रूप से अगर देखें, तो अकेले दम पर कांग्रेस को बहुमत का आंकड़ा पार करने के लिए 82 प्रतिशत सीटें जीतनी होंगी। ऐसे में, फिलहाल कांग्रेस के लिए अकेले दम पर बहुमत से आधी सीटें भी जीतने की संभावना कम लगती है। उम्मीदवारों के मामले में इस समय तीसरी सबसे बड़ी पार्टी सपा है, जो 62 सीटों पर चुनाव लड़ रही है। बसपा ने अभी तक अपने उम्मीदवारों की पूरी सूची की घोषणा नहीं की है, बहु-चरणीय चुनाव में राजनीतिक दलों को यह सुविधा मिलती है।
‘फर्स्ट पास्ट-द-पोस्ट सिस्टम’
दुनिया भर में अनेक प्रकार की मतदान प्रणालियां हैं। ब्रिटेन की तरह ही भारत ‘फर्स्ट पास्ट-द-पोस्ट सिस्टम’ (एफपीटीपी) का इस्तेमाल करता है। यह शब्द घुड़दौड़ के संदर्भ में आता है, जहां पोस्ट या विजय रेखा को पार करने वाला पहला घोड़ा एकमात्र विजेता होता है, चाहे वह सिर्फ नाक भर आगे रहा हो या मील भर आगे। सबसे अधिक वोट पाने वाला उम्मीदवार ही जीतता है, भले ही उस व्यक्ति का मत प्रतिशत डाले गए कुल मतों के आधे से भी कम हो और ऐसा अक्सर होता है, जब मैदान में दो से ज्यादा उम्मीदवार उतरते हैं।
भाजपा अपेक्षाकृत कम जोर लगा रही !
साल 2019 के चुनावों में 224 संसदीय क्षेत्रों में भाजपा उम्मीदवारों को 50 प्रतिशत से ज्यादा मतदाता हिस्सेदारी के साथ जीत हासिल हुई थी। इन 224 सीटों में से ज्यादातर पांच राज्यों, उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, मध्य प्रदेश और गुजरात में हासिल हुई थीं। इन पांच राज्यों में कुल मिलाकर 200 लोकसभा सीटें पड़ती हैं। गुजरात को छोड़ दीजिए, तो शेष राज्यों में इस बार भाजपा अपेक्षाकृत कम जोर लगा रही है, उसका चुनावी अभियान महाराष्ट्र, कर्नाटक और हरियाणा जैसे अन्य राज्यों में ज्यादा जोर-शोर से चला है।
दूसरी ओर, साल 2019 के लोकसभा चुनाव में, गैर-भाजपा दलों ने कुल 117 निर्वाचन क्षेत्रों में आधे से अधिक वोट हासिल किए थे, जिनमें तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र की सीटें शामिल थीं।
चुनावों के नतीजों की भविष्यवाणी !
इन चुनावों के नतीजों की भविष्यवाणी करने का एक तरीका यह है कि भाजपा को उसकी 224 सुरक्षित सीटें दे दी जाएं और गैर-भाजपा दल अपनी 117 मजबूत सीटें ले लें। शेष 202 निर्वाचन क्षेत्रों को विश्लेषण में ‘स्विंग सीट’ के रूप में गिना जाए। वैसे, ऐसे विश्लेषण के दो कारणों से गलत परिणाम हो सकते हैं। एक, जरूरी नहीं कि पिछले चुनाव का इतिहास दोहराया जाए। दूसरा, राज्य स्तर पर सियासी समर्थन या विरोध की स्थिति कुछ राज्यों में बदली हुई दिखती है। मिसाल के लिए, उत्तर प्रदेश में पिछले चुनाव में सपा और बसपा के बीच का गठबंधन टूट गया है और सपा ने इंडिया ब्लॉक में शामिल होकर कांग्रेस के साथ गठबंधन कर लिया है। बिहार में नीतीश कुमार के जनता दल (यूनाइटेड) को एनडीए में 16 सीटें आवंटित की गई हैं और यह कहना अभी मुश्किल है कि इस बार नतीजे क्या आने वाले हैं। महाराष्ट्र में देखें, तो अब वहां पर दो शिवसेना और दो राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी हैं। इस बात पर गरमागरम बहस चल रही है कि मतदाता महाराष्ट्र में किसे पसंद करेंगे। पार्टियों के मूल संस्करण लोगों को पसंद आएंगे या नए संस्करणों को ज्यादा वोट मिलेंगे?
हर सीट का अपना महत्व !
बहरहाल, हर सीट का अपना महत्व है और यह मायने नहीं रखता कि सीट किस राज्य से आ रही है। 17 राज्य ऐसे हैं, जहां 10 से अधिक लोकसभा सीटें हैं, सीटें कुल मिलाकर, 502 हो जाती हैं। तमाम राज्यों के बीच छह को ‘स्विंग’ राज्य के रूप में गिना जाता है। ये राज्य हैं- महाराष्ट्र, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, पंजाब, छत्तीसगढ़ व हरियाणा। आप 2024 के लिए बिहार को इस सूची में जोड़ सकते हैं। ये असल युद्ध भूमि हैं। वैसे, ये अमेरिकी अर्थों में ‘स्विंग स्टेट्स’ नहीं हैं, क्योंकि ये राज्य एक अकेले विजेता के खाते में नहीं जाते हैं और यहां अनेक सीटों पर जीत-हार का फैसला वोट के कम अंतर से होता है।
बहुमत वाली सरकारों की हालिया प्रवृत्ति कायम !
उम्मीदवारों के साथ-साथ स्थानीय कारक भी हार- जीत में काम करते हैं। इन छह ‘स्विंग’ राज्यों में कुल 152 सीटें हैं और बिहार को जोड़ दें, तो 192 सीटें हैं। मेरे अनुमान के अनुसार, इनमें से लगभग आधे क्षेत्रों में हार-जीत का अंतर बहुत कम रहेगा और इसी हार-जीत से यह तय होगा कि एक दल के बहुमत वाली सरकारों की हालिया प्रवृत्ति कायम रहती है या. उलट जाती है। मुमकिन है, अनेक सीटों पर बहुत मामूली अंतर से पलड़ा इधर या उधर झुक जाए।