नई दिल्ली l उत्तर प्रदेश, पंजाब और उत्तराखंड सहित देश के पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस अब तक हार के बाद कलह से उबर नहीं पाई. पंजाब में आम आदमी पार्टी और उत्तराखंड में बीजेपी सरकार ने गठन के बाद अपना काम भी शुरू कर दिया है, पर कांग्रेस अभी तक नेता प्रतिपक्ष तलाश नहीं सकी है. विधानसभा चुनाव नतीजे आए 26 दिन हो चुके हैं, लेकिन कांग्रेस पंजाब और उत्तराखंड में नेता प्रतिपक्ष का फैसला क्यों नहीं कर सकी.
पंजाब में क्यों कशमकश में फंसी कांग्रेस
पंजाब में मुख्यमंत्री बदलने का सियासी प्रयोग करने के बाद भी कांग्रेस अपनी सत्ता नहीं बचा सकी. सूबे में कांग्रेस 18 सीटों पर सिमट गई है और कांग्रेस के मुख्यमंत्री चेहरे रहे चरणजीत सिंह चन्नी से लेकर प्रदेश अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू हार गए हैं. ऐसे में अब कांग्रेस विधायकों में नेता प्रतिपक्ष की कुर्सी के लिए ‘एक अनार सौ बीमार’ जैसी स्थिति बनी हुई है. ऐसे में नेता प्रतिपक्ष की कुर्सी को लेकर कांग्रेस कोई फैसला नहीं कर कर पा रही.
कांग्रेस में नेता प्रतिपक्ष के लिए दावा ठोकने वालों की लिस्ट खासी लंबी है. चार बार विधायक, एक बार सांसद और एक बार राज्यसभा सदस्य रहे प्रताप सिंह बाजवा, पांच बार विधायक बने तृप्त राजिंदर सिंह बाजवा, चार बार विधायक बने और पूर्व उप मुख्यमंत्री सुखजिंदर सिंह रंधावा के अलावा सुखपाल खैहरा इस दौड़ में शामिल हैं. वहीं, महिला चेहरे के रूप में चार बार विधायक बनीं अरुणा चौधरी भी इस दौड़ में शामिल हैं.
कांग्रेस की देरी की असल वजह ये है
कांग्रेस की चिंता यह है कि विधानसभा चुनाव में हार ही नेताओं के एकजुट न होने के कारण हुई है. पार्टी को नेता प्रतिपक्ष के रूप में ऐसा चेहरा चाहिए जो न केवल सभी 18 विधायकों को एक साथ लेकर चल सके बल्कि सत्ता पक्ष के 92 विधायकों का सामना भी कर सकें. अब पार्टी इस कारण भी चिंता में है कि जो नाम नेता प्रतिपक्ष की दौड़ में शामिल हैं, वह वरिष्ठ नेता तो हैं लेकिन सभी विधायकों को एक साथ लेकर चलने की क्षमता नहीं रखते हैं. ऐसे में कांग्रेस भविष्य की रणनीति को देखते हुए पार्टी किसी नए चेहरे पर भी दांव खेलना चाहती है, जो सभी को एकसूत्र में बांधकर रख सके.
हालांकि, पंजाब में कांग्रेस ने हार से सबक लेते हुए इस बार नेता का चयन धर्म और जाति यानि हिंदू व सिख पुरानी परिपाटी में नहीं फंसना चाहती है. ऐसे में दोनों प्रमुख सीटों की जिम्मेदारी किसी बड़े सिख चेहरे को ही दी जा सकती है. बता दें, अभी तक कांग्रेस धार्मिक संतुलन बनाकर चलती रही है कि अगर प्रदेश अध्यक्ष की जिम्मेदारी हिंदू को दी जाती थी तो सरकार में मुख्यमंत्री व नेता प्रतिपक्ष की जिम्मेदारी सिख चेहरे को दी जाती थी.
उत्तराखंड में कांग्रेस क्यों कर रही देरी
उत्तराखंड में मिली हार के सदमें से कांग्रेस अभी तक उबर नहीं पाई. खटीमा सीट से हारने के बाद भी बीजेपी से सीएम बने पुष्कर सिंह धामी ने अपना कामकाज भी शुरू कर दिया है, लेकिन मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस अब तक नेता प्रतिपक्ष का भी चुनाव नहीं कर पाई है. गणेश गोदियाल के पद से इस्तीफा देने के बाद से प्रदेश अध्यक्ष का पद भी खाली पड़ा है. पूर्व सीएम हरीश रावत अपनी सीट हार गए हैं, तो गोदियाल भी नहीं जीत सके.
नेता प्रतिपक्ष की कुर्सी एक बार फिर से विधायक प्रीतम सिंह की मजबूत दावेदारी मानी जा रही है, लेकिन यशपाल आर्य, राजेंद्र भंडारी, हरीश धामी, मनोज तिवारी और ममता राकेश भी दावेदार माने जा रहे हैं. हालांकि, प्रीतम सिंह के नाम पर भीतरखाने हरीश रावत गुट की ओर से भी सहमति बन चुकी है, लेकिन प्रदेश अध्यक्ष पद पर मामला लटका हुआ है. संगठन की कमान पुष्कर सिंह धामी को खटीमा सीट से हराने वाले युवा नेता भुवन कापड़ी के नाम की चर्चा चल रही है तो सात बार के विधायक यशपाल आर्य का नाम भी प्रदेश अध्यक्ष पद के लिए लिया जा रहा है.
यशपाल आर्य प्रदेश अध्यक्ष पद के बजाए, नेता प्रतिपक्ष पद के लिए ज्यादा उत्सुक माने जा रहे हैं. ऐसे में कांग्रेस की हार की एक बड़ी वजह पार्टी नेताओं की गुटबाजी रही है, जिसके चलते सभी समीकरणों को साधने के लिए नेता प्रतिपक्ष का चयन करना चाहती है, जो सभी विधायकों के साथ लेकर चलने के साथ-साथ सियासी समीकरणों को संतुलित किया जा सके. ऐसे में अब देखना है कि कांग्रेस कब तक नेता प्रतिपक्ष के नाम पर मुहर लगाती है.