90 के दशक की बात है. अजहरुद्दीन बेबस चेहरे के साथ नजर आते थे. टीम चयन को लेकर ऐसी बेबसी, जिस पर वह ज्यादा कुछ बोल भी नहीं सकते थे. सिवाय इसके कि मैं क्या करूं, मुझे तो टीम दी जाती है. वह दौर था, जब कप्तान को प्लेइंग इलेवन दी जाती थी. चयनकर्ता तय करते थे कि टीम क्या होगी. उस दौर में लगातार यह बहस चलती थी कि अगर किसी को कप्तान बनाया गया है, तो उसे पूरी पावर क्यों नहीं मिलनी चाहिए. फेल होने पर सबसे पहली गाज तो कप्तान पर ही गिरती है ना, तो तय करने का पूरा अधिकार उसे क्यों न मिले.
सचिन तेंडुलकर आए, तो भी सिलसिला जारी रहा. क्रिकेट में रुचि लेने वाला बच्चा-बच्चा जानता है कि नोएल डेविड के चयन में क्या हुआ था.
1996-97 में वेस्टइंडीज दौरे पर सचिन को नोएल डेविड दिए गए थे. सचिन को जब फोन पर बताया गया था, तो उन्होंने सवाल किया था, ‘नोएल हू?’ यह वो दौरा था, जब टीम इंडिया के पास तेज गेंदबाजों का अकाल था, श्रीनाथ अनफिट हो गए थे. सचिन की कप्तानी के दौर पर कहा जाता है कि जिस खिलाड़ी की डिमांड उन्होंने की, वही नहीं लिया गया. उस दौर से हम नए युग में हैं. बहस इस पर है कि क्या रवि शास्त्री और विराट कोहली के हाथ में इतनी पावर दी जानी चाहिए कि टीम से जुड़े सारे फैसले वही करें. खासतौर पर रविचंद्रन अश्विन के मामले को ध्यान में रखते हुए. अश्विन को लेकर हर किसी के पास सवाल है. लेकिन जवाब कहीं नहीं है.
जिस बात पर कोहली नाराज हुए अगले मैच में वही कर डाली
दिलीप वेंगसरकर कह चुके हैं कि अश्विन का न खेलना रहस्य है. वरुण चक्रवर्ती को अश्विन पर तरजीह दिया जाना कम से कम क्रिकेटिंग लॉजिक से तो समझाया नहीं जा सकता. पाकिस्तान के खिलाफ मैच हारने के बाद एक पत्रकार ने रोहित शर्मा पर सवाल पूछा था. सवाल था कि रोहित से ओपन क्यों करवाया जा रहा है. विराट खासे नाराज हो गए थे. इस सुझाव पर तो उन्होंने सिर पकड़ लिया था कि इशान किशन से पारी शुरू करवाई जा सकती है. लेकिन बेहद खफा, भड़के हुए विराट की कप्तानी में जब टीम अगला मैच खेलने उतरी, तो रोहित ओपन नहीं कर रहे थे. इशान किशन से ओपन करवाया जा रहा था. हार्दिक पंड्या पर सवालों के जवाब किसी के पास नहीं हैं.
कप्तान के पास कितनी ताकत होनी चाहिए?
सवाल यही है कि कप्तान की शक्तियां कितनी होनी चाहिए. इस तरह के सवाल बड़े रोचक होते हैं. जैसे एक सवाल यह कि खिलाड़ियों को फेडरेशन में होना चाहिए. कुछ कोशिशें हुईं, कुछ खिलाड़ी कामयाब हुए, कुछ बेहद नाकाम रहे. खेल पुरस्कारों की कमेटी को लेकर सवाल उठता रहा. कमेटी की शक्ल बदली गई, लेकिन हालत बदतर ही हुई. इस साल 47 लोगों को खेल रत्न और अर्जुन अवॉर्ड दिए गए हैं, जो बताने के लिए काफी है कि इन अवॉर्ड्स की अहमियत कहां पहुंच गई है. ऐसा लग रहा है, जैसे हर किसी को अवॉर्ड दे दिए जाने की जिद है.
…तो कई मुद्दों पर सवाल उठे हैं. लेकिन जब उन्हें पलटा गया है, जो सवाल और ज्यादा मुखर हो गए हैं. इसी तरह का सवाल विराट कोहली को लेकर है. जब कप्तान के हाथ में कमान देने की मांग हो रही थी, उस समय सौरव गांगुली आए थे. बीसीसीआई में जगमोहन डालमिया सबसे बड़ी ताकत थे. डालमिया का हाथ गांगुली के सिर पर था. गांगुली ने एक तरह से अपनी टीम बनाई. कुछेक खिलाड़ियों पर सवाल उठे. लेकिन कोर टीम ऐसी थी, जो सवालों से परे थी. सहवाग, युवराज से लेकर हरभजन, जहीर तक.. सभी गांगुली की कोर टीम का हिस्सा थे.
महेंद्र सिंह धोनी आए तो एन. श्रीनिवासन का राज चलता था. धोनी ने गांगुली से एक कदम बढ़कर ही काम किया.
सवाल ही सवाल हैं पर जवाब नहीं
कोहली के लिए बीसीसीआई में किसी का नाम तो नहीं लिया जाता, लेकिन शास्त्री-कोहली की जोड़ी पर आईपीएल की छाप को लेकर सवाल उठते हैं. जाहिर है, सवाल तो उठेंगे. क्रिकेट इस देश में जितना देखा-सुना जाता है, उसमें सवालों से बचना संभव नहीं है. लेकिन यहां दिक्कत सवालों से नहीं, लॉजिकल सवालों से है, जिनके जवाब नहीं हैं. पहली बार नहीं है कि ड्रेसिंग रूम के माहौल को लेकर बातें हुई हों. पहली बार नहीं है कि किसी खिलाड़ी को न खिलाने पर सवाल उठे हों. लेकिन सवाल उठते रहें और उन पर इतने लंबे समय तक कोई कार्रवाई न हो, यह अजीब है. टीम अच्छा प्रदर्शन कर रही हो, तो सवाल दब जाते हैं. अभी जब टीम का प्रदर्शन सवालों के घेरे में है, तो ये ज्यादा मुखर हैं. उन्हीं सवालों के साथ यह भी कि आखिर कप्तान को कितनी छूट मिलनी चाहिए.
अभी समस्या चयनकर्ताओं को लेकर भी है. चयनकर्ताओं के चयन में इतनी पाबंदियां लग गई हैं कि चयन समिति में बड़े नाम बहुत कम दिखते हैं. बड़े नामों से ज्यादा ऐसे नाम, जो अपने फैसले मनवाने में कामयाब रहें. चयन समिति में कम इंटरनेशनल क्रिकेट खेले लोग रहे हैं. कम खेलने से उनकी क्रिकेटिंग परख पर सवाल नहीं उठाए जा सकते. राजसिंह डूंगरपुर जैसे लोग रहे हैं, जिनकी बात को काटना किसी के लिए आसान नहीं होता था. लेकिन एक तो कद बड़ा होना सवाल है, दूसरा कमर्शियल दौर में अपनी बात पर अड़ जाना आसान नहीं होता, जहां अड़ जाना आपको भारी नुकसान पहुंचाने का खतरा लेकर आता हो. ऐसे में वो बैलेंस नहीं रह गया है, जो कप्तान, बीसीसीआई और चयनकर्ताओं की पावर को किसी एक तरफ जाने से रोकने का काम करे. यही वजह है कि टीम मैनेजमेंट सबसे ऊपर और जवाबों से परे दिखाई दे रहा है.