प्रकाश मेहरा
महंगाई! भूत प्रेत की तरह उन चंद चीजों में शामिल है, म जिनका नाम ही खौफ पैदा करने के लिए काफी है। हालांकि, पिछले कुछ। दिनों में महंगाई का नाम कहीं राहत के साथ, तो कहीं खुशी के साथ लिया जा रहा है। महंगाई के आंकड़ों में राहत की खबरें तो आ रही हैं। खुदरा महंगाई बढ़ने की रफ्तार पिछले पांच महीनों से लगातार गिर रही है और थोक महंगाई की दर तो सात महीनों से शून्य के नीचे है, यानी महंगाई या महंगाई की रफ्तार नहीं, बल्कि दाम गिर रहे हैं। अब यह दाम गिरना फायदेमंद है या नुकसानदेह यह एक अलग सवाल है, लेकिन महंगाई कम होना या दाम गिरना पहली नजर में खुशखबरी तो है ही, और ऊपर से सरकारी कर्मचारियों को महंगाई भत्ते में बढ़ोतरी की खबर से खुशी का डबल डोज मिल गया। यहां तक कि चुनाव आयोग ने कुछ ऐसे राज्यों में भी सरकार को महंगाई भत्ता बढ़ाने की इजाजत दे दी है, जहां ‘चुनाव चल रहे हैं।
यह फैसला हैरान करने वाला नहीं है, क्योंकि महंगाई भत्ता बढ़ना एक सामान्य प्रक्रिया का हिस्सा है। महंगाई बढ़ेगी, तो भत्ता बढ़ना भी स्वाभाविक है, लेकिन अखबारों और वेबसाइटों की सुर्खियां देखें, तो लगता है कि मानो इन राज्यों में और केंद्र सरकार के कर्मचारियों की लॉटरी लग गई है। लोगों को भत्ता दिखता है, मगर यह नहीं दिखता कि इसके पहले महंगाई बढ़ी है, जिसका असर कम करने के लिए भत्ता बढ़ाना पड़ता है।
ऐसा क्यों होता है?
इसकी अपनी कहानी है। केंद्र सरकार के कर्मचारी और राज्य सरकारों या सरकारी कंपनियों के कर्मचारी के अलावा अब ऐसे लोग बहुत कम रह गए हैं, जिन्हें तनख्वाह के साथ महंगाई भत्ता भी मिलता है। वजह यह है कि अर्थव्यवस्था और कारोबारी तौर-तरीकों में बदलाव हुआ है। पुरानी व्यवस्था में सरकारी नियमों के हिसाब से तनख्वाह के साथ मकान किराया भत्ता और महंगाई भत्ता जैसी चीजें जुड़ती थीं और फिर पीएफ वगैरह काटकर तनख्वाह बनती थी। इसके बाद एक सीमा से ज्यादा तनख्वाह वालों को टैक्स भी भरना पड़ता था। इसी चक्कर में मालिकों और कर्मचारियों में सहमति बनने लगी कि ऐसा रास्ता निकाला जाए कि टैक्स भी बच जाए, और हो सके, तो पीएफ भी न चुकाना पड़े, यानी पूरा का पूरा पैसा हाथ में आ जाए। शुरुआत तो ऊंची कुर्सियों पर बैठे लोगों से हुई थी, पर यह सिलसिला तेजी से बढ़ता गया और निजी क्षेत्र में ज्यादातर लोग इसी रास्ते पर निकल पड़े। बीच में कुछ सख्ती और समझदारी का असर है कि पीएफ ज्यादातर लोगों का आज भी कट रहा है और सरकार को भी जब रोजगार का आंकड़ा दिखाना होता है, तो वह बताती है कि इस महीने ईपीएफओ में कितने नए सदस्य जुड़े हैं, यानी कितने नए लोगों को रोजगार मिल गया है। इस आंकड़े पर भी बहस है, पर यह फिर कभी। फिलहाल काम की बात यह है कि देश में रोजगार में लगे लोगों का भी बड़ा हिस्सा अब तनख्वाह के साथ महंगाई भत्ता नहीं पा रहा है। ऐसे लोगों की गिनती बड़ी होने के कारण ही उन्हें लगता है कि जिन सरकारी कर्मचारियों को महंगाई भत्ता मिला, उनकी लॉटरी लग गई।
अब दूसरी तरफ देखें। महंगाई कम होने की खबरों और खुशखबरियों के बीच एक सर्वे आया है, जो बताता है कि भारत में इलाज का खर्च तेजी से बढ़ा है। भारत में मेडिकल महंगाई की दर एशिया में सबसे तेज 14 प्रतिशत की ऊंचाई पर पहुंची हुई है। इसी साल मार्च में सरकार ने दवा कंपनियों को महंगाई के हिसाब से दाम बढ़ाने की इजाजत दी थी, जिसके बाद अप्रैल में ज्यादातर जरूरी दवाओं के दाम में 12 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी हुई थी। नीति आयोग की एक रिपोर्ट के मुताबिक, 2022 में रोजगार में लगे लोगों की गिनती 52.2 करोड़ थी, जो 2030 तक बढ़कर 56.9 करोड़ हो जाने का अनुमान है। हालांकि चिंताजनक आंकड़ा यह है कि इनमें से सिर्फ 15 प्रतिशत लोग ऐसे होंगे, जिनके इलाज या चिकित्सा बीमा का इंतजाम उन्हें नौकरी पर रखनेवाले संस्थान कर रहे होंगे।
जिस सर्वे में मेडिकल महंगाई का खतरनाक आंकड़ा सामने आया है, उसमें यह फिक्र भी जताई गई है कि इलाज का खर्च बेतहाशा बढ़ने का सीधा असर करीब नौ करोड़ लोगों पर पड़ता है, जिनके महीने के खर्च का 10 प्रतिशत से ज्यादा हिस्सा सिर्फ इलाज के खाते में चला जाता है। फिक्र की बात है कि 51 साल से ज्यादा उम्र वाले लोग ही बीमा के बारे में ज्यादा सोचते हैं। जिन लोगों को कोई गंभीर बीमारी हो, उनमें से तो 85 प्रतिशत को यही लगता है कि उन्हें कंपनी की तरफ से कोई सहारा नहीं मिलता है। मेडिकल महंगाई से निपटने का एक तरीका सरकारी अस्पतालों का तंत्र मजबूत करना भी है।
बहरहाल, महंगाई अपने आप में बड़ी समस्या है?
भारत में थोक के भाव गिरने की खबर और खुदरा महंगाई छह प्रतिशत के नीचे आने के बाद भी रिजर्व बैंक आश्वस्त नहीं बैठा है। वित्त मंत्रालय ने अपने मासिक आर्थिक सर्वेक्षण में कहा है कि महंगाई के मोर्चे पर रिजर्व बैंक पूरी तरह चौकन्ना है। मतलब साफ है, अभी सरकार और रिजर्व बैंक आश्वस्त नहीं हैं। सर्वेक्षण का यह भी कहना है कि महंगाई को काबू करने के लिए रिजर्व बैंक ने जो दरें बढ़ाई हैं, उनका पूरा असर होने पर, यानी बैंकों द्वारा दर बढ़ाने और कर्ज की किस्तें बढ़ने का असर बाजार में मांग पर पड़ सकता है, यानी यह बहुत सतर्क रहने का समय है।
यहां एक बात समझनी भी जरूरी है कि महंगाई का नाम सुनकर कितना भी डर लगता हो, भारत जैसे विकासशील देश में महंगाई न होना भी चिंताजनक हो सकता है। महंगाई का सीधा अर्थ तो यही है कि देश में चीजों की मांग बढ़ रही है। अब इस मांग को पूरा करने के लिए उत्पादन बढ़ाना और उसे बाजार तक पहुंचाना जरूरी हो जाता है। जैसे ही यह किया जाता है, तो अर्थव्यवस्था का चक्का घूमने लगता है। जहां एक हद से ज्यादा महंगाई परेशानी का सबब है, वहीं एक हद से कम महंगाई भी तकलीफ का संकेत हो सकती है। यही वजह है, रिजर्व बैंक महंगाई को खत्म करने नहीं, बल्कि दो से छह प्रतिशत के बीच रखने के इरादे से ही काम करता है।