कौशल किशोर
नई दिल्ली: भारतीय संविधान के बुनियादी ढांचे पर पचास साल पहले शुरु हुई बहस एक बार फिर से हरी हो गई है। उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए 1973 के चर्चित केशवानंद भारती की याचिका में सुप्रीम कोर्ट के फैसले से असहमति जाहिर करते हैं। उन्होंने कहा, “संसद की शक्ति पर सवाल उठाने पर यह कहना मुश्किल होगा कि भारत एक लोकतांत्रिक राष्ट्र है”। उच्चतम न्यायालय ने आपातकाल में मौलिक अधिकारों पर रोक लगाने के फैसले से अपने ही सिर पर कलंक का टीका लगाया था। बीते सप्ताह चुनावी बॉन्ड को नागरिक अधिकारों का हनन मान कर असंवैधानिक करार देने के फैसले का सभी ने स्वागत किया है। साथ ही न्याय पालिका और विधान पालिका के बीच नियुक्तियों के नाम पर तकरार जारी है। आज सुधारों के पक्ष में व्यापक जन समर्थन और पारदर्शिता का अभाव दिखता है।
उपराष्ट्रपति द्वारा दिल्ली में कही बात पर चीफ जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ मुम्बई में नानी पालकीवाला स्मृति व्याख्यान में प्रतिक्रिया देते हैं। संविधान के बुनियादी ढांचे के सिद्धांत को उन्होंने ध्रुवतारा के समान करार दिया है। हैरत की बात है कि इस ध्रुवतारा की व्याख्या करते हुए उन्होंने जिन बातों का जिक्र किया उनमें से कई संसद द्वारा पारित संविधान संशोधन का ही परिणाम है।
अनुच्छेद 368 के तहत संविधान में संशोधन की शक्ति संसद में निहित है। इसका इस्तेमाल 18 जुलाई 1951 से लागू पहले संशोधन से लगातार जारी है। हालांकि स्वतंत्र भारत की पहली निर्वाचित संसद के गठन से पहले हुए इस कार्य ने लोकनीति की जगह पर सत्ता की राजनीति को पुनर्स्थापित किया है। न्यायमूर्तियों को इसकी समीक्षा करनी चाहिए कि संविधान के बुनियादी ढांचे पर इसका क्या असर पड़ा है? इस प्रश्न का उत्तर खोजते हुए आसमान में ध्रुवतारा की ओर देखने के बदले मूल संविधान की ओर देखने की जरूरत होगी। अब तक कुल 106 बार संशोधन किया गया है और भविष्य में भी यह प्रक्रिया थमने वाली नहीं है। समझौते का यह दस्तावेज परिवर्तन शून्य होने पर अप्रासंगिक ही हो जायेगा। लोकतंत्र की जननी होने का दावा करने वाले भारत की प्रतिष्ठा के अनुरुप विधियों को प्रस्तावित करना काल सापेक्ष साबित होगा।
अनुच्छेद 326 में वयस्क मतदान का जिक्र है और लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 94 में गोपनीय मतदान का प्रविधान है। संविधान का 61वां संशोधन 28 मार्च 1989 को लागू किया गया था। भारतीय लोकतंत्र चार दशकों की साधना के बाद मतदान के लिए 21 वर्ष की समय सीमा को 18 वर्ष कर देती है। जस्टिस वी.एम. तारकुंडे समिति की इस सिफारिश को समय के साथ चलने की पहल माना जाता है। इक्कीसवीं सदी इंटरनेट मीडिया का युग साबित होता है। इसमें गोपनीय मतदान की शर्त भ्रम पालने की वकालत करती प्रतीत होती है। कमजोर तबके के नागरिकों को निर्भय करने के नाम पर इसने चुनावों में धांधली का मार्ग प्रशस्त किया है। मतपत्रों पर दबंगों का दाग ईवीएम को जन्म देता है। फिर वीवीपीएटी भी इस कड़ी में जुड़ गई। अब एक और तकनीकी अपनी जगह बनाने के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटा रही है। इस मामले में हो रही तकनीकी की दुकानदारी के बदले निर्भयता को सुनिश्चित करने पर बल देना मुनासिब होगा। लिच्छवी गणतंत्र में भी खुले मतदान की बात मिलती है। इस दिशा में होने वाली प्रगति समय के साथ कदमताल कर सकती है। सही मायनों में भारत को लोकतंत्र की जननी के तौर पर स्थापित करने में भी मददगार होगी।
चुनावी बॉन्ड के साथ चुनाव सुधार के प्रश्न पर बहस छिड़ती है। दिनेश गोस्वामी समिति की सिफारिश सुधार के बिंदुओं को उकेरती है। सत्ता पक्ष और विपक्ष की राजनीति पर हावी दोष के निवारण के लिए आज सार्थक प्रयास की जरुरत है। हैरत होती है कि सत्ता में रहते हुए राजनीतिक दल जिन नीतियों और योजनाओं को लागू करने की बात करती है, विपक्ष में होने पर उन्हीं का विरोध भी करती है। इस मामले में तमाम दलों में एकरुपता भी दिखाई देती है। राजनीति में सक्रिय राजर्षियो की प्रतिष्ठा का इससे सर्वाधिक हनन हुआ है। विभिन्न दलों को कायम रखते हुए विपक्ष को खाद पानी देने के बदले देशसेवा को बल देने की राजनीति होनी चाहिए। इसके लिए राजनीतिक दलों को मिल कर सत्ता में भागीदारी सुनिश्चित करना होगा। इस मामले नागालैंड में हुई नई पहल पर विचार करना समीचीन है।
चुनाव पर आश्रित इस लोकतंत्र में चुनाव आयोग पार्ट टाइम काम करने वाली संस्था बन कर रह गई। अपराधियों व भ्रष्टाचारियों को विधान भवन से दूर रखने की राजनीति खानापूर्ति की कवायद साबित हुई है। इस मामले में की गई कोशिशें सार्वजनिक जीवन में शुचिता और पारदर्शिता सुनिश्चित करने के बदले नई राजनीतिक अर्थव्यवस्था को गढ़ती प्रतीत होती है। विधान भवन तक पहुंचने वाले दुष्टों को रोकने की जिम्मेदारी क्या चुनाव आयोग की नहीं होनी चाहिए? क्या इस काम में सफलता मिली है? चुनाव की प्रक्रिया में इसके लिए मौलिक परिवर्तन की जरूरत है।
चुनाव प्रचार के क्रम में झूठ, भ्रम और भय का मायाजाल पसरता जाता है। जुमलेबाज़ी के बूते खड़े लोकतंत्र को सत्य और धर्म के मजबूत खूंटे के बूते खड़ा करना चाहिए। चुनाव की प्रक्रिया में आमूल परिवर्तन से ही ऐसा संभव हो सकेगा। मतदाताओं को इंटरनेट मीडिया पर अपनी बात रखने की छूट है। अपनी पसंद के प्रतिनिधि और राजनीतिक दल के विषय में मतदाता की बात का संज्ञान लेने हेतु चुनाव आयोग को बेहतर प्लेटफार्म विकसित करना चाहिए। लोगों की राजनीति में बढ़ती सक्रियता से इस लक्ष्य के अनुकूल वातावरण विकसित हो रहा है। अठारहवीं लोक सभा चुनाव के परिणाम पर आज हो रही चर्चा के केन्द्र में भी इसकी अहमियत है। मतदाताओं का मत जाहिर होने के बावजूद भी यह लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम की परिधि से बाहर है। आजादी के अमृत काल की संजीवनी इसके समायोजन में ही निहित है। तकनीकी के इस्तमाल से हवा में विलीन होने वाले 85 फीसदी पर रोक लगा कर केन्द्र सरकार ने उल्लेखनीय काम किया है। चुनाव प्रक्रिया में तकनीकी के बेहतर इस्तेमाल से मौलिक सुधार संभव है। इस पर कानून में संशोधन के लिए व्यापक विचार विमर्श होनी चाहिए।
केशवानंद भारती मामले में संसद की शक्तियों को बुनियादी सिद्धांत के नाम पर सीमित करने का ही प्रयास किया गया था। निर्वाचित संसद की शक्तियों को सीमित करने का यह अधिकार सुप्रीम कोर्ट को कैसे और कब मिला? आज न्यायमूर्तियों को इसका भी जवाब देना चाहिए। इसी तरह चुनावी बॉन्ड की आड़ में आम नागरिकों के मौलिक अधिकारों के हनन की बात पर सत्तारूढ़ दल कठघरे में है।
संविधान के बुनियादी ढांचे का निर्गुण निराकार भाव कहने मात्र से किसी ठोस सिद्धांत का सगुण साकार रूप नहीं धारण करता है। निश्चय ही संविधान की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध न्यायमूर्तियों की भावना का सम्मान करना चाहिए। ऐसे मौकों की कमी नहीं है जब न्याय पालिका ने देश को सही दिशा में बढ़ने में सहयोग किया हो। पिछले संविधान संशोधनों को कसौटी पर कसने का काम भी न्याय पालिका को करना चाहिए। आपातकाल में मौलिक अधिकारों पर रोक के निर्णय को 2017 में खारिज किया गया था। चुनावी बॉन्ड मामले में कोर्ट सरकार की त्रुटि दूर करने का मार्ग प्रशस्त करती है। संवैधानिक संस्थानों को तकरार के बदले सामंजस्य बेहतर करने की जरूरत है।