कर्नाटक के नतीजों के ठीक एक महीने पहले की बात है। वाराणसी के मुस्लिम बुद्धिजीवियों के एक समूह से चर्चा के दौरान इस सोच का संकेत मिला कि मुसलमानों को कांग्रेस की ओर लौटना होगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चुनाव क्षेत्र वाराणसी के बुद्धिजीवियों के उस समूह ने संकेत दिया कि वोट देने के लिए उनकी पहली पसंद कांग्रेस बनती जा रही है। स्थानीय चुनावों को छोड़ दें तो संसदीय हो या विधानसभाओं के चुनाव, अब मुस्लिम मतदाता कांग्रेस की ओर देखने लगा है।
कर्नाटक में जिस तरह के नतीजे आए हैं, उसमें यूं तो पिछड़ी जातियों के मतदाताओं, वोक्कालिग्गा समूह के साथ ही सबसे बड़ा योगदान मुस्लिम मतदाताओं का है। एक सर्वे एजेंसी के फौरी आंकलन के मुताबिक, पोलिंग बूथों पर पहुंचे राज्य के मुस्लिम मतदाताओं ने एकमुश्त कांग्रेस को वोट दिया है। सर्वे के मुताबिक, राज्य के करीब 82 प्रतिशत मुस्लिम वोटरों ने जहां एकमुश्त कांग्रेस को वोट दिया, वहीं जनता दल सेक्युलर को सिर्फ पंद्रह प्रतिशत का ही समर्थन मिला। कर्नाटक चुनाव में 65 सीटें ऐसी हैं जहां मुस्लिम वोटर प्रभावी हैं। इन 65 सीटों में से आधी सीटों पर कांग्रेस ने जीत दर्ज की है।
अल्पसंख्यक समुदायों का भरोसा जीतने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ‘सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास’ जैसे नारे के साथ लगातार काम कर रहे हैं। लेकिन सर्वे एजेंसी के आंकड़ों पर भरोसा करें तो पता चलता है कि इस नारे और संकल्प के बावजूद अल्पसंख्यक समुदाय का भरोसा जीतने में भारतीय जनता पार्टी बुरी तरह असफल साबित हुई है। कर्नाटक के विधानसभा चुनाव में राज्य के सिर्फ दो प्रतिशत मुस्लिम मतदाताओं ने ही भाजपा का साथ दिया है। यहां याद कर लेना चाहिए कि कर्नाटक में मुस्लिम वोटरों की हिस्सेदारी 16 प्रतिशत है। राज्य में इन दिनों पांच करोड़ इक्कीस लाख मतदाता हैं। इस हिसाब से देखें तो इसमें मुस्लिम वोटरों की संख्या 82 लाख के पार है।
उत्तर भारत के राज्यों मसलन बिहार और उत्तर प्रदेश में मुस्लिम वोटरों ने पिछली सदी के नब्बे के दशक से कांग्रेस से मुंह मोड़ना शुरू किया था। राजनीति की दुनिया में अतीत में ताकतवर रही कांग्रेस का बुनियादी समर्थक आधार मोटे तौर पर दलित, आदिवासी और मुस्लिम समुदाय था। इसके साथ ब्राह्मण समुदाय का थोक समर्थन होता था। लेकिन जब बिहार में लालू यादव और उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव का उभार हुआ तो मुस्लिम वोटर इन दोनों के इर्द-गिर्द इकट्ठा होने लगे। यही वह दौर है, जब भारतीय राजनीति में सांप्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता की बहस शुरू हुई तो मुस्लिम समुदाय अपनी कट्टरता के बावजूद कथित धर्मनिरपेक्ष खेमे का सबसे बड़ा समर्थक आधार बनता गया। जिन राज्यों में उसे कांग्रेस का विकल्प दिखा, वह कांग्रेस को छोड़ विशेषकर समाजवादी वैचारिक आधार का दावा करने वाले दलों और व्यक्तित्वों के पीछे चलने लगा।
एक दौर में अपनी सीमित सत्ता के बावजूद वामपंथी राजनीति धर्मनिरपेक्षता की सबसे बड़ी अलंबरदार रही। साफ है कि वह भी अपने प्रभाव वाले दिनों में मुस्लिम वोटबैंक का सबसे बड़ा आधार बनी रही। हालांकि जब उनकी तुलना में कहीं ज्यादा आक्रामक राजनीतिक धारा दिखी तो मुस्लिम वोट बैंक उसकी तरफ झुकता चला गया। जैसे पश्चिम बंगाल में यह धारा ममता बनर्जी की ओर झुकती गई। इसका असर यह हुआ कि ममता बनर्जी भी सत्ता की चाहत में नमाज पढ़ती हुई नजर आने लगीं। समाजवादी तो बरसों से गोल टोपी लगाकर रोजा-इफ्तार के बहाने धर्मनिरपेक्षता को परवान चढ़ाते ही रहे हैं।
बहरहाल कांग्रेस से मुस्लिम वोट बैंक के इस विचलन का असर यह हुआ कि कांग्रेस राजनीतिक रूप से कम से कम उन राज्यों में सिकुड़ती चली गई, जिन राज्यों में उसके बरक्स कहीं ज्यादा तुष्टिकरण केंद्रित कथित धर्मनिरपेक्ष दल मिलता चला गया।
लेकिन मुसलमानों का अब इन दलों से मोहभंग होने लगा है। जिसकी बानगी वाराणसी के मुस्लिम बौद्धिकों से चर्चा के दौरान दिखी। अब मुस्लिम तबका भी मानने लगा है कि कथित धर्मनिरपेक्षता के पैरोकार उसका वोट तो लेता रहता है, लेकिन वह उसके राजनीतिक हितों के लिए दबंगई से काम नहीं करता। इस बीच कांग्रेस ने पिछली सदी के नब्बे के दशक के पहले का चोला पूरी तरह उतार दिया है। तब वह धर्मनिरपेक्षता की राजनीति करती थी, अल्पसंख्यक तुष्टिकरण वाले कदम भी उठाती थी, लेकिन धर्म के विरोध में झंडा नहीं उठाती थी। इंदिरा गांधी के व्यक्तित्व की पहचान में उनके गले में पड़ी रूद्राक्ष की माला भी थी।
लेकिन आज की कांग्रेस के अगुआ भले ही कभी मठों में घूमें, कुर्ते के उपर जनेऊ धारण करें, हनुमान जी की पूजा करें। लेकिन वे हिंदू तुष्टीकरण की तुलना में मुस्लिम तुष्टिकरण ज्यादा स्वाभाविक ढंग से करते हैं। आज का कांग्रेसी नेतृत्व धर्मनिरपेक्षता के खांचे में हिंदुत्व का चेहरा फिट करते वक्त उसे उदार बताता है और दूसरी तरफ वह मुस्लिम कट्टरता का खुलकर बचाव करता है। एक दौर में प्रधानमंत्री रहते मनमोहन सिंह तो यहां तक कह चुके हैं कि देश के संसाधनों पर पहला हक अल्पसंख्यकों का ही है।
नागरिकता संशोधन कानून हो या कृषि कानून, कांग्रेस की अगुआई वाले कथित धर्मनिरपेक्षतावादी विपक्षी खेमे की सफलता कही जाएगी कि वह मुस्लिम मतदाताओं को बरगलाने में सफल रहा कि ये कानून उसके समुदाय के विरोधी हैं। इसका असर अब दिखने लगा है। कर्नाटक के चुनाव में कांग्रेस के पक्ष में एकमुश्त पड़े मुस्लिम वोट दरअसल मुस्लिम मिजाज को बदलते दिख रहे हैं।
कर्नाटक में कांग्रेस का मुस्लिम दांव रहा कामयाब, 9 मुस्लिम प्रत्याशियों ने हासिल की जीत कर्नाटक में कांग्रेस का मुस्लिम दांव रहा कामयाब, 9 मुस्लिम प्रत्याशियों ने हासिल की जीत
जैसे कांग्रेस ने प्रदेश में 15 मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दिया जिसमें से 9 उम्मीदवारों ने जीत हासिल की। जबकि जेडीएस ने 22 मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दिया और इनमें से एक भी जीत नहीं पाया। इसका संकेत साफ है कि पहले जहां कांग्रेस को छोड़कर मुस्लिम वोटर छोटे दलों की ओर चला जाता था, इस बार छोटे दल को छोड़कर एकतरफा कांग्रेस की ओर आ गया है।
दुनिया के हर देश में अल्पसंख्यक लोग तकरीबन एक ढंग से सोचते हैं। वो किसी एक ही पार्टी के साथ खड़े नजर आते हैं। भारतीय मुसलमान भी अगर इसी तरीके से सोचना शुरू कर चुके हैं, तो कांग्रेस उम्मीद कर सकती है। लेकिन उन दलों के लिए खतरा भी है, जिनके अस्तित्व का बड़ा आधार मुस्लिम वोट बैंक है। दावा किया भी जाने लगा है कि गुवाहाटी से लेकर चौपाटी तक और कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक मुस्लिम वोटरों ने तकरीबन एक तरीके से सोचना शुरू कर दिया है। कर्नाटक के नतीजे उसी दिशा में मुस्लिम वोटरों के आगे बढ़े कदम हैं। हिजाब विवाद पर जिस तरह से कांग्रेस ने मुस्लिम समुदाय का समर्थन किया तो बदले में मुस्लिम वोटरों ने उसे फिर से अपना महबूब मान लिया है।