अगस्त 2022 में नीतीश कुमार ने रातोंरात एनडीए का दामन छोड़ राजद का हाथ थाम लिया और विपक्षी नेता तेजस्वी यादव को उपमुख्यमंत्री की शपथ दिलवा दी। कांग्रेस को साथ लेकर महागठबंधन की सरकार बना ली। तब उन्हें उम्मीद थी कि उनको विपक्ष से प्रधानमंत्री का उम्मीदवार आसानी से बना लिया जाएगा। इसमें उनके राजनीतिक गुरु रहे लालू प्रसाद यादव भरपूर मदद करेंगे। उनकी साफ छवि के पीछे कदमताल करती हुई कमजोर पड़ी कांग्रेस पार्टी आसानी से खड़ी हो जायेगी। इस तरह विपक्ष का सिरमौर बनकर वह बीजेपी को महज सौ सीटों के अंदर समेट कर सत्ता से बाहर कर देंगे।
लेकिन राजनीति तो जोखिम का खेल है। नीतीश कुमार ने जोखिम तो उठाया, लेकिन जोखिम का मतलब जरूरी नहीं कि बिसात पर जो दांव चला जाए वह सटीक ही बैठ जाए। ऐसी ही कुछ गड़बड़ विपक्षी एकता को लेकर होती नज़र आ रही है। नीतीश कुमार के सपने भंग होते दिख रहे हैं। बिहार में बीजेपी ने मजदूरों के साथ तमिलनाडु में हुई ज्यादती को मुद्दा बना रखा है। उत्साही उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने चेन्नई जाकर इस बीच तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम के स्टालिन की जन्मदिन की पार्टी में शिरकत की है। नीतीश आशंका से चौंक उठे हैं। उन्होंने तेजस्वी की गैर मौजूदगी में बीजेपी नेताओं के साथ विधानसभा कार्यालय में बंद कमरे की बैठक की है। तेजस्वी की व्यक्त राय से इतर जाकर उन्होंने बीजेपी की राय के अनुकूल काम करना शुरू किया है। इसे लेकर बिहार की राजनीति में फिर से बदलाव का जिक्र होने लगा है।
द्रविड़ राजनीति के केंद्र तमिलनाडु से लोकसभा की 39 सीटें हैं। गैर बीजेपी नेताओं के साथ चेन्नई में मीटिंग स्टालिन की पार्टी को विपक्षी एकता की धुरी बनाने की चाहत में की गई है। स्टालिन समर्थकों की समझ है कि डीएमके ने देशभर में पांव जमा चुकी बीजेपी को सबसे तगड़ी चुनौती दे रखी है। तमिलनाडु से बीजेपी अब तक एक भी लोकसभा सीट जीत नहीं पाई है। यहां कायम बीजेपी विरोधी लहर की वजह से बीजेपी को जमे जमाए राज्य कर्नाटक तक में मुश्किल का सामना करना पड़ रहा है। आरएसएस के लिए जमीनी समर्थन वाले केरल, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में भी बीजेपी को प्रत्याशित सफलता नहीं मिल पा रही है। कर्नाटक में 28, केरल में 20, आंध्र में 25 और तेलंगाना में 17 लोकसभा सीटें हैं। इस तरह स्टालिन की दक्षिण भारतीय राजनीति के लपेटे में लोकसभा की सवा सौ सीटें आती हैं।
ऐसे में नीतीश कुमार के उस कैलकुलेशन को समझना जरुरी है जिसके बूते उन्होंने दस सालों से केंद्र में मजबूती से कायम बीजेपी को हिला देने का हौसला पाला और विपक्षी एकता के सिरमौर बनकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पार्टी को महज सौ सीटों के अंदर समेट लेने का सपना देख बैठे।
राजनीतिक उथलपुथल मचाने में पाटलिपुत्र धुरी रही है। 2013 में एक चर्चा यह भी थी कि प्रधानमंत्री का उम्मीदवार बनाए गए नरेंद्र मोदी को यूपी में काशी की जगह बिहार में बीजेपी के लिए अजेय रही पटना की सीट से लोकसभा पहुंचाया जाए। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इसके लिए तैयार होने के बजाय एनडीए छोड़ यूपीए का दामन थामना कबूल कर लिया। अब तक विधानसभा तक का चुनाव लड़ने से बचने वाले नीतीश कुमार अपनी तिकड़म के बल पर सत्रह साल से बिहार के मुख्यमंत्री हैं।
बिहार से लोकसभा की 40 सीटें हैं। विपक्ष की गणित से इन सीटों के साथ कांग्रेस संग लालू नीतीश की जोड़ी का असर पड़ोसी राज्य झारखंड, पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश में फलीभूत हो सकता है। झारखंड से 14 सीटें हैं। यहां हेमंत सोरेन के नेतृत्व में महागठबंधन की सरकार ने बीजेपी का हौसला पस्त कर रखा है। भ्रष्टाचार के बड़े से बड़े इल्जाम के बावजूद झारखंड की सरकार को बर्खास्त कर पाना बीजेपी के लिए दिवास्वप्न बना हुआ है।
नीतीश कुमार ने बिहार कोटे की राज्यसभा सीट जेडीयू के झारखंड प्रदेश अध्यक्ष को देकर पर्याप्त इशारा कर रखा है। पश्चिम बंगाल से 42 सीटें हैं। इन्हें मुख्यमंत्री ममता बनर्जी हर हाल में जीतना चाहती हैं। कांग्रेस से उनके छत्तीस का आंकड़ा है। कांग्रेस अगर विपक्षी एकता के लिए त्याग करती है, तब ही तृणमूल उसमें फिट बैठेगी। शायद यही नीतीश कुमार के लिए मुस्कुराने की वजह रही होगी।
इसी तरह सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश से 80 सांसद आते हैं। प्रतिपक्ष में समाजवादी पार्टी है। जेडीयू का समाजवादी पार्टी में विलय करने का फैसला पुराना है। वह नीतीश कुमार के विपक्षी एकता की धुरी बनाए जाने के फैसले के साथ अमल में आ सकता है। सपा नेता अखिलेश यादव ने कांग्रेस और बसपा को हाशिए पर धकेल कर अपनी जगह बनाई है। पारिवारिक संबंधी लालू प्रसाद यादव यदि उन्हें नीतीश कुमार को प्रधानमंत्री बनाने में जुटने के लिए कहें, तो संभव है कि बात बन जाए। सामजवादी एकता के आसरे नीतीश कुमार को ओडिशा में नवीन पटनायक और कर्नाटक में देवगौड़ा को पटा लेने की उम्मीद है। ओडिशा से लोकसभा के 21 सांसद हैं। उसका विस्तार तेलंगाना और छत्तीसगढ़ तक है।
छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल पड़ोसी मध्य प्रदेश तक में बीजेपी को बांधकर मुश्किल में फंसा सकते हैं। छत्तीसगढ से 11 और मध्यप्रदेश से लोकसभा की 29 सीटें हैं। 48 लोकसभा सीटों वाले महाराष्ट्र के भीष्म पितामह शरद पवार की एनसीपी ने कांग्रेस को अंदरूनी चुनौती दे रखी है। महाराष्ट्र, गुजरात और गोवा में एनसीपी कांग्रेस को साफ करने में बीजेपी की मदद कर रही है या यूपीए का पार्टनर बन कांग्रेस के साथ है, यह राजनीति का घाघ से घाघ जानकार भी बता नहीं सकता। पवार की तिकड़म वाली राजनीति से कांग्रेस और उद्धव ठाकरे समान रूप से परेशान हैं। इस दुष्चक्र में फंसी कांग्रेस विपक्ष से प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी किसी गैर कांग्रेसी लड़ाके को बना सकती है। नीतीश कुमार की उम्मीद को इससे बल मिलता है।
लेकिन उम्मीद पर अमल के फैसले के साथ ही नीतीश कुमार राजनीतिक झंझावात में फंसे नजर आ रहे हैं। एक तो जब से नीतीश कुमार ने पाला बदला है कांग्रेस की ओर से उन्हें अपेक्षित तवज्जो नहीं मिल रही है। न ही विपक्ष के नेता पहले की तरह उनको भाव दे रहे हैं और न ही भरोसेमंद मान रहे। विपक्षी एकता की नाउम्मीदी के बीच कांग्रेस ने खुद में उम्मीद जगाने की कोशिशें तेज कर रखी है। लोकतांत्रिक तरीके से बड़े बदलाव पर चलकर खुद को नए सिरे से खड़ा करने का फैसला कर लिया है। कांग्रेस पार्टी पर लगातार 25 सालों से वंशवाद को पोषित करने का इल्जाम था, उससे पीछा छुड़ाने की कोशिश हुई है। बुजुर्ग मल्लिकार्जुन खड़गे कांग्रेस पार्टी के नए अध्यक्ष हैं। सोनिया गांधी राजनीतिक रिटायरमेंट की ईच्छा जता चुकी हैं। कांग्रेस पार्टी में जान फूंकने के लिए राहुल गांधी कड़ी मशक्कत कर रहे हैं। दक्षिण से उत्तर भारत की साढ़े तीन हजार किलोमीटर से ज्यादा की पदयात्रा की है।
राजद और कांग्रेस के साथ गठबंधन सरकार के छह महीने के कार्यकाल में लालू यादव की पहल पर नीतीश कुमार की मुश्किल से एकबार सोनिया गांधी से मुलाकात हो पाई है। न तो नए कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे, न ही पिछली बार प्रशंसक रहे राहुल गांधी ने नीतीश कुमार को मिलने का कोई वक्त दिया है। इसके उलट नीम चढ़े करैला के अंदाज में विपक्ष से प्रधानमंत्री उम्मीदवार बनने की चाह रखने वाले तेलंगाना के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव ने पटना पहुंचकर नीतीश को अपनी इच्छा बता दी है।
साफ है कि 2024 में विपक्ष से प्रधानमंत्री का उम्मीदवार होने की इच्छा पालने वाले नीतीश कुमार अकेले नहीं हैं। बल्कि अब एक अनार सौ बीमार वाली हालत है। भला पहली बार कठिन मेहनत करते नजर आ रहे राहुल गांधी को पीछे करने हेतु वंशवादी कांग्रेसी कैसे मान सकते हैं। मौका आने पर दावेदारी में ममता बनर्जी, अखिलेश यादव, सुप्रिया सुले, के. चंद्रशेखर राव, एमके स्टालिन, एचडी देवगौड़ा या कोई अन्य राजनेता चुप क्यों बैठेंगे। वह भी तब जब संयुक्त मोर्चा की सरकार में जनसमर्थन वाले देवगौड़ा को हटाकर आई के गुजराल को और 40 सांसदों के समर्थन से चार महीने तक चंद्रशेखर के प्रधानमंत्री होने का रिकॉर्ड मौजूद है।
उपेंद्र कुशवाहा का जेडीयू छोड़ना नीतीश कुमार के लिए कितना बड़ा सियासी झटका?उपेंद्र कुशवाहा का जेडीयू छोड़ना नीतीश कुमार के लिए कितना बड़ा सियासी झटका? फिलहाल विपक्ष का नेता बनने के लिए उभरे अनेकों नामों के बीच अपने आप को इकलौता मानने वाले नीतीश का नाम गुम होता जा रहा है। अब तो उन्हें भी लगने लगा है कि विपक्ष की अगुवाई करने की उनकी मंशा कहीं धरी की धरी न रह जाए।