प्रकाश मेहरा
नई दिल्ली: निजी क्षेत्र को दबाने और निर्यात बाजारों को खतरे में डालने के बजाय हमें लचीले, संपन्न बाजारों को अपना लक्ष्य बनाना चाहिए। अपने करियर की शुरुआत में पंजाब के एक किसान से मैंने पूछा था कि भू-जल स्तर जब लगातार नीचे जा रहा है, तब आप धान क्यों बोते हैं ? जवाब मिला था, ‘आप जो चाहेंगे, मैं वही बोऊंगा, आप बस मुझे खरीद का उचित आश्वासन दीजिए।’ उसी वर्ष हरियाणा में मैंने एक पोल्ट्री किसान और उससे सामान खरीदने वाले व्यापारी से पूछा था कि सरकारी नीतियों ने उनके सहयोग को कैसे सुविधाजनक बनाया है? जवाब मिला कि सरकार ने एक ही काम सही किया कि वह इस सबसे बाहर रही!
किसान आंदोलन की पृष्ठभूमि पर नज़र!
राष्ट्रीय राजधानी में किसान आंदोलन की पृष्ठभूमि में काम कर रहे दो बिंदुओं को यहां रेखांकित किया जा सकता है: पहला, कृषि में सरकार की हर जगह जरूरत नहीं है और दूसरा, सुनिश्चित आय समय के साथ किसानों की जोखिम उठाने की क्षमता को घटा देती है। फसल विविधीकरण को लेकर पंजाब के किसानों की जड़ता जगजाहिर है। वे न्यूनतम समर्थन मूल्य से लाभान्वित होते है, पर बाजार में मौजूद अवसरों से चूक जाते हैं। पिछले साल ही, अधिकांश चावल उत्पादक राज्यों में गैर-बासमती की कीमतें न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से अधिक हो गईं, पर पंजाब, हरियाणा में किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य पर डटे रहे, जिससे उनका फायदा सिमट गया।
पंजाब में मुफ्त बिजली नीति उत्पादन
यहां राजनीति ते का सवाल भी बड़ा है। पंजाब में मिलने वाली मुफ्त बिजली नीति से भी उत्पादन लागत घट जाती है, जिससे धान के रकवे को भी बढ़ावा मिलता है। मुफ्त बिजली नीति को छूने की किसी भी राजनीतिक पार्टी ने हिम्मत नहीं दिखाई है। किसानों ने विविधता संबंधी प्रस्ताव भी ठुकरा दिया है। यहां एक मिसाल है, गन्ना लाभकारी मूल्य कानून, जिसके तहत चीनी मिले किसानों को भुगतान करती हैं, सरकार नहीं। ऐसी किसी व्यवस्था को व्यापक बनाने पर कोई विमर्श नहीं है, इसके बजाय आंदोलनकारी किसान 22 फसलों के लिए समान कानूनी समर्थन मांग रहे हैं। एक अन्य मांग एमएसपी एसपी की गणना के लिए एमएस स्वामीनाथन फार्मूले को लागू करने की है, जिसके मुताबिक, किसानों को खेती की व्यापक लागत (सी2) से 50 प्रतिशत अधिक मिलना चाहिए। यहां एमएसपी की गारंटी से मांग और आपूर्ति संबंधी बाजार सिद्धांत विफल हो जाता है। एमएसपी में अतार्किक वृद्धि निर्यात को महंगा कर देती है। उदाहरण के लिए, सोयाबीन के उच्च एमएसपी ने हमें सोयामील निर्यात से वंचित कर दिया है। यदि हम इतनी ऊंची एमएसपी तय करते हैं, तो अव्यावहारिक कीमतों के लिए तैयार रहना होगा। फसल के ऊंचे समर्थन मूल्य से ऊंची कीमतें पैदा होंगी।
यह भी ध्यान रहे, 86 प्रतिशत भारतीय किसान छोटे और सीमांत श्रेणी के हैं और कृषि वस्तुओं के स्वयं उपभोक्ता हैं, इन्हें कितनी महंगाई मंजूर होगी? वास्तव में, उपभोक्ताओं और किसानों, दोनों की चिंताओं को संतुलित करना होगा, पर क्या किसानों की आय में सुधार के लिए गारंटीशुदा एमएसपी सही उपाय है?
अनुपात से ज्यादा एमएसपी अव्यवहारिक
अनुपात से ज्यादा एमएसपी अव्यावहारिक है। निजी क्षेत्र को दबाने और निर्यात बाजारों को खतरे में डालने के बजाय हमें लचीले, संपन्न बाजारों को अपना लक्ष्य बनाना चाहिए। सरकारें बाजारों की जगह नहीं ले सकती हैं, उन्हें बाजार में अनुकूल माहौल को बढ़ावा देना होगा, ताकि किसानों के लिए लाभ सुनिश्चित किया जा सके। उपभोक्ता और उद्योग की मांगों को पूरा करने के लिए देश को चावल और गेहूं के मुकाबले तिलहन, मोटे अनाज, मक्का और दालों जैसी फसलों को प्राथमिकता देते हुए अपने अनाज भंडार को व्यवस्थित करना होगा। इन फसलों के लिए एमएसपी वृद्धि जरूरी है, जो तिलहन और दलहन के बढ़ते आयात को देखते हुए भी महत्वपूर्ण हो गया है।
समर्थन मूल्य की रूपरेखा पर पुनर्विचार
व्यापारियों को सभी फसलों के लिए एमएसपी का भुगतान करने के लिए बाध्य करने ने का प्रयास महाराष्ट्र में 2018 में अप्रभावी साबित हुआ। हां, बाजार में ऐसे लोगों को नियंत्रित करना जरूरी है, जो कीमतों को अपने लाभ के लिए नीचे या ऊपरले जाते हैं, जबकि उन्हें चिंता उत्पादकों की करनी चाहिए। कई उत्पाद हैं, जो एमएसपी की वजह से भारत में महंगे हैं, पर जिनका सस्ते में आयात हो रहा है, इसलिए किसानों और उपभोक्ताओं के अनुकूल व्यापार नीतियां महत्वपूर्ण हैं। नीति निर्माताओं को समर्थन मूल्य की रूपरेखा पर पुनर्विचार करना चाहिए।