प्रकाश मेहरा
ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक के लंबे समय से निजी सचिव रहे आईएएस अधिकारी वी के पांडियन द्वारा स्वैच्छिक रिटायरमेंट लेकर सरकार का हिस्सा बनने की खबर जिस वक्त सुर्खियों में आई. लगभग उसी समय मध्य प्रदेश में डिप्टी कलक्टर निशा बांगरे का इस्तीफा मंजूर होने की सूचना भी मीडिया में साया हुई। निशा को विधानसभा चुनाव लड़ना है और अपने इस्तीफे की मंजूरी के लिए उन्होंने बाकायदा आला अदालतों का दरवाजा खटखटाया क्योंकि राज्य सरकार उन्हें सेवामुक्त करने को तैयार न थी। विडंबना यह है कि जिस विधानसभा सीट से कांग्रेस प्रत्याशी के तौर पर उनके चुनावी मैदान में उतरने की अटकले लगाई जा रही थीं, वहां से पार्टी किसी अन्य का नाम घोषित कर चुकी है। बाल पांडियन और निशा के इन फैसलों से कई सवाल खड़े होते हैं, जिन पर गंभीरता से गौर करने की जरूरत है।
आखिर प्रशासनिक अमले में सियासत के प्रति इतना अनुराग क्यों बढ़ रहा है? ये जनसेवा से प्रेरित फैसले है या लोभ-शोभ की परिणति ? यदि उन्हें राजनीति में इतनी ही दिलचस्पी थी, तो प्रशासन में इतने वर्ष खर्च क्यों किए? सनद रहे, संविधान निर्माताओं ने विधायिका और कार्यपालिका से अलग-अलग अपेक्षाएं बांधी हैं। “वैसे, यह कोई पहली बार नहीं है कि प्रशासनिक क्षेत्र के लोग सीधे राजनीति में कूद पड़े हैं, आजादी के वक्त से ही विभिन्न क्षेत्रों के लोग सरकार का हिस्सा बनते रहे हैं, और देश-समाज को इसका लाभ भी मिला है। मगर वे अपने-अपने क्षेत्र के माहिर लोग होते थे और उन्हें किसी बड़े राजनेता का करीबी होने मात्र का लाभ नहीं मिल जाता था। उनकी काबिलियत ने सरकारों को बाध्य किया कि वे उनसे साथ आने का आग्रह करें। फिर ऐसे उदाहरण विरले ही कायम भी होते थे। मगर पिछले कुछ दशकों में सत्ताधीशों गठजोड़ ने और नौकरों के न सिर्फ राजनीति को विद्रूप किया है, बल्कि शासन-प्रशासन में भ्रष्टाचार की जड़े इसके कारण गहरी हुई हैं।
खासकर पिछले दरवाजे से सत्ता में पहुंचने की सहूलियत ने इस दुरभिसंधि को मजबूत किया है। ऐसे में, निशा ने जो रास्ता अख्तियार किया है, उसे औचित्यपूर्ण ठहराया जा सकता है, क्योंकि उन्होंने जनता के बीच जाकर सत्ता-सदन में प्रवेश का मार्ग चुना। फिर भी यह सवाल पूछा ही जाएगा कि क्या वर्षों से जनसेवा में जुटे स्थानीय कार्यकर्ताओं पर नौकरशाहों की वरीयता लोकतंत्र की मूल भावना के अनुरूप है? निस्संदेह, हमारा संविधान तय मानदंडों के तहत अपने हरेक नागरिक को अवसर की स्वतंत्रता देता है, और इस लिहाज से अफसरों के राजनीति में आने में कुछ गलत नहीं है, मगर इन दिनों जिस तरह नौकरशाहों में कृपापात्र बनने और पुरस्कृत होने की प्रवृत्ति गहराती जा रही है, उसमें पांडियन जैसी तरक्की दीगर महत्वाकांक्षी अफसरों को सत्ताधीशों से सांठ-गांठ के लिए प्रेरित करेगी। यह कोई छिपी हुई बात नहीं है कि देश की प्रशासनिक संस्थाएं किस कदर साख के संकट से जूझ रही है? उनके बारे में राजनीतिक आकाओं के इशारे पर काम करने की धारणा ठोस होने लगी है।
यह न तो देश के हित में है और न लोकतंत्र के। ऐसे में, पांडियन और निशा जैसे उदाहरणों से नौकरशाही की विश्वसनीयता को और खरोंचें आएंगी। इसलिए, देश को सचमुच प्रशासनिक सुधार की जरूरत है, ताकि विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका से संविधान ने जो उम्मीदें पाली हैं, उन पर वे खरी उतर सकें और हम आदर्श लोकतंत्र के रूप में दुनिया के लिए नजीर बनें।