नई दिल्ली। किसी भी राजनीतिक दल की मजबूती के लिए मुखर या कट्टर समर्थकों का होना जरूरी है। कांग्रेस हो या भाजपा, दोनों की मजबूती में कट्टर समर्थकों का बड़ा योगदान है। जो पार्टियां समर्पित समर्थक नहीं जुटा पाती हैं, वह ज्यादा चल भी नहीं पाती हैं। कट्टर समर्थक विरोधी पार्टियों को मुंहतोड़ जवाब देने के भी काम आते हैं। भारत में दलों के ऐसे समर्थकों पर कम ही अध्ययन हुए हैं और आंकड़ों का भी अभाव है। पेश है, विगत दिनों समर्थकों पर किए गए एक सर्वेक्षण पर आधारित एक्जीक्यूटिव एडिटर प्रकाश मेहरा की खास रिपोर्ट
भारत में राजनीतिक पक्षधरता के विचार
भारत में चुनाव अपने अस्थिर नतीजों के लिए भी जाने जाते हैं। एक चुनाव से दूसरे चुनाव के बीच बड़े उतार-चढ़ाव के बाद मतदाताओं की पसंद का अनुमान लगाना कठिन हो जाता है। ऐतिहासिक रूप से भारत में पार्टी ब्रांड कमजोर रहा है और आधिकारिक पार्टी सदस्यता भी कम ही रहती है। कोई आश्चर्य की बात नहीं कि भारतीय राजनीति की चर्चाओं में पार्टी के धुर या कट्टर समर्थकों की पक्षधरता प्रमुखता से सामने नहीं आई है।
भारत में राजनीतिक पक्षधरता के विचार पर बहुत कम ध्यान दिया गया है। फिर भी भाजपाई, कॉमरेड या कांग्रेसी जैसे शब्दों का उपयोग अक्सर किया जाता है, ताकि पार्टी के प्रति किसी की वफादारी को दर्शाया जा सके। जब भारत में चुनाव होने जा रहे हैं, तब यह देखना जरूरी है कि यहां राजनीतिक पक्षधरता कितनी गहरी जड़ें जमा चुकी है।
पक्षधरता के क्या मायने
पक्षधरता को मापने के लिए लोगों से अनेक सवाल पूछे गए हैं। आप किस पार्टी से जुड़ाव रखते हैं? अलग-अलग पार्टियों के बारे में कैसा महसूस करते हैं। कई दशकों के शोध से पता चलता है कि दलों के साथ पक्षपातपूर्ण लगाव समय के साथ आश्चर्यजनक रूप से स्थिर रहा है, तब भी जब दल या व्यक्ति अपनी नीतिगत स्थिति बदलते हैं। ये स्थाई जुड़ाव ही राजनीतिक क्षेत्र में कई नतीजों को प्रभावित करते हैं। यहां तीन चीजों का विशेष रूप से उल्लेख किया जाना चाहिए।
सबसे पहले, कट्टर समर्थकों को वफादार मतदाता माना जाता है। इसका अर्थ है कि पार्टियां निश्चिंत रह सकती हैं कि ये मतदाता चुनाव के दिन सामने आएंगे और उनका समर्थन करेंगे। यह पहलू चुनावों को अधिक अनुमान लगाने लायक बनाता है और पार्टियों को मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए अल्पकालिक, लोकलुभावन उपायों पर खर्च करने के बजाय दीर्घकालिक नीतियां विकसित करने पर ध्यान देने का मौका देता है।
दूसरा, लोगों का मानना है कि अगर उनकी पार्टी किसी मुद्दे को अनुकूल तरीके से देखती है, तो उन्हें भी वैसे ही विचार रखना चाहिए। इसलिए पार्टियां अपने लोगों के बीच किसी निश्चित राय को आकार देने में भूमिका निभाती हैं।
तीसरा, पक्षधरता यह तय करती है कि लोग प्राप्त सूचना की व्याख्या कैसे करते हैं। जो लोग पार्टियों से जुड़ाव महसूस करते हैं, वो वही करते हैं, जो उनकी पार्टी करती है। ऐसे पक्षधर अक्सर अपनी पार्टी के बारे में नकारात्मक जानकारी को नजरअंदाज करना चाहते हैं और अन्य पार्टियों के बारे में नकारात्मक जानकारी पर जोर देना चाहते हैं। यह पूर्वाग्रह वस्तुनिष्ठ या ईमानदार मूल्यांकन में बाधा डालता है और समूहों के बीच शत्रुता भी बढ़ा सकता है। इससे अविश्वास और बढ़ सकता है, राजनीतिक विचार-विमर्श बाधित हो सकता है।
भारत में पक्षधरता मायने रखती है!
भारत में पहली नजर में पक्षधरता कोई मायने नहीं रखती है। ऐसे साक्ष्य हैं, जिनसे पता चलता है कि अनेक मतदाता किसी एक पार्टी के प्रति वफादार नहीं रहते हैं। हमने 2022 के राज्य विधानसभा चुनावों से पहले हिमाचल प्रदेश में ऐसे अनेक उदाहरण देखे हैं। सबसे यादगार बात यह है कि शिमला ग्रामीण जिले में महिलाओं का एक समूह अपनी व्यक्तिगत पार्टी प्राथमिकताओं पर चर्चा करने के लिए लालायित था और उनकी राय उनके परिवार के बाकी सदस्यों से अलग थी। अलग- अलग राजनीतिक निष्ठा वाले परिवारों में शादी करने के बाद भी अनेक महिलाएं अपनी पक्षपातपूर्ण राय पर कायम रहती हैं।
यही दृष्टिकोण व्यापक स्तर पर दिखाई दे रहा है। प्रत्येक चुनाव चक्र में, सर्वेक्षण में शामिल उत्तरदाताओं से पूछा गया कि क्या कोई राजनीतिक दल है, जिससे आप विशेष रूप से नजदीकी महसूस करते हैं? सभी चुनावों में, औसतन लगभग 30 – प्रतिशत उत्तरदाताओं ने पक्षपातपूर्ण लगाव व्यक्त किया। खैर, बीते 50 वर्ष की अवधि में भारतीय राजनीतिक व्यवस्था कांग्रेस के अधीन एकल-पार्टी प्रभुत्व से गठबंधन शासन की ओर आई थी और फिर भाजपा के प्रभुत्व वाली दलीय व्यवस्था में वापस आ गई है।
मतदाताओं का किस पार्टी के प्रति विश्वास!
यहां बड़ा सवाल उठता है कि मतदाता किन पार्टियों के प्रति विशेष रूप से निकटता महसूस करते हैं? भारत में बड़ी संख्या में पार्टियां चुनाव लड़ती हैं, पर उनमें से कुछ ही एक से अधिक चुनावी चक्र में टिक पाती हैं। वर्ष 1962 और 2019 के बीच भारत में राष्ट्रीय चुनाव लड़ने वाली अधिकांश पार्टियों ने केवल एक आम चुनाव में भाग लिया। बेशक, कुछ पार्टियों ने टिकने की ताकत दिखाई है और उनमें से कई ने खुद को एक ब्रांड के रूप में स्थापित कर लिया है। आज देश में सबसे प्रमुख कांग्रेस और भाजपा हैं। 2019 के एनईएस डाटा से संकेत मिलता है कि भारत भर में आधे से अधिक साफ तौर पर उजागर समर्थक कांग्रेस (19.2 प्रतिशत) या भाजपा (41.2 प्रतिशत) से करीबी महसूस करते हैं। किसी राज्य विशेष में पैर जमाने वाली अन्य पार्टियां जैसे उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी या पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस के भी पक्षधर बहुत हैं। वैसे इन पार्टियों के खाते में राष्ट्रीय स्तर पर पांच प्रतिशत पक्षधर या वफादार भी नहीं हैं।
2022 में हिमाचल प्रदेश के डाटा को अगर देखें, 3,200 उत्तरदाताओं के बीच पक्षधरता का समग्र स्तर 52 प्रतिशत था। नतीजों से पता चला कि महिलाओं, अनुसूचित जाति के सदस्यों और सीमित मीडिया एक्सपोजर वाले लोगों में पक्षपातपूर्ण लगाव व्यक्त करने की संभावना कम थी।
मतदाताओं के आंकड़ों के अनुसार
बहरहाल, 2019 के आम चुनावों में मतदाताओं के आंकड़ों के अनुसार, लगभग 61 प्रतिशत पक्षधर मतदाताओं ने 2014 से अपनी वोट पसंद को दोहराया। अनेक मतदाता हैं, जो खुले रूप से किसी पार्टी के प्रति वफादारी का प्रदर्शन करते हैं। लगभग 86 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने उसी पार्टी का समर्थन किया, जिसके प्रति वे खुद को वफादार महसूस करते थे। ऐसी पक्षधरता देश की लोकतांत्रिक जीवंतता का संकेत हो सकती है, पर इसके नकारात्मक पक्ष भी हैं। भारत के बाहर कई अध्ययनों से पता चलता है कि किसी न किसी पार्टी के प्रति पक्षधरता बढ़ रही है और बीच का रास्ता सिकुड़ रहा है। ऐसे में, क्या कट्टर समर्थकों के बीच शत्रुता बढ़ रही है?
कांग्रेस और भाजपा समर्थकों में शत्रुता!
वैसे, भारत में दो मुख्य ध्रुवों – कांग्रेस और भाजपा के समर्थकों के बीच शत्रुता दर्शाने का व्यवस्थित डाटा नहीं है। केवल 26.4 प्रतिशत भाजपा समर्थकों और 20.5 प्रतिशत कांग्रेस समर्थकों ने अन्य पार्टियों के प्रति गहरी नापसंदगी का इजहार किया है। यह दर्शाता है कि राजनीतिक ध्रुवीकरण शायद उतना व्यापक नहीं है, जितना आमतौर पर माना जाता है। सर्वेक्षण के मौजूदा आंकड़ों से संकेत मिलता है कि बढ़ती पक्षधरता अधिक सूचित, संबद्ध मतदाताओं में तब्दील हो सकती है, जो अपने निर्वाचित नेताओं से अधिक जवाबदेही की मांग कर सकती है। बहरहाल, कोई शक नहीं कि कट्टर समर्थकों से पार्टियों को लाभ होता है। इन दिनों भाजपा अपने कट्टर समर्थकों से लैस है, तो वह भविष्य के प्रति ज्यादा आश्वस्त हो सकती है। वैसे कट्टर समर्थकों को मात्र पक्षपात से अलग स्वस्थ सियासी जुड़ाव की ओर लाने के लिए सूचनाओ का और ज्यादा मुक्त प्रवाह चाहिए, ताकि देश मे पहले से ज्यादा खुली राजनीतिक बहस सुनिश्चित हो सके।
कट्टर समर्थक या पक्षधर होने के बड़े सियासी फायदे
कट्टर समर्थक किसी भी पार्टी के लिए पूंजी हो सकते हैं। ऐसे समर्थक पार्टी को मजबूत करते हैं और जीत में निर्णायक साबित होते हैं। ताजा सर्वेक्षण के मौजूदा आंकड़ों से संकेत मिलता है कि बढ़ती पक्षधरता अधिक सूचित, संबद्ध मतदाताओं में तब्दील हो सकती है, जो अपने निर्वाचित नेताओं से अधिक जवाबदेही की मांग कर सकती है। कट्टर समर्थक कई बार आम लोगों के काम करने या करवाने में भी आगे रहते हैं और इसका उन्हें जमीनी स्तर पर हर तरह से लाभ भी मिलता है।
पक्षधर या समर्थक से राजनीति को होता है कुछ नुकसान
कट्टर पक्षधर नुकसानदायक भी होते हैं। यह गौर करने बात है कि ज्यादातर समर्थकों ने राजनीति के चर्चित विषयों के प्रति लगाव नहीं दर्शाया है। भारत के पास जी20 की अध्यक्षता, जनसंख्या वृद्धि और वर्तमान आर्थिक हालात जैसे मुद्दे दलों के खांटी वफादारों के लिए खास मायने नहीं रखते हैं। एक नकारात्मक पहलू यह भी है कि किसी भी पार्टी के प्रति ज्यादा गहरा समर्थन विचार-विमर्श वाले लोकतंत्र में बाधा पैदा कर सकता है। लोग बहस से बचना शुरू कर सकते हैं।
भारत में बड़ी संख्या में पार्टियां चुनाव लड़ती हैं, पर उनमें से कुछ ही एक से अधिक चुनावी चक्र में टिक पाती हैं। वर्ष 1962 और 2019 के बीच भारत में राष्ट्रीय चुनाव लड़ने वाली अधिकांश पार्टियों ने केवल एक आम चुनाव में भाग लिया। बेशक, कुछ पार्टियों ने टिकने की ताकत दिखाई है और उनमें से कई ने खुद को एक ब्रांड के रूप में स्थापित कर लिया है। आज देश में सबसे प्रमुख कांग्रेस और भाजपा हैं। ज्यादातर दलों का आधार एक या दो राज्यों तक सिमटा हुआ है। नए राजनीतिक दलों को अगर मजबूती से राष्ट्रीय स्तर पर आगे आना है, तो इसके लिए समर्पित समर्थकों की जरूरत है।