प्रो. (डॉ.) आर.पी. गुप्ता
लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनता मतदान द्वारा सांसद, विधायक एवं त्रिस्तरीय पंचायती व्यवस्था में अपने जन प्रतिनिधि को चुनती है।
चुने हुए जनप्रतिनिधियों से देश को अपेक्षा रहती है कि ये जन सरोकार के मुद्दों पर विचार-विमर्श कर निति-निर्धारण का कार्य करेंगे लेकिन जब इन माननीयों का रिश्ता अपराध जगत से जुडऩे लगता है तो जनमानस का विास टूटता है।
भारत में 80 के दशक से राजनीति का अपराधीकरण हो गया। आज चुनाव में धनबल एवं बाहुबल का धड़ल्ले से इस्तेमाल किया जाता है। राजनीतिक दलों द्वारा आपराधिक छवि वाले व्यक्ति को धनबल एवं बाहुबल के कारण टिकट दिया जाता है। अब राजनीति में सेवा भाव से आने वाले लोगों की संख्या कम देखने को मिलती है। भारतीय राजनीति में कई ऐसे दौर आए हैं, जब अपराधियों को राजनीतिक दलों द्वारा संरक्षण देकर माननीय बनाया गया है। अपराधियों को राजनीति में बढ़ावा मिलने से समाज की शांति, सौहार्द भी बिगड़ा है। इसलिए राजनीति का अपराधीकरण हो या अपराधी का राजनीतिकरण, दोनों ही राष्ट्र एवं लोकतंत्र के लिए घातक हैं। राजनीति का अपराधीकरण की समस्या लोक सभा एवं विधानसभा तक ही सीमित नहीं है। इसके गहरी जड़ें नगर निकाय और पंचायत चुनाव तक फैल चुकी हैं। परिणामस्वरूप अपराधी प्रवृत्ति के लोग चुनाव लड़ते हैं, धन और बाहुबल के दम पर जीतते भी हैं।
1999 में एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) द्वारा दायर जनहित याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने मई, 2002 में ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए राष्ट्रीय, राज्यस्तरीय एवं स्थानीय चुनाव में उम्मीदवार को नामांकन भरने के दौरान अपनी आपराधिक, वित्तीय और शैक्षणिक जानकारी विस्तृत ढंग से सार्वजनिक करने का निर्देश दिया था। बाद में कोर्ट के आदेश को विधेयक के माध्यम से दिसम्बर, 2002 को पलट दिया गया था। इसे पुन: न्यायालय में चुनौती दी गई जिस पर सर्वोच्च अदालत ने मार्च, 2003 को अपने फैसले में विधेयक को असंवैधानिक बताते हुए पूर्व के आदेश को लागू कर दिया था।
लिली थॉमस बनाम भारत सरकार के चर्चित मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 8 (4) को असंवैधानिक घोषित करते हुए फैसला सुनाया था कि किसी भी सदन का कोई भी सदस्य अपराध में दोषी पाया जाता है तथा 2 वर्ष और उससे अधिक समय के लिए कारावास की सजा मिलती है तो तत्काल प्रभाव से उसकी सदस्यता समाप्त हो जाएगी और 6 वर्ष तक चुनाव लडऩे के लिए अयोग्य होगा। 2018 में लोक प्रहरी बनाम भारत संघ के मामले में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के आलोक में राजनीतिक पार्टयिों द्वारा अपराधियों को मदद पर रोक लगाने की दिशा में निर्देश दिए थे। फिर पब्लिक इंटरेस्ट फाउंडेशन बनाम भारत संघ सितम्बर, 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में कहा था कि चुनाव लडऩे से पूर्व उम्मीदवारों को उनके विरु द्ध चल रहे आपराधिक मामलों की जानकारी चुनाव आयोग के साथ-साथ प्रिंट एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को देकर सार्वजनिक करनी होगी। इस पर कोई पहल नहीं होने के कारण पुन: 14 फरवरी, 2020 को सुप्रीम कोर्ट ने राजनीति में बढ़ते अपराधीकरण के संबंध में याचिका पर सुनवाई करते हुए अपने फैसले में कहा था कि सभी राजनीतिक दलों को आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों की सूची सार्वजनिक करनी होगी। प्रत्याशी चयन करने के 72 घंटों के भीतर इस संबंध में चुनाव आयोग को भी सूचित करना होगा। कोर्ट के आदेश पर अमल नहीं करने वाले राजनीतिक दलों पर न्यायालय की अवमानना के अंतर्गत चुनाव आयोग कानूनी कार्रवाई कर सकता है।
सही है कि जनता अपने प्रतिनिधियों का चुनाव स्वेच्छा से करती है, लेकिन यह भी सत्य है कि राजनीतिक दलों की पसंद दागी उम्मीदवार रहते हैं। इसलिए जनता के चुनने से पूर्व ही राजनीतिक दल उम्मीदवार के रूप में ऐसे लोगों को चुन कर टिकट दे देते हैं। अपराध के रास्ते राजनीति में आए नेता राष्ट्र की बात तो दूर अपने पार्टी के प्रति भी समर्पित नहीं होते। यूपी, बिहार समेत कई अन्य राज्यों में विभिन्न दलों के उम्मीदवारों की सूची देखने से पता चलता है कि जनता के प्रतिनिधि नहीं, बल्कि अपराधियों के प्रतिनिधि का चुनाव हो रहा है। इस परिस्थिति में जनता के समक्ष कोई विकल्प नहीं होता है। 2013 से पूर्व भारत में प्रत्याशियों को नकारने की कोई व्यवस्था नहीं थी, लेकिन 2013 से नोटा का विकल्प उपलब्ध होने के बाद अंतर देखने को मिला है। समस्या के समाधान के लिए राजनीतिक दलों को आगे आना होगा। उम्मीदवार का चयन करते समय बस जीत की जिद नहीं होनी चाहिए। उन्हें पार्टी हित से ऊपर उठकर भारतीय लोकतंत्र को श्रीसंपन्न करने पर विचार करना चाहिए।