प्रकाश मेहरा
नई दिल्ली: खुफिया एजेंसियां भारत की एक मजबूत ताकत रही हैं। सार्वजनिक चकाचौंध से दूर, उन्होंने देश की सीमाओं को सुरक्षित करने में मदद की है; भारतीयों की जान बचाई है, पड़ोस में भारतीय हितों की सुरक्षा सुनिश्चित की है, विरोधियों का सफल मुकाबला किया है, और राजनेताओं के लिए शांति व युद्ध में से समझदारी भरा विकल्प चुनने की राह बनाई है। मगर उनकी सफलताएं गुमनाम रह जाती हैं और विफलताएं सुर्खियां बन जाती हैं।
कनाडा में हरदीप सिंह निज्जर की हत्या में भारतीय एजेंटों के शामिल होने के आरोपों के बाद गुरपतवंत सिंह पन्नू की हत्या की साजिश में भारतीय अधिकारियों की संलिप्तता संबंधी आरोप से हमारी खुफिया एजेंसियों पर अच्छा प्रभाव नहीं पड़ रहा। बेशक, ये सभी फिलहाल आरोप हैं, पर इस विश्लेषण के लिए यदि हम एक बार मान लेते हैं कि इसमें कुछ हद तक सच्चाई है। तव हम उन संशयवादियों के डर को पुष्ट करेंगे, जो मानते हैं कि अब खुफिया एजेंसियों पर अत्यधिक निर्भरता, न्यायिक दखल का सहारा, कानून का उल्लंघन और राज्य एजेंसियों के उपयोग-दुरुपयोग जैसी चीजें व्यवहार में प्रकट हो रही हैं। मगर सवाल यह है कि जब एक बार ऐसा कुछ हो जाता है, तब फिर कोई कैसे यह सुनिश्चित कर सकता है कि ऐसी घटनाओं से प्रतिष्ठा पर आंच न आए और सुधार के जरूरी उपाय कर लिए जाएं। इस संदर्भ में यहां पांच विचार दिए गए हैं।
पहला, लक्षित शिकार की कार्रवाइयां हमेशा आखिरी विकल्प के तौर पर होनी चाहिए, भले ही भौगोलिक स्थिति और खतरे की प्रकृति कुछ भी हो। यह कहना निस्संदेह नासमझी होगी कि ऐसा कभी नहीं होना चाहिए, पर सिस्टम को शत्रुओं की क्षमता को कमजोर करने के लिए तमाम विकल्प आजमाने चाहिए, खासतौर से जब सीमा-पार किसी खतरे से निपटना हो। दूसरा, सत्ता- संतुलन का आकलन। निस्संदेह, ऐसे अभियानों से बच निकलना संभव है, जहां भारत के पास उस देश की तुलना में कहीं अधिक क्षमता या ताकत है, जहां लक्ष्य मौजूद है। मगर ऐसे कार्यों को उन देशों में महज लागत व लाभ का आकलन करके मंजूरी नहीं देनी चाहिए, तो अधिक ताकतवर हैं या बड़ी ताकतों से जुड़े हैं और हमें बड़ी कीमत चुकाने को मजबूर करने की क्षमता रखते हैं।
तीसरा उपाय, गोपनीयता की अनिवार्यता को इस सोच के साथ संतुलित करना कि जैसे-जैसे भारत का रुतबा बढ़ता जाएगा, वैसे-वैसे दोस्त व दुश्मन, दोनों तरह की सरकारों व अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में छानबीन की ताकत भी बढ़ती जाएगी। इसका अर्थ यह है कि इस प्रकृति के फैसले में खुफिया तंत्र के बाहर के लोगों को भी शामिल किया जाए और कूटनीतिक रहे लोगों को भी। ऐसा इसलिए, क्योंकि जो लोग सुरक्षा पर ध्यान लगाते हैं, वे अपने काम के कारण व्यापक दृष्टिकोण नहीं रख पाते, जबकि जो लोग द्विपक्षीय या आपसी संबंधों के प्रबंधन में शामिल रहे हों, वे किसी खास रिश्ते के तमाम पहलुओं के बारे में जानते हैं व व्यापक नजरिया दे सकते हैं।
चौथा, खुफिया एजेंसियों की विधायी जवाबदेही, क्योंकि ‘रॉ’ का जिक्र कानूनी किताबों में नहीं है। भारत दुनिया के बड़े लोकतंत्रों में एक अपवाद माना जाता है, क्योंकि यहां खुफिया समिति जैसा संसदीय तंत्र नहीं है, जो ऐसी एजेंसियों पर नजर रख सके। गोपनीयता जरूरी है, मगर यह सुनिश्चित करने के लिए कई अन्य तरीके भी हैं। कांग्रेस सांसद मनीष तिवारी ने एक बार भारतीय एजेंसियों के कामकाज व उनकी शक्तियों के प्रबंधन को लेकर एक निजी विधेयक पेश किया था। इससे इन पर निगाह रखने का मौका मिलेगा व गलतियों को रोकने में मदद मिलेगी।
आखिरी उपाय, खुफिया एजेंसियों में कार्मिक प्रबंधन बहुत सावधानी से होना चाहिए। खुफिया अभियानों में अर्द्ध-प्रशिक्षित लोगों की नियुक्ति से ऑपरेशन को लेकर बुरा अनुभव होता है। देखा जाए, तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकर अजीत डोभाल के पास अधिकार भी है और इन लंबित सुधारों पर काम करने की क्षमता भी। यह जरूरी बदलाव का सही वक्त भी है। इससे एक अधिक शक्तिशाली भारतीय सुरक्षा तंत्र बनाने में मदद मिलेगी, जो बाहर से मिलने वाले बड़े और नए खतरों से कहीं अधिक कुशल तरीके से निपटने में सक्षम होगा।
देश पर किसी तरह के आरोप की नौबत न आए, इसके लिए समय के अनुरूप शक्तिशाली सुरक्षा तंत्र बनाने की जरूरत है– प्रकाश मेहरा