कौशल किशोर
एक बार फिर सावरकर और गांधी के नाम पर विवाद शुरु हुआ। इसकी वजह अंतिम जन का वीर सवारकर अंक है। इसमें देश की आजादी में इनके अतुलनीय काम की तुलना की गई है। धार्मिक सहिष्णुता और हिंदुत्व पर गांधी और सावरकर के विचारों के अलावा अटल बिहारी वाजपेई से लेकर कन्हैया त्रिपाठी तक दर्जन भर विद्वानों के लेख हैं। इसके पहले गांधी मार्ग एक अंक प्रकाशित कर इसकी पृष्ठभूमि रचती है। सावरकर को महात्माजी का हत्यारा साबित करने के लिए एम.एफ. हुसैन की पेंटिंग में लपेट कर तबियत से पत्थर उछाला गया। इक्कीसवीं सदी में गांधी को ईशा और बुद्ध का अवतार साबित करने की रणनीति को हवा देने वाले मेरे अमरीकी मित्र जेम्स डगलस की किताबों के बूते ऐसा मुमकिन नहीं है। न ही कपूर कमीशन की रिपोर्ट में इस गुत्थी को सुलझाने की क्षमता है। इसके बाद यह सावरकर और केतकर को न्याय दिलाने वाले महाभारत का प्रतीक होता है।
डगलस ने संसद में पचास सालों से मौजूद कपूर कमीशन के रिपोर्ट की तहों से बाराब्बास खोजने का काम किया था। कंगारू कोर्ट सजने लगी है। जेहादी के नाम से कुख्यात इनके साथियों को सजा देने के लिए अंग्रेजों ने अंडमान में सेल्यूलर जेल बनाया। वहां पर सावरकर सिर तन से जुदा करने वाले जेहादियों से परिचित होते हैं। इनकी सक्रियता आज फिर सुर्खियों में है। सत्यान्वेषण का दावा करने वाले इनके समर्थक मौके पर सिर तन से जुदा करने का साधन साबित होते हैं। इन जेहादियों के बदले भारत और पाकिस्तान के मुसमान सानिया मिर्जा को आदर्श मानते हैं।
ईश्वर को सत्य बताने वालों को गांधी सत्य को ही ईश्वर मानने का पाठ पढ़ाते हैं। उन्नीसवीं सदी के अन्तिम कालखंड में उन्होंने लंदन में वकालत की पढ़ाई किया था। वह गोपाल कृष्ण गोखले और दादा भाई नौरोजी का युग था। बीसवीं सदी के पहले दशक में सावरकर छात्रवृत्ति पाकर वहां पहुंचे थे। फिर ब्रिटेन की भारतीय राजनीति पर श्यामजी कृष्ण वर्मा का इंडिया हाउस और वीर सावरकर का दौर चला। इसी माहौल में गांधी ने उनकी ओर रुख किया था। डगलस लंदन की जमीन पर गांधी के कदमों के साथ ही उन दिनों सुर्खियों में रहे कर्नल वायली के हत्यारे मदन लाल धींगरा के बारे में भी विस्तार से लिखते हैं। उन्होंने गांधी की शान में सावरकर हाउस में हुई दावत का भोजन साथ मिलकर पकाने की शर्त का जिक्र किया है। उनकी दोस्ती के बारे में यह भूलने योग्य नहीं है। लाल किला के न्यायालय में पीठासीन अधिकारी आत्मा चरण इस बात की पुष्टि होने पर सावरकर को बरी करते हैं।
वर्मा व सावरकर की मुलाकात के जिक्र में त्रुटि है। श्यामजी कृष्ण वर्मा के बदले श्यामा प्रसाद मुखर्जी का नाम अंकित है। इस भूल के बूते अशोक पाण्डेय गांधी स्मृति और दर्शन समिति के उपाध्यक्ष विजय गोयल की शिकायत करते हैं। हालांकि इस एक पन्ना से आगे वह पढ़ नहीं सके। ऐसी दशा में शंकर शरण की गति 44 पन्ना आगे की बनी रहेगी। उमेश चतुर्वेदी ईमानदारी से अटल बिहारी वाजपेई का पुनर्पाठ करते। लेकिन श्रीरंग गोडबोले के हाथों सवारकर अन्याय का शिकार हुए। एक साल से लंबी कैद को उन्होंने कुल 5 दिनों में समेट दिया है। फिर 1950 में पाकिस्तान के नेता लियाकत अली खान की शान में बिना किसी अपराध के कैद पर चुप्पी खलती है। नेशनल हेराल्ड केस में राजनीतिक खुन्नस की आज बात हो रही, एक दशक बीतने पर चीन युद्ध के दौर में फिर सावरकर शिकार होते हैं। इसकी चर्चा के बिना अन्याय का ब्यौरा पूरा नहीं होता। लोकमान्य के पौत्र केतकर की कैद से इस नफरत की राजनीति पर परदेदारी की गुंजाइश नहीं रहती।
इस अकथनीय सत्य का ताप झेल कर ही कोई सावरकर और गांधी संबंध पर आज टिप्पणी करने का वाजिब अधिकारी होता है। इस समझ के साथ ओंकार मित्तल जैसे विद्वान गांधी मार्ग के संपादक को वह अंक वापस लेने का सुझाव देते हैं। डगलस और जोसफ डोक का दौर खत्म होने पर एक दिन ऐसा होगा जरूर। गोडबोले जैसे प्रवक्ता के बूते सवारकर के समर्थक राम पुनियानी और अशोक पांडेय का मुकाबला कर रहे हैं। नेहरु के वंशजों को गलती का अहसास कराना तो दूर की कौड़ी है। आठ महीने से कैद निर्दोष केतकर को रिहा करने के बदले कोर्ट भी सरकार के सामने गिड़गिड़ाती रही। अविनाश दास और जुबैर मियां के दौर में गिड़गिड़ाने वाले बब्बर शेर की तरह दहाड़ रहे हैं। जस्टिस चंद्रचूड़ के वैध शक्ति प्रदर्शन के साथ जस्टिस सूर्य कांत और पारदीवाला की अवैध टिप्पणियां सुर्खियों में है।
न्यायमूर्तियों ने अपने पूर्वजों की कमी दूर करने का प्रयास किया है। गांधी की हत्या के दोषी गोपाल गोडसे, विष्णुपंत करकरे व मदन लाल पाहवा सजा पूरी होने के दो साल बाद भी जेल से रिहा नहीं किए गए। इस पर बोल कर केतकर दुख झेलते हैं। नमक सत्याग्रह में सक्रिय केसरी, मराठा व तरुण भारत के संपादक को भुला नहीं जा सकता है। नाथूराम गोडसे की हत्या योजना उन्होंने महीनों पहले राज्य के मुख्यमंत्री बी.जी. खेर से साझा किया था। इसकी जांच के साथ गांधी हत्याकांड में सरकार की भूमिका का पता लगाने शास्त्री सरकार ने 1965 में राज्यसभा के सदस्य गोपाल स्वरुप पाठक की अध्यक्षता में कमीशन गठित किया। अगले साल इंदिरा गांधी की सरकार में पाठक कानून मंत्री बने। कमीशन की अध्यक्षता सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जीवन लाल कपूर को सौंपा गया।
इसके बाद लाल बहादुर शास्त्री पेंशन बहाल करते हैं। इंदिरा गांधी अवसान पर शोक संदेश और शताब्दी वर्ष में संवेदना व्यक्त कर अपना पक्ष रखती हैं। इस धर्मभीरुता के बदले गलतियों को सुधार कर प्रायश्चित करना चाहिए। आत्मा चरण, शास्त्री और इन्दिरा की तरह कपूर, डगलस और पांडेय न्याय की ठेकेदारी का दावा कर अनधिकार चेष्टा करते हैं।
सरकारी और गैर सरकारी मठ की यह जंग गांधी मार्ग और अंतिम जन के पन्नों पर है। लोहिया की बात ध्यान में रखने से इन दोनों से इतर कुजात गांधीवादी का महत्व समझ में आता है। पादरी डोक ने दक्षिण अफ्रीका में गांधी की जीवनी लिख दुनिया को गिरि प्रवचन के व्याख्या का असली हकदार दिया था। सालीबारोहण के लिए बाराब्बास जैसा खूंखार चरित्र खोजने की शर्त उसी परंपरा में मिलता है। डगलस इसके लिए सावरकर को हत्यारा साबित करते हैं। नुपुर शर्मा मामले में जस्टिस सूर्यकांत और पारदीवाला जो काम मौखिक रुप से करते वही जस्टिस कपूर ने सावरकर मामले में लिखित रुप में किया था।
संसद में कपूर कमीशन की रिपोर्ट पर चर्चा नहीं हुई। 30 सितंबर 1969 से देश इंतजार कर रहा है। इस कमीशन का काम गांधी हत्याकांड पर केतकर के बयान की सच्चाई तथा इसमें राज्य और केन्द्र सरकार की स्थिति स्पष्ट करना था। महाराष्ट्र सरकार जी.एन. वैद्य और आर.एस. कोतवाल तथा केन्द्र की सरकार के.एस. चावला और बी.बी. लाल के माध्यम से पक्ष भी रखती। वहां सावरकर का पक्ष रखने वाला कोई वकील नहीं था।
कपूर कमीशन के प्रवक्ता अशोक पांडेय इसका पहला पन्ना भी नहीं पढ़ सके हैं। यदि उन्हें इसके संदर्भ की शर्तों का ज्ञान होता तो इस तरह दावे नहीं करते। ऐसी ही बातों पर जस्टिस रमन्ना कंगारू कोर्ट का जिक्र करते हैं। जीएसडीएस इसी बीच सावरकर रचित दर्जन भर किताबें भी छापती है। गांधी और सावरकर पर संकलन अधूरा रह गया है। भविष्य में इसे पूरा करना चाहिए। अयोध्या पर्व जैसे आयोजन इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।