प्रकाश मेहरा
नई दिल्ली। इस सूची को जितने गौर से, जितनी बार देखिए, उतनी बार आपके दिमाग में नए सवाल उभरेंगे। इन प्रश्नों के उत्तर कैसे मिलेंगे? क्या अदालत अपनी निगरानी में कोई समिति बनाना चाहेगी? संसार के सबसे बड़े लोकतंत्र में हर संवेदनशील मुद्दे के लिए अदालतों का मुंह जोहना भी तो स्वस्थ परंपरा नहीं।
देश में आम चुनावों की घोषणा से दो दिन पहले निर्वाचन आयोग ने चुनावी बॉन्ड का वह ब्योरा आम कर दिया, जिसे भारतीय स्टेट बैंक ने उसे सौंपा था। क्या यह विवरण कोई बड़ा सियासी बवंडर बरपा कर सकता है? क्या चुनाव परिणामों पर इसका असर पड़ सकता है?
इन सवालों का जवाब ढूंढ़ने से पहले एक बार समूचे घटनाक्रम को समझ लेना जरूरी है। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की सरकार ने अपने पहले सत्ता-काल में चुनावी चंदे को ‘पारदर्शी’ बनाने के लिए इस बॉन्ड योजना की शुरुआत की थी। इस योजना की अधिसूचना जारी होने से पहले ही बवाल मच गया था। विपक्ष का आरोप था कि सरकार सुनियोजित तरीके से भारतीय जनता पार्टी की मदद करना चाहती है। चुनाव संबंधी मामलों में पिछले कई बरसों से रुचि रखने वाली संस्था ‘एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स’ ने तमाम सवाल उठाते हुए आला अदालत का दरवाजा खटखटा दिया था। सुप्रीम कोर्ट को किसी फैसले तक पहुंचने में सात साल लग गए, तब तक बॉन्ड योजना को लागू हुए छह बरस बीत चुके थे। यह बात अलग है कि इसी बीच 15 फरवरी को आला अदालत ने इस योजना को असांविधानिक बताते हुए खारिज कर दिया था, लेकिन तब तक गंगा और यमुना में बहुत पानी बह चुका था।
स्टेट बैंक ने चुनाव आयोग को दिया विवरण!
पिछली 14 मार्च को जो आंकड़े आए हैं, उनके पीछे की समूची कहानी अभी उजागर नहीं हुई है। इसकी बड़ी वजह यह है कि स्टेट बैंक ने चुनाव आयोग को दिए गए विवरण को दो भागों में विभक्त कर दिया। पहले में बॉन्ड खरीदने वाले का नाम है, दूसरे में लाभान्वित होने वाली पार्टी का। इन दोनों आंकड़ों के बीच के सूत्र नदारद हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि सर्वोच्च न्यायालय ने स्टेट बैंक ऑफ इंडिया को नोटिस जारी कर पूछा है कि आपने खरीदे और वितरित किए गए बॉन्ड के क्रमांक क्यों नहीं जारी किए? यहां यह भी गौरतलब है कि अदालत ने यह जवाब-तलब चुनाव आयोग की पहल पर किया है। आयोग ने इस फैसले से जुड़े मुद्दों पर स्पष्टीकरण मांगने के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि स्टेट बैंक ऑफ इंडिया क्या दलील देता है और उस पर न्यायालय का क्या रुख होता है?
क्या आने वाले दिनों में कुछ नए रहस्य उजागर होने वाले हैं?
हो सकता है, ऐसा हो, पर अभी तक जो कहानी सामने में आई है, वह भी रोमांच भरा कथानक रचने का पर्याप्त माद्दा रखती है। जो लोग यह उम्मीद किए बैठे थे कि उन्हें उन प्रतिष्ठित औद्योगिक घरानों के नाम दिखाई पड़ेंगे, जिन पर यह आरोप लगाए जाते रहे हैं कि वे सरकार द्वारा जान-बूझकर लाभान्वित किए जाते हैं, उन्हें निराश होना पड़ा। जिन दो शीर्ष उद्योग हस्तियों का नाम सबसे ज्यादा चर्चा में आता है, वे भी इस सूची में सिरे से लापता हैं। ऐसे में, सवाल उठना लाजिमी है कि 12 अप्रैल, 2019 से 15 फरवरी, 2024 के बीच जिन 1,250 से अधिक कंपनियों ने 12,155.51 हजार करोड़ रुपये के चुनावी बॉन्ड खरीदे, वे क्या करती हैं? उनके व्यावसायिक हित क्या हैं?
किस कंपनी ने कितने बॉन्ड्स लगाए!
इस सूची में पहला नंबर फ्यूचर गेमिंग ऐंड होटल सर्विसेज म्यांमा प्राइवेट लिमिटेड का है। इसने 1,368 करोड़ रुपये के बॉन्ड खरीदे। इसी तरह, मेघा इंजीनियरिंग ऐंड इन्फ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड की ने 966 करोड़ और क्विक सप्लाई चेन प्राइवेट लिमिटेड ने 410 करोड़ रुपये इन बॉन्ड्स में लगाए थे। ये तीनों कंपनियां आयोग द्वारा जारी विवरणी में क्रमशः पहले से तीसरे नंबर पर हैं। ये कंपनियां अब तक आम आदमी के विमर्श में शायद ही कभी आई हों। सर्वाधिक निवेश करने वाली फ्यूचर गेमिंग ऐंड होटल सर्विसेज प्राइवेट लिमिटेड लॉटरी चलाती है और इसका मुख्यालय तमिलनाडु के कोयंबटूर में है। इस कंपनी के संस्थापक सैंटियागो मार्टिन हैं, जो लॉटरी किंग और मार्टिन लॉटरी के नामों से जाने जाते हैं।
मार्टिन की कहानी से समझें
मार्टिन की कहानी हैरतअंगेज है। वह शुरुआती दिनों में म्यांमार में छोटा-मोटा काम किया करते थे। बाद में स्वदेश लौटकर 1988 में लॉटरी के व्यवसाय की शुरुआत की और उसके बाद तरक्की की सीढ़ियां उनके लिए छोटी पड़ गईं। श्रीमान मार्टिन कई बार विवादों के घेरे में आए हैं। क्या वह लोकतंत्र के इतने समर्थक हैं कि उन्होंने आम आदमी की जेब से लॉटरी के लिए निकले धन से 1,300 करोड़ रुपये से अधिक के बॉन्ड खरीदकर राजनीतिक पार्टियों को दे दिए ?
कंपनियों और शख्सियतों का सहारा!
कहा जा रहा है कि सबसे बड़े पांच बॉन्ड खरीदारों में से तीन ने ईडी अथवा आयकर की कार्रवाई के बाद बॉन्ड खरीदे। यहां यह भी गौरतलब है कि शुरुआती 20 दानदाताओं ने 5,830 करोड़ रुपये के बॉन्ड खरीदे, जो कि कुल बिक्री का 48 फीसदी है। ये बॉन्ड किन दलों को दिए गए? इस विवरण से एक और तथ्य उजागर होता है कि कुछ उद्योगपतियों ने अपने नाम से भी बॉन्ड खरीदे। इनमें से एक नाम किन्हीं मोनिका का भी है। कौन हैं यह? क्या बॉन्ड की खरीद और वितरण में नामवरों ने दूसरी कंपनियों और शख्सियतों का सहारा लिया ?
किस पार्टी ने कितने प्रतिशत बॉन्ड खरीदे!
अब तक हासिल आंकड़ों के अनुसार, कुल दान का 47.5 प्रतिशत भाजपा, 12.6 फीसदी तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस को 11.1 प्रतिशत हिस्सा हासिल हुआ है। तेलंगाना की के चंद्रशेखर राव की अगुवाई वाली भारत राष्ट्र समिति 1,215 करोड़ रुपये हासिल कर चौथा और बीजू जनता दल 776 करोड़ रुपये स्वीकार करके अपने लिए पांचवां स्थान सुरक्षित करने में सफल रहा।
राजनीतिक दलों में बीजेपी के बाद कौन?
अगर आप किसी से भी पूछें कि भारतीय जनता पार्टी के बाद दूसरे नंबर का राजनीतिक दल कौन सा है, तो अधिकतर लोग यही जवाब देंगे- कांग्रेस। आश्चर्य देखिए कि कांग्रेस तीसरे नंबर पर है, जबकि सिर्फ पश्चिम बंगाल में हुकूमत कर रही ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस दूसरे नंबर पर है। सवाल यह भी उठता है कि तेलंगाना और ओडिशा जैसे अपेक्षाकृत छोटे राज्यों में शासन कर रहे दलों को चौथा और पांचवां स्थान कैसे हासिल हुआ ? अभी तक आई जानकारी के आधार पर आरोप लगाए जा रहे हैं कि सर्वाधिक निवेश उन व्यावसायिक घरानों ने किया, जिन्हें सरकारी मदद की सबसे ज्यादा दरकार थी। क्या यह निजी हित साधने के लिए खर्चा गया धन है ? तय है कि इस सूची को जितने गौर से, जितनी बार देखिए, उतनी बार आपके दिमाग में नए सवाल उभरेंगे। इन प्रश्नों के उत्तर कैसे मिलेंगे? क्या अदालत अपनी निगरानी में कोई समिति बनाना चाहेगी? संसार के सबसे बड़े लोकतंत्र में हर संवेदनशील मुद्दे के लिए अदालतों का मुंह जोहना भी तो स्वस्थ परंपरा नहीं।
अंत में, शुरुआत में उठाए गए सवाल का जवाब। यह देखना दिलचस्प होगा कि विपक्ष इसे चुनावी मुद्दा बना पाएगा या नहीं, क्योंकि चंदे की बंदरबांट में सब शामिल थे और ऐसे में सिर्फ अपनी कमीज उजली बताने का साहस संजोना मुश्किलें खड़ी कर सकता है। अफसोस ! सियासत के हम्माम में सभी एक से हैं।