हरिशंकर व्यास
विकास, स्पेस्क्राफ्ट, सुपर कंप्यूटर, औजारों-वस्तुओं के उपयोग और उपभोग की तमाम आधुनिकताओं-भौतिकताओं का सुख और संतोष है मगर ये सब तब बेमानी हो जाते हैं, जब मनुष्य की पशुताओं का जार्ज ऑरवेल का ‘एनिमल फार्म’ रियलिटी लगता है। जब विक्टर ह्यूगो का ‘ले मिजरेबल्स’ सभ्यता का खोखलापन खोलता है या अलेक्सांद्र सोल्जेनित्सिन का ‘गुलाग आर्किपेलागो’ मनुष्य जनित मनुष्य दमन की पिशाची दास्तां बताता है।..सभ्यता से पहले इंसान सचमुच सहज-सरल स्वभाव का प्राणी था। जबकि सभ्यता के बाद? अहंकार, झूठ, पाप, युद्ध, नरसंहार, गुलाम बनने-बनाने और शोषण जैसी प्रवृत्तियों के दसियों स्वभाव लिए रावण है!
प्रलय का मुहाना-28: यों पृथ्वी है मनुष्य जन्मदाता और पोषक। मगर वक्त और अनुभवों का निष्कर्ष अलग है। वक्त प्रमाणित करते हुए है कि मनुष्य और पृथ्वी दोनों की निर्धारक ‘सभ्यता’ है! अपनी प्राकृतिक अवस्थाओं से मनुष्य और प्रकृति जो है सो है, लेकिन उसे अच्छा या बुरा बनाने की जिम्मेवार ‘सभ्यता’ है। और सभ्यता क्या है? मनुष्य खोपड़ी की एक खुराफात। प्राकृत मनुष्य को भस्मासुर बना देने वाला आविष्कार। उस नाते मनुष्य प्रकृति, उसके पृथ्वी के परिवेश में इवोल्यूशन आदि का महत्व सामान्य है। उससे अधिक सभ्यता के ताने-बाने का महत्व है। आखिर सभ्यताजन्य आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस में ही तो वह भस्मासुरी व्यवहार करता हुआ है।
चार बिंदु विचारणीय हैं। एक, सभ्यता से मनुष्य का क्या बना? दो, किन परिस्थितियों ने मनुष्य में ‘सभ्यता’ का शगल पैदा किया? कौन मूल प्रवर्तक थे और अब प्रायोजक हैं? तीन, पहली सभ्यता की फाउंडेशन कैसी थी? चार, क्या सभ्यता के भंवर से कभी बाहर निकलना मनुष्यता के लिए संभव है?
सभ्यता का भावार्थ, उद्देश्य मनुष्य को सभ्य बनाना है। तभी थीसिस है कि अंधयुग से मनुष्य के बाहर निकलने का मोड़ है सभ्यता। सभ्यता से मनुष्य सभ्य हुआ। पर क्या सचमुच? पृथ्वी के मौजूदा आठ अरब लोगों की जिंदगी के सत्य पर गौर करें? क्या वह हिंसा, जंगखोरी, वैमनस्य, शोषण, भूख, लूट, भ्रष्टाचार, दमन, भेदभाव और असमानताओं के व्यवहार और अनुभवों में जिंदगी जीता हुआ नहीं है? यदि ऐसा है तो वह सभ्य व्यक्ति, सभ्य समाज, सभ्य जीवन है या सभ्यता के नाम का धोखा है। छलावा है!
तभी सत्य कटु है। सभ्यता का अर्थ है मनुष्य का मशीनीकरण। मनुष्य डीएनए की पशु क्षमताओं का सामूहिकीकरण। सचमुच मनुष्य के आदिम स्वभाव की जंगली वृत्तियों के विस्तार, विकास और उपयोग का नाम है सभ्यता। मनुष्य की वैयक्तिक बुद्धि को बांधने का नाम है सभ्यता। मनुष्य की अलौकिक जैविक स्वतंत्रता के पंखों को काटने का नाम है सभ्यता। मनुष्य को पशु बनाए रखने का नाम है सभ्यता। पशु हिंसा को एटमी हिंसा में परिवर्तित करने का नाम है सभ्यता। वैयक्त्तिक भय को सामूहिक चिंताओं में बदलने का नाम है सभ्यता। वैयक्तिक भूख का समाज, समुदाय, देश-दुनिया की अंतहीन भूख में रूपांतरण है सभ्यता। ऑर्गेनिक-सहज जिंदगी को हिंसक, जंगली, वहशी, राक्षसी, अंधविश्वासी और मूर्ख बनाने का नाम है सभ्यता! लोगों को बांटने का नाम है सभ्यता। लोगों को असमान बनाने का नाम है सभ्यता। प्राकृत शिकारी होमो सेपियन को शोषक-संग्रहक बनाने का नाम है सभ्यता। वैयक्तिक अहम को सामुदायिक अहम में कन्वर्ट करने की प्रक्रिया है सभ्यता। भोले-कच्चे दिमाग को जंगली, बर्बर, गुलामी की विभिन्न सरंचनाओं में बुनने का नाम है सभ्यता। मनुष्य की भूख, भय, असुरक्षा और अहम को नए रूप, नए परिवेश देने और वैश्विक बनाने का नाम है सभ्यता! ओझे-पुजारी-कबीलाई सरदारों को भगवान बनाने का नाम है सभ्यता। अंधविश्वासों, जादू-टोनों को ज्ञान-शिक्षा में बदलने की प्रक्रिया का नाम है सभ्यता। पर्यावरण, पृथ्वी और मनुष्य अस्तित्व को प्रलय की और धकेलने का नाम है सभ्यता!
क्या विश्वास नहीं होता? 21वीं सदी के भूमिकृत गांव में मानव सभ्यता का यह पोस्टमार्टम भला कैसे गले उतरे? तब जरा अपने आप पर गौर करें। अपने समाज और देश को जांचें। वैश्विक प्रवृत्तियों को समझें। पृथ्वी के आठ अरब लोगों के पूर्वजों के इतिहास व मौजूदा दशा-दिशा को बूझें। यह रियलिटी समझ आएगी कि इंसानी (और सभ्यता) मष्तिष्क पूरी तरह न्यूरोंस के उस संरचनात्मक ताने-बाने तथा वृत्तियों की उन व्यवस्थाओं के अधीन है, जिनमें इंसान पशुओं की बजाय मनुष्यों का शिकार करता है। कानून-व्यवस्था, भ्रष्टाचार, लूट, शोषण, धर्म, पॉवर जैसे तरीकों से। सभ्यताएं ड्राइव हो रही हैं भूख-भय और अहम की वृत्तियों से। सभ्यताओं ने मनुष्यों को न केवल भेड़-बकरी, सुअर जैसी कैटल क्लास के बाड़ों, वर्गों के ऑटोमेटिक-व्यवस्थागत तरीकों से बांटा है, बल्कि उन्हें गड़ेरियों की उस आभिजात्य-रूलिंग क्लास का आदी बनाया है जो मनुष्यों को लाठी, चालाकी, झूठ और छल से हांकते आ रही हैं।
पालतू, रोबो मनुष्य
सभ्यता ने मनुष्य को जनता बनाया है। फिर जनता के मालिक बनाए हैं। इतना ही नहीं सभ्यता ने मनुष्य के इहलोक जीवन की, शरीर की अहमियत खत्म करके आत्मा के भी परलोकी मालिक-ईश्वर रचे हैं। इहलोक पर मालिक तो परलोक में भी मालिक तब होमो सेपियन की कथित बौद्धिकता किस काम की? ज्ञानी मनुष्य के जीव अस्तित्व में उसका अपना क्या? उसकी यांत्रिक जिंदगी। रोबोट वाली मशीनी जिंदगी। तभी प्राकृत, स्वतंत्र घूमंतू मनुष्य के ‘सभ्यता’ अनुभव का सत्य है जो ज्योंहि उसने खानाबदोश जिंदगी छोड़ी वह पालतू, पराधीन मशीनी जीवन में बंधा। मनुष्य की अमिट गलती थी, है और रहेगी जो घूमंतू मनुष्य ने वह घरनुमा स्थायी पिंजरा बनाया जो खुला था मगर खुली जेल की तरह। वह और उसका घर बस्ती और शहर की कथित व्यवस्था की आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस और कमांड का अधीनस्थ हुआ। मनुष्य को मालूम ही नहीं हुआ, समझ ही नहीं आया और सभ्यता के पहले औजार याकि समाज ने अपनी कमांड से मनुष्य के दिल की भावनाओं का व्यवहार बनवाया। ऐसे ही धर्म ने मनुष्य बुद्धि को गाइड करने का अपना ठेका बनाया तो राजनीति से मनुष्य की स्वतंत्रता को कमांड मिलना शुरू हुआ कि कैसे चलना है, कितना उडऩा है और काम करोगे तो उसकी फलां-फलां फीस याकि मालगुजारी, टैक्स! इतना ही नहीं सभ्यता की चौथी रचना भाषा की लिपि से आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस की धीरे-धीरे वह कोडिंग हुई, जिससे मनुष्य दिमाग से भी इनपुट-आउटपुट की स्वचालित मशीन बना। रोबोट बना।
सोचें, पांच हजार साल पहले मनुष्य जिस सभ्यता में ढला और उसका आदी बना वहीं क्या मोटा-मोटी 21वीं सदी में नई बनती आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस का आधार और फ्लोचार्ट नहीं है?
नंबर एक मानव गलती
तभी सभ्यता का गोरखधंधा पृथ्वी पर अब तक जिंदगी पा चुके 108 अरब मनुष्यों के साथ न केवल छलावा है, बल्कि मनुष्य के पापों में नंबर एक पाप, उसकी नंबर एक गलती है।
निश्चित की समाज-धर्म-राजनीति के सभ्यतागत त्रिभुज की उपलब्धियां हैं। आखिर अंतरिक्ष में स्पेसक्राफ्ट उड़ता दिख रहा है। सुपर कंप्यूटर से काम हो रहा है। बुद्धि उड़ती हुई है। सभ्यताओं के राक्षसों के बावजूद सुकरात से ले कर आइंस्टीन जैसे देवर्षियों से ज्ञान-विज्ञान-सत्य की ऊंचाइयों में मनुष्य उड़ता आया है। मगर ऐसा होना तो सभ्यता से पहले भी था और ज्यादा था। हर खानाबदोश मनुष्य अपनी सार्वभौमता में तब खोजता हुआ था। कोई न माने लेकिन सत्य तो यहीं है कि होमो सेपियन के मूल-मौलिक पहिये याकि आवाजाही की मूल खोज का ही तो विस्तार है स्पेसक्राफ्ट। ऐसे ही मनुष्य मष्तिष्क की नकली अनुकृति तो है सुपर कंप्यूटर। तभी सभ्यता से मनुष्य की मदद, विकास और जिंदगी को आसान बनाने के जितने दावे हैं, उपलब्धियां हैं उन सबका मूल सभ्यता से पहले की होमो सेपियन खोजों से है।
खानाबदोश जानता था जीना
खानाबदोश मनुष्य ने जिंदगी जीने और विकास के काफी बुनियादी फंदे सभ्यता से पहले जान लिए थे। यह फालतू बात है कि सभ्यता से पहले मनुष्य ‘अंधयुग’ में जीता हुआ था। वह जीवन जीने की कला और पद्धति बना चुका था। वह भावनाओं-संवेदनाओं में जीता हुआ था। पृथ्वी और उसकी प्रकृति के पंचतत्वों याकि पृथ्वी आकाश, अग्नि, वायु, जल (रूड्डह्लह्लद्गह्म्, स्श्चड्डष्द्ग, श्वठ्ठद्गह्म्द्द4, क्तह्वड्डह्म्द्म, स्नशह्म्ष्द्ग) को जान चुका था। औजार-हथियार बना चुका था। उसका दिमाग जिज्ञासा में बेधडक़ स्वतंत्रता से उड़ता हुआ था। सेक्स, रस-रंग, पेंटिंग, मूर्ति, कपड़े पहनना, अलग-अलग स्वाद, आवजाही, लेन-देन, सामाजिक नेटवर्किंग और सूचनाओं की समझ-संग्रहण की अपनी मौखिक परंपरा विकसित कर चुका था। मनुष्यों के घूमंतू कबीले भेड़-बकरियों, बारहसिंघों आदि का शिकार करते थे। फल-नट्स, जंगली घास-फूस से अनाज इकठ्टा करते और साथ बैठ खाना खाते। कबीलाई उत्सव, जश्न, नाच-गाना, मौज-मस्ती से लेकर जीवन-मरण की समझ और कायदे बन चुके थे। वह हिम्मत और औजारों से जंगल का राजा बना। फिर पशुपालन करने लगा। सही है तब मनुष्य में चिम्पांजियों जैसे हिंसा और लड़ाई के डीएनए सक्रिय थे लेकिन छोटे-सामान्य व्यवहार में। हिंसा में वह वैसा जघन्य अपराधी नहीं हुआ, जैसा सभ्यता निर्माण के बाद हुआ। सभ्यता ने सांगठनिक सेना बनवा कर सामुदायिक निश्चय या धर्माज्ञा, राज्याज्ञा से मनुष्यों को जैसे मारा, नरभक्षी-शोषक हुआ उसकी छटांग हिंसा भी खानाबदोश मनुष्य में नहीं थी। सभ्यता से पहले सचमुच इंसान सहज-सरल स्वभाव का प्राणी था। जबकि सभ्यता के बाद? अहंकार, झूठ, पाप, युद्ध, नरसंहार, गुलाम बनने-बनाने और शोषण जैसी प्रवृत्तियों के दसियों स्वभाव लिए रावण है!
क्या मैं गलत हूं?
सभ्यता से बढ़ा पशुपना
सो, सभ्यताओं से मनुष्य क्या बना? पृथ्वी क्या बनी, यह बाद की बात है। पहला सवाल मनुष्य की जैविक रचना के डीएनए की क्वालिटी क्या सभ्यता से मानवीय हुई? पशु स्वभाव, पशु वृत्तियों, जंगलीपन, बुद्धिहीनता से मनुष्य कितना मुक्त हुआ? सभ्यता से मनुष्य बनाम पशु के व्यवहार का फर्क बढ़ा या घटा? मनुष्य देवता बना या असुर? उसका इवोल्यूशन डीएनए की पशुताओं को घटाता हुआ था या बढ़ाता हुआ?
विकास, स्पेस्क्राफ्ट, सुपर कंप्यूटर, औजारों-वस्तुओं के उपयोग और उपभोग की तमाम आधुनिकताओं-भौतिकताओं का सुख और संतोष है मगर ये सब तब बेमानी हो जाते हैं, जब मनुष्य की पशुताओं का जार्ज ऑरवेल का ‘एनिमल फार्म’ रियलिटी लगता है। जब विक्टर ह्यूगो का ‘ले मिजरेबल्स’ सभ्यता का खोखलापन खोलता है या अलेक्सांद्र सोल्जेनित्सिन का ‘गुलाग आर्किपेलागो’ मनुष्य जनित मनुष्य दमन की पिशाची दास्तां बताता है।
सभ्यता पूर्व मनुष्य सहज मानव था और सभ्यता बाद मशीन। मशीन है तभी दमन, हिंसा, शोषण की रूदाली से बेफिक्र मानव इतिहास है। पहले वह शिकारी था तो पशुओं को मारता था। सभ्यता के बाद सामूहिक तौर पर मनुष्यों का नरसंहार करने लगा। पहले वह पशुपालक था फिर वह मानवपालक हुआ। पहले वह घूमंतू और मस्त खानाबदोश था। आज की चिंता करता था कल की नहीं। खानाबदोश मनुष्य संग्रहक और लालची नहीं था। उसकी सभी एक्टिविटी तात्कालिक भूख याकि दिनचर्या की दैनंदिनी में थी। वह तब कोई गोदाम, फ्रिज या बैंक लिए नहीं था। हर दिन ताजा शिकार और फल-अनाज इकठ्ठा करके पेट भरता था। चैन की नींद सोता था। कल की चिंता कल। लेकिन सभ्यता ने मनुष्य की भूख को स्थायी बनाया। उसे भूख की, हिंसा की मशीन बनाया। सभ्यता से दिमाग में भूख के पैमाने बने। नए आयाम जुड़े। वह आज की बजाय कल की, भविष्य की और पीढिय़ों की चिंता करने लगा। वह संग्रहक हुआ। तभी मनुष्य, मनुष्य में असमानता बनने लगी। अहम और भूख से मनुष्य धीरे-धीरे कंपिटिटिव लालची बना। व्यक्ति, बस्ती, समाज, देश सभी भूख की किलिंग इंस्टिंक्ट के शिकारी और शोषक प्रकृति के व्यवहार से विकासवान हुए। मनुष्य का वैयक्तिक दिमाग पूरी तरह से समाज-सामुदायिकता की मोहमाया-भोगेच्छाओं के चक्रव्यूह में फंसता गया।
सभ्यता से पहले मनुष्य संतोषी था। सहज था। तब पृथ्वी के सभी मनुष्य बिना किसी भेदभाव के समान जीवन जीते हुए थे। कोई असमानता नहीं थी। सभी बिना क्लास, वर्ग-वर्ण-जात भेद के थे। सभी दिमागी जिज्ञासा के पखं फडफ़ड़ाए घूमते, उड़ते हुए थे। हर मनुष्य अपनी बुद्धि और स्वतंत्रता का खुद मालिक। सभी को जंगल-जमीन में समान अवसर प्राप्त थे। इंसान तब मौलिक था। वह मौलिकताओं का ऑर्गेनिक जीवन जीते हुए था। उसने अपनी भूख, भय, असुरक्षा और अहम के सत्य में अपनी जरूरतों के समाधान जान लिए थे। अपने औजार और आविष्कार बना लिए थे। खानबदोश जीवन में ही पत्थर, लाठी आग, लोहा, तांबा, कपड़ा, शिकार करना, पशुपालन और खेती सब ढूंढा-जाना-सीखा। परस्पर कम्युनिकेशन से अपना परिवार व कबीला बनाया। पहिया-बैलगाड़ी-रथ बनाया। ईंट-पत्थर का घर बनाया। इस सबकी बुद्धि और ज्ञान मुंह जुबानी शिक्षा से पीढ़ी-दर-पीढ़ी ट्रांसफर होता हुआ था।
उस नाते होमो सेपियन की पहली क्रांति हर मनुष्य का जंगल का राजा बनना था। मतलब औजार, पत्थर, अग्नि व हथियार बना कर व्यक्ति विशेष का वैयक्तिक जीवन स्वतंत्र मालिकाना के वजूद का था। उसे किसी से पूछना नहीं होता था। हर व्यक्ति स्वतंत्र और सार्वभौम। होमो सेपियन का दूसरा क्रांतिकारी मोड़ पुशओं को पालने का खानाबदोश कबीलाई जीवन था। तब भी व्यक्ति कबीले में सरदार और ओझा-पुजारी के बावजूद वैयक्तिक सार्वभौमता में अपना राजा खुद था। इस मूल जीवन पद्धति में ही मनुष्य ने पूरी पृथ्वी में अपने आपको फैलाया। पूरी पृथ्वी उसका घर थी।
नोट रखें हम होमो सेपियन का 95 प्रतिशत मानव जीवन शिकारी-खानाबदोश अवस्था में जिंदगी जीने का है। इसलिए होमो सेपियन के कोई ढाई लाख सालों का कुल जीवन दो कालखंडों में विभाजित है। पहला, दो लाख पैंतालीस हजार साल के प्राकृत-ऑर्गेनिक जीवन जीने का। जिसकी पहचान खानाबदोश जिंदगी है। दूसका कालखंड पिछले पांच हजार सालों से अब तक के सभ्यतागत जीवन का है। इसकी खूबी और पहचान मनुष्य द्वारा स्थायी घर-बस्ती बना कर समाज-धर्म-राजनीति के सांचों की सभ्यता को अपना करके जीवन जीना है।
लाख टके का सवाल है मनुष्य ने मूल, मौलिक, ऑगेनिक खानबदोश जिंदगी को क्यों छोड़ा? कौन सी परिस्थितियां थीं, जिनसे मनुष्य जीवन में पांच हजार साल पहले सभ्यता का मोड़ आया? इस पर आगे।