उस समय ब्रिटिश राज की ओर से ऊपरी तौर पर यही कहा गया था कि बंगाल की 7.8 करोड़ की भारी भरकम आबादी है। यहां प्रशासन को संचालित करने में कठिनाई आ रही है। इसलिए 1905 में लार्ड कर्जन द्वारा बंगाल विभाजन को मंजूरी दे दी गयी। ईस्ट बेंगाल और वेस्ट बेंगाल। लेकिन इसके अघोषित कारण शायद कुछ और ही रहे होंगे। बंगाल विभाजन की जो रुपरेखा सामने रखी गयी उसमेें ईस्ट बंगाल मुस्लिम बहुल हो गया जबकि वेस्ट बेंगाल हिन्दू बहुल बन गया।
मुस्लिम बहुल बेंगाल का केन्द्र ढाका बना और हिन्दू बहुल बेंगाल का केन्द्र बना कलकत्ता। उस समय ढाका के नवाब थे सर ख्वाजा सलीमुल्ला बहादुर। नवाब साहब ने इस बंटवारे को मुस्लिम बहुल राज्य का स्वप्न साकार करने के लिए किया। उनके समर्थन में बंगाल की मुस्लिम जनसंख्या आ गयी। जबकि इधर कलकत्ता में हिन्दुओं द्वारा बेंगाल के इस विभाजन का पुरजोर विरोध शुरु हुआ।
बंगाल विभाजन के गर्भ से उसी साल भारतीय इतिहास के दो महत्वपूर्ण आंदोलनों का भी जन्म हुआ। पहला बंगाल विभाजन का विरोध करने वाला स्वदेशी आंदोलन और दूसरा बंगाल विभाजन का समर्थन करने वाला मोहम्मडन प्रोविन्सियल यूनियन। पहले आंदोलन का नेतृत्व कांग्रेस कर रही थी जबकि मोहम्मडन प्रोविन्सियल यूनियन के अभियान की कमान नवाब सर ख्वाजा सलीमुल्लाह बहादुर के हाथ में थी। ईस्ट बेंगाल में नवाब बहादुर ने जगह जगह ‘मोहम्मडन प्रोविन्स’ के समर्थन में जलसे आयोजित करवाये। जबकि वेस्ट बेंगाल में स्वदेशी आंदोलन के रूप में नेशनलिस्ट मूवमेन्ट ने जन्म लिया जिसमें कांग्रेसी नेता बढ़ चढ़कर शामिल होते थे।
अक्टूबर 1906 में नवाब सलीमुल्ला बहादुर ने देश भर के मुस्लिम लीडरों को एक पत्र लिखा जिसमें उन्होंने उनसे अखिल भारतीय स्तर पर ‘मुस्लिम हितों की राजनीति करने वाले दल’ की स्थापना की गुहार लगायी थी। उन्होंने मुसलमानों के लिए अलग दल का नाम भी सुझाया था “अखिल भारतीय मुस्लिम महासंघ।” अलीगढ मुस्लिम युनिवर्सिटी से निकले नेताओं को यह बात पसंद आ गयी। उन्होंने नवाब साहब से निवेदन किया कि अगर वो उनके बीसवें शिक्षा कांफ्रेस को आयोजित करने का खर्चा उठा लें तो इसे वह ढाका में नवाब साहब के महल में ही करना चाहेंगे। नवाब साहब ने खर्चा उठा लिया और अलीगढ मुस्लिम युनिवर्सिटी के शिक्षाविदों की 20वीं बैठक नवाब साहब के महल शाहबाग में शुरु हो गयी।
27 से 30 दिसंबर तक चार दिनों तक यह बैठक चली। बैठक के आखिरी दिन यानी 30 दिसंबर को आल इंडिया मुस्लिम लीग का गठन हो गया। आगा खान तृतीय को इसका अध्यक्ष जबकि नवाब सलीमुल्लाह को इसका उपाध्यक्ष बनाया गया। उनके नेतृत्व में एक कमेटी भी बनायी गयी जिसे मुस्लिम लीग का संविधान लिखना था। इस तरह बंगाल विभाजन से जो पहला आंदोलन निकला वह अखिल भारतीय मुस्लिम लीग के रूप में सामने आया जबकि दूसरा आंदोलन राष्ट्रवाद और स्वदेशी की पुकार लगाने लगा।
बंगाल के स्वदेशी आंदोलन से पहली बार भारत माता का एक चित्र सामने आया जिसे बंगाल के महान चित्रकार अबनीन्द्रनाथ टैगोर ने बनाया था। कहते हैं कि अबनीन्द्रनाथ टैगोर की यह भारत माता बंकिम चंद्र चटर्जी द्वारा वर्णित भारत माता से प्रेरित थी। भारत माता के इस चित्र में उन्होंने भगवा कपड़ा पहन रखा है और उनके चार हाथ है। एक हाथ में सफेद कपड़ा यानि सूत कपास है, एक हाथ में वैदिक पांडुलिपी है, एक हाथ में रुद्राक्ष है और एक हाथ में धान के कुछ पौधे हैं। भारत माता कमल के आसन पर खड़ी हैं और उनकी मांग में भरपूर सिन्दूर लगा है।
स्वाभाविक है भारत माता का यह चित्र प्रतीकात्मक रूप से भारत के सन्यासी और गृहस्थ दोनों का प्रतिनिधित्व कर रहा था। भारत माता का यही चित्र स्वदेशी आंदोलन का प्राण बना। एक ओर जहां यह चित्र धर्म, आध्यात्म रूपी विरासत की ओर संकेत कर रहा था वहीं दूसरी ओर उद्योग और कृषि में आत्मनिर्भरता का संदेश भी दे रहा था। स्वदेशी आंदोलन इतना सफल रहा कि अखिल भारतीय कांग्रेस ने इसका नेतृत्व अपने हाथ में ले लिया। महात्मा गांधी के उदय के बाद तो स्वदेशी और स्वावलंबन ही भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का मुख्य आकर्षण बन गया।
हालांकि कड़े जन विरोध के कारण 1911 में बंगाल विभाजन निरस्त हो गया लेकिन लार्ड कर्जन ने हिन्दू मुस्लिम का जो बीज बोया था अभी उसका पौधा बनना बाकी था। कांग्रेस के बढ़ते प्रभाव के कारण मुस्लिम लीग को बहुत महत्व तो नहीं मिला लेकिन 1930 में अल्लामा इकबाल ने मुस्लिम लीग को एक ऐसा विचार दे दिया जो 1947 भारत के विभाजन का आधार बना। वह विचार था अलग मुस्लिम राज्य का जहां मुसलमान स्वतंत्र रूप से इस्लामिक शरीयत को फॉलो कर सकें। ऐसा करके वो न केवल हिन्दू कांग्रेस बल्कि क्रिश्चियन ब्रिटिशर्स को भी यह दिखाना चाहते थे कि इस्लाम में बेहतर राज्य व्यवस्था का सिद्धांत निहित है बस उसे साकार करने के लिए उसे जमीन का एक टुकड़ा चाहिए।
1930 से 1947 के बीच अखिल भारतीय कांग्रेस को सबसे बड़ी चुनौती किसी से मिली तो वह मुस्लिम लीग ही थी। गठित होने के तीन साल बाद ही 1908 में उसने मुस्लिमों के लिए सेपरेट इलेक्ट्रोरेट की मांग कर दी। ब्रिटिश हुकूमत ने भी इस पर सहानुभूति पूर्वक विचार किया। 1919 में खिलाफत मूवमेन्ट को मुस्लिम लीग ने बढ़ चढ़कर चलाया और कांग्रेस के गांधी का भी समर्थन प्राप्त कर लिया। मुस्लिम लीग को उस समय तक अलग इस्लामिक राज्य तो नहीं स्थापित करना था लेकिन मुसलमानों का अधिक से अधिक हित सधे उनके सारे प्रयास इसी दिशा में हो रहे थे। देश के स्वतंत्रता आंदोलन से अधिक महत्वपूर्ण उनके लिए मुस्लिम हित और इस्लामिक सिद्धातों को लागू करना था।
हालांकि 1930 में इलाहाबाद वाले जलसे के बाद उन्होंने अलग इस्लामिक राज्य की मुहिम शुरु कर दी जिसका सबसे अधिक नुकसान कांग्रेस की छवि को ही हुआ। और जब पुराने कांग्रेसी मोहम्मद अली जिन्ना का साथ मिल गया तो फिर कहना ही क्या था। मुस्लिम लीग अब खुलकर अपने इस्लामिक एजंडे पर आ गया और 1947 में स्वतंत्रता भारत के तीन टुकड़े में आयी। पश्चिमी पाकिस्तान, पूर्वी पाकिस्तान और बीच में बचा हिन्दोस्तान।
भारत विभाजन के साथ मुस्लिम लीग का भी तीन हिस्से में विभाजन हो गया। टू नेशन थ्योरी के रथ पर सवार होकर विजेता भाव से मूल मुस्लिम लीग 1947 में पाकिस्तान चला गया जहां 1958 के मार्शल लॉ में फौजी शासक अय्यूब खान ने मुस्लिम लीग को बैन कर दिया। इसका दूसरा धड़ा अवामी लीग के रूप में पूर्वी पाकिस्तान में सक्रिय हो गया जिसका नेतृत्व सोहरावर्दी के हाथ में था। तीसरा धड़ा इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग के रूप में हिन्दोस्तान में रह गया जिसका नेतृत्व एम मोहम्मद इस्माइल के हाथ में आया जो उस समय सूदूर दक्षिण में मद्रास मुस्लिम लीग के प्रेसिडेन्ट थे।
भारत वाले इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग (IUML) को उत्तर भारत में कोई समर्थन तो नहीं मिला लेकिन तमिलनाडु और केरल में उसने अपना राजनीतिक अस्तित्व बचाकर रखा। आज के दिन आईयूएमएल के पास लोकसभा में तीन सांसद, राज्ससभा में एक तथा केरल में 15 विधायक हैं। वह केरल में उसी कांग्रेस की साझीदार है जिसके विरोध में जाकर कभी उसने टू नेशन थ्योरी को आगे बढ़ाया था।
अब सवाल यह है कि अगर 1947 में भारत का विभाजन करने वाली मुस्लिम लीग तीन हिस्से में बंट गयी तो फिर उस अखिल भारतीय कांग्रेस का क्या हुआ जिसके विरोध में मुस्लिम लीग ने अपनी बंटवारे की मुहिम चलाई थी। स्वतंत्रता के 75 साल बाद कांग्रेस पार्टी आज उसी जगह आकर खड़ी है जहां से मुस्लिम लीग की शुरुआत हुई थी। कांग्रेस ने शायद ऐसा इसलिए किया क्योंकि वह कोई नयी मुस्लिम लीग बनते हुए नहीं देखना चाहती थी। इसलिए उनके नेताओं ने रणनीतिक रूप से कांग्रेस को ही मुस्लिम लीग के रूप में परिवर्तित कर दिया।
जैसे 1905 में मुस्लिम हित मुस्लिम लीग का एकमात्र उद्देश्य था जबकि कांग्रेस पर हिन्दूवादी पार्टी का ठप्पा लगा दिया गया था उसी तरह अब कांग्रेस सिर्फ मुस्लिम हित की बात कर रही है जबकि उसके बहुत बाद में पैदा हुई एक दूसरी राजनीतिक पार्टी पर हिन्दूवादी होने का ठप्पा लगा हुआ है। यह ठप्पा कोई और नहीं बल्कि वही कांग्रेस लगा रही है जिस पर कभी मुस्लिम लीग ने हिन्दूवादी होने का ठप्पा लगाया था।
यही वह एकमात्र बुनियादी परिवर्तन है जिसके कारण आज कांग्रेस के नेता राहुल गांधी को इंडियन युनियन मुस्लिम लीग सेकुलर पार्टी नजर आ रही है और आरएसएस बीजेपी कम्युनल संगठन।