कौशल किशोर
उदयपुर में कन्हैया लाल और अमरावती में उमेश कोल्हे की हत्या देश में सांप्रदायिक तनाव के चरमोत्कर्ष का प्रतीक है। नफरत की आवाजों में समाया वैमनस्य एक कदम आगे बढ़ कर विस्फोटक रूप ले चुका है। हालांकि इन मामलों में पुलिस दोषियों को शीघ्र गिरफ्तार करने में तत्परता दिखाती है। नैशनल इन्वेस्टिगेशन एजेंसी ने भी इन मामलों में पड़ताल शीघ्र ही शुरु कर दी है। बहुसंख्य समाज की राजनीति उदयपुर के दर्जी और अमरावती के दवाई व्यापारी की नृसंश हत्या से उबल रहा है। चहुंओर मध्य वर्ग का विरोध प्रर्दशन इसे अभिव्यक्त ऐसे कर रहा मानो भारत के बहुसंख्यक समाज की दशा बांग्लादेश के अल्पसंख्यक सदृश हो गई हो। ज्ञानवापी मामले में शिव भक्तों को नाराज करने के परिणामस्वरूप पैगंबर मोहम्मद के प्रति अपमानजनक टिप्पणी सामने आती है। दो खेमे में विभाजित देश में विरोध प्रदर्शनों के हिंसक घटनाओं में परिवर्तित होने से विस्फोटक स्थिति कायम हुई है। हिंदू मुस्लिम खाई पाटने के बदले राष्ट्रीय राजनीति एक अंधी दौर से गुजरती दिख रही है। इस बीच देशहित की सुध में लगे लोग नैपथ्य में ओझल होते दिखते हैं।
इस राजनीति में न्यायालय किसी से पीछे नहीं है। उच्चतम न्यायालय न्यायमूर्ति सूर्य कांत और जे.बी. पारदीवाला की टिप्पणी के कारण सुर्खियों में बनी है। पूर्व भाजपा प्रवक्ता नुपुर शर्मा ने अर्णव गोस्वामी केस की तरह सभी एफआईआर की एक साथ जांच कराने के लिए याचिका दायर किया।कोर्ट की अनौपचारिक टिप्पणियों में केस वापस लेने और टीवी पर माफी मांगने के साथ ज्ञानवापी मामले की हिंसक परिणति के लिए उन्हें इकलौता जिम्मेदार कहा गया है। दिल्ली हाई कोर्ट के जस्टिस (रिटायर्ड) एस.एन. ढींगरा इस टिप्पणी को अवैध एवं अनुचित करार देते हैं। बहरहाल इसका श्री गणेश बनारस में ज्ञानवापी प्रकरण में लगे न्यायालय से हुआ है।
वैमनस्य की इस राजनीति की जड़ें गहरी जमी हुई हैं। इसका शिकार हिंदू ही नहीं, बल्कि अन्य धर्म के लोग भी हैं। पांच साल बीत रहे हैं जब राजस्थान के अलवर जिले में पहलू खान की मॉब लिंचिंग हुई। फिर राजसमंद में शंभू लाल रैगर ने अफराजुल की हत्या कर वीडियो प्रसारित किया था। इसके शिकार भंवर लाल जैन जैसे लोग भी हैं। मध्य प्रदेश के नीमच में इस बुजुर्ग को हत्या से पहले मुस्लिम करार देने की बात सामने आती है। हिंदू मुस्लिम विद्वेष की राजनीति करने वाले दोनों वर्ग नित्य नया कारनामा करने में लगे हैं। साथ ही इस दोष को दूर करने के बदले बढ़ावा देने की प्रवृति जोर शोर से विकसित हो रही। धर्म और राजनीति के क्षेत्र में सक्रिय शक्ति यदि समय रहते इसे दूर नहीं करती है तो भविष्य में आतंकवादियों का हित साधने का माध्यम ही साबित होगी।
इतिहास साक्षी है, धर्म की आड़ में नफरत की खेती करने वाले अवयव देश विभाजन से भी नहीं चूकते हैं। टुकड़े टुकड़े गैंग की मंशा और इनके पोषण में लगी शक्तियों के सक्रियता की कहानी किसी से छिपी नहीं है। मुगल काल में हिंदुओं को मुसलमान बनाने और मंदिरों को मस्जिद बनाने का इतिहास दुनिया जानती है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के नेता अयोध्या राम मंदिर के बाद बनारस और मथुरा जैसी दास्तान से मुंह फेर सकते हैं। परंतु राम और रहीम के उपासक इस सच्चाई से वाकिफ हैं। हैरत की बात है कि मौलाना महमूद मदनी जैसे इस्लामिक विद्वान ने जब इन मामलों को आपसी संवाद से निपटाने की उदार पहल की तो उपद्रवी तत्वों की सक्रियता ही बढ़ गई। धर्माचार्य और राजनेता इसके लिए अनुकूल जमीन तैयार कर ही देश का हित सुनिश्चित कर सकते हैं।
मुस्लिम समाज का प्रतिनिधित्व करने वाले सज्जन इस हिंसा का खुल कर विरोध कर रहे हैं। जफर सरेशवाला ‘सिर तन से जुदा’ करने की बात हराम और संगीन गुनाह की श्रेणी में रखते हैं। कट्टर, जाहिल व शैतानी मानसिकता को चिन्हित कर कमर वहीद नकवी मुस्लिम समाज में प्रगतिशील और उदारवादी विचार के व्यापक प्रसार को जरुरी बताते हैं। हिंदू सांप्रदायिकता पर होने वाली व्यापक चर्चा के सापेक्ष मुस्लिम साम्प्रदायिकता पर छाई चुप्पी पर फैयाज अहमद फैजी ने भी निशाना साधा है। इस मामले में केरल के राज्यपाल और इस्लाम के अध्येता आरिफ मोहम्मद खान मदरसों में बच्चों को दी जाने वाली शिक्षा में हिंसा की पैरवी को दोषी ठहराते हैं। अल्लाह के कानून के नाम पर ‘सिर तन से जुदा’ करने के बदले उदारता का पाठ पढ़ाना होगा।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर जहर उगलने की निरंकुश प्रवृति का दुष्परिणाम सामने है। दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रतन लाल शिवलिंग पर विवादित टिप्पणी के कारण जमानत पर हैं। तस्लीम रहमानी और नुपुर शर्मा भी इसी की आड़ में लोगों को भड़काने का काम करते हैं। नफरत के इस बोल पर रोक लगाने के लिए उच्चतम न्यायालय ने मार्च 2014 में विधि आयोग को निर्देशित किया था। आयोग की रिपोर्ट 23 मार्च 2017 से संसद में धूल फांक रही है। सोशल मीडिया के दुरुपयोग को रोकने के लिए प्रभावी कानून बनाने की दिशा में प्रयास लंबित है। पूर्वी दिल्ली दंगों के बाद फेसबुक और ट्वीटर जैसी सोशल मीडिया निशाने पर है। भारत सरकार नफरत की आवाजों पर पाबन्दी लगाने के लिए जरुरी कानून बनाने की दिशा में अग्रसर हो। यह आज पहले से कहीं ज्यादा जरुरी है।
इसी बीच नैपथ्य से एक हिंदू की अर्थी को चार मुस्लिम कंधा देते सामने आते हैं। यह पटना के फुलवारीशरीफ क्षेत्र का वाकया है। रामदेव की अंत्येष्ठि में शामिल अरमान, रिजवान, राशिद और इजहार वैमनस्य की इस राजनीति को हवा देने में लगे लोगों को आईना दिखाते हुए प्रतीत होते हैं। परिवार के सदस्य की तरह हिंदू रीति रिवाज मानते हुए एक मुस्लिम द्वारा अंत्येष्ठि करने से देश की संस्कृति प्रकट होती है। सौ साल बीत रहे हैं, जब देश में शुद्धि आंदोलन के साथ सांप्रदायिक दंगे भड़के और भारतवर्ष के तमाम उत्कृष्टतम नेताओं ने मिलकर इस समस्या का समाधान निकाला था। उन्होंने सांप्रदायिक कुकृत्यों में शामिल होना पाप माना और इस सिलसिले में अपने ही धर्म के लोगों के विरोध में खड़ा होना भारत की पहचान बताया था। गणेश शंकर विद्यार्थी इस क्रम में शहादत देने वाले अग्रणी पंक्ति के नायक हैं। सरकार और समाज 1923 की अपील के सभी सौ हस्ताक्षरी की शान में शताब्दी समारोह मना सके इसके लिए अंतर सांप्रदायिक सद्भाव जैसे गंभीर मुद्दे पर तैयारी करने की आवश्यकता है।