नई दिल्ली: भारतीय लोकतंत्र में मतदाता सूची (वोटर लिस्ट) और उसकी शुद्धता हमेशा से एक संवेदनशील मुद्दा रही है। हाल ही में विशेष गहन पुनरीक्षण (Special Intensive Revision – SIR) को लेकर विपक्ष द्वारा उठाए गए सवाल और सोनिया गांधी की नागरिकता से जुड़े पुराने विवाद ने इस मुद्दे को फिर से चर्चा में ला दिया है। आइये कुछ बिंदुओं पर विस्तार में एग्जीक्यूटिव एडिटर प्रकाश मेहरा से समझते हैं।
SIR को लेकर विपक्ष के दावों की सच्चाई
सच्चाई और संभावित कार्यवाही SIR क्या है? विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) भारत निर्वाचन आयोग (ECI) की एक प्रक्रिया है, जिसके तहत मतदाता सूची की शुद्धता सुनिश्चित करने के लिए गहन जांच की जाती है। इसमें डुप्लिकेट, फर्जी, या अपात्र मतदाताओं के नाम हटाए जाते हैं, और नए योग्य मतदाताओं के नाम जोड़े जाते हैं।
विपक्ष, विशेष रूप से कांग्रेस और अन्य INDIA गठबंधन के दल, बिहार में SIR प्रक्रिया पर सवाल उठा रहे हैं। उनका दावा है कि “यह प्रक्रिया “वोट चोरी” का एक तरीका है, जिसके जरिए भाजपा और चुनाव आयोग मिलकर कुछ खास समुदायों (विशेषकर अल्पसंख्यकों और विपक्षी मतदाताओं) के नाम मतदाता सूची से हटा रहे हैं। राहुल गांधी ने SIR को लोकतांत्रिक प्रक्रिया में गड़बड़ी का संकेत बताया और इसे रद्द करने की मांग की।
विपक्षी नेताओं ने संसद के मानसून सत्र में इस मुद्दे को उठाने का निर्णय लिया, इसे संविधान और लोकतंत्र के लिए खतरा बताते हुए।
अगर दावों में सच्चाई हुई तो कार्यवाही
यदि विपक्ष के दावों में सच्चाई पाई जाती है, तो निम्नलिखित कार्यवाही हो सकती है
1. निर्वाचन आयोग की जांच; स्वतंत्र जांच समिति गठित की जा सकती है जो SIR प्रक्रिया की निष्पक्षता की जांच करे।
2. सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप: विपक्ष इस मामले को सुप्रीम कोर्ट में ले जा सकता है, जैसा कि पूर्व में मतदाता सूची से संबंधित मामलों में हुआ है। कोर्ट आदेश दे सकता है कि प्रभावित मतदाताओं के नाम पुनः शामिल किए जाएं।
3. चुनाव रद्द करना: यदि यह सिद्ध हो कि SIR के कारण किसी विधानसभा या लोकसभा चुनाव में बड़े पैमाने पर मतदाताओं को वंचित किया गया, तो संबंधित चुनाव रद्द किए जा सकते हैं।
4. संवैधानिक संकट: यदि गड़बड़ियां सिद्ध होती हैं, तो यह निर्वाचन आयोग की स्वायत्तता पर सवाल उठाएगा, जिससे संवैधानिक संस्थानों की विश्वसनीयता प्रभावित होगी।
5. सुधारात्मक कदम: भविष्य में ऐसी गड़बड़ियों को रोकने के लिए मतदाता सूची प्रक्रिया में पारदर्शिता बढ़ाने हेतु नए नियम लागू किए जा सकते हैं, जैसे ऑनलाइन ट्रैकिंग और ऑडिट सिस्टम।
वास्तविकता की जांच
हालांकि, विपक्ष के दावों को अभी तक ठोस सबूतों के साथ सिद्ध नहीं किया गया है। निर्वाचन आयोग ने इन आरोपों को खारिज किया है और कहा है कि SIR एक नियमित प्रक्रिया है जो मतदाता सूची की शुद्धता के लिए जरूरी है। कुछ विश्लेषकों का मानना है कि विपक्ष का यह विरोध आगामी बिहार विधानसभा चुनावों में राजनीतिक लाभ लेने की रणनीति हो सकती है।
आजादी के बाद से मतदाता सूची में गड़बड़ियों का इतिहास
भारतीय लोकतंत्र में मतदाता सूची की शुद्धता हमेशा से एक चुनौती रही है। आजादी के बाद से विभिन्न सरकारों के कार्यकाल में इस मुद्दे पर कई बार सवाल उठे हैं।
नेहरू के कार्यकाल (1947-1964) प्रारंभिक चुनौतियां
आजादी के बाद भारत में पहली बार 1951-52 में आम चुनाव हुए। उस समय मतदाता सूची तैयार करना एक जटिल प्रक्रिया थी, क्योंकि साक्षरता दर कम थी और पहचान पत्रों का अभाव था। कई क्षेत्रों में गलत नाम, डुप्लिकेट प्रविष्टियां, और मृत व्यक्तियों के नाम मतदाता सूची में शामिल होने की शिकायतें थीं।
संवैधानिक ढांचा: संविधान के अनुच्छेद 324 के तहत निर्वाचन आयोग को मतदाता सूची तैयार करने की जिम्मेदारी दी गई। हालांकि, संसाधनों की कमी और प्रशासनिक अक्षमता के कारण गड़बड़ियां आम थीं।
नेहरू के कार्यकाल में विपक्ष कमजोर था, इसलिए मतदाता सूची की गड़बड़ियों पर ज्यादा सियासत नहीं हुई। लेकिन स्थानीय स्तर पर कुछ क्षेत्रों में वोटर लिस्ट में हेरफेर की शिकायतें थीं, विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में।
इंदिरा गांधी के कार्यकाल (1966-1977, 1980-1984) आपातकाल और विवाद
1975-77 के आपातकाल के दौरान मतदाता सूची में गड़बड़ियों के आरोप बढ़े। विपक्ष ने दावा किया कि कांग्रेस ने अपने पक्ष में मतदाता सूची में हेरफेर किया, खासकर उन क्षेत्रों में जहां विपक्ष मजबूत था। हालांकि, इन आरोपों को कभी सिद्ध नहीं किया गया। इस दौर में भी तकनीकी संसाधनों की कमी थी। मतदाता सूची मैन्युअल रूप से तैयार की जाती थी, जिससे गलतियां स्वाभाविक थीं। डुप्लिकेट नाम और फर्जी मतदाताओं की शिकायतें आम थीं। आपातकाल के दौरान संवैधानिक संस्थानों, विशेष रूप से निर्वाचन आयोग, पर सरकार के दबाव के आरोप लगे। हालांकि, कोई ठोस सबूत नहीं मिला।
अन्य सरकारों के कार्यकाल (1977-1980 (जनता पार्टी)
जनता पार्टी की सरकार ने आपातकाल के बाद मतदाता सूची में सुधार की कोशिश की, लेकिन सत्ता में अस्थिरता के कारण यह प्रक्रिया अधूरी रही।
1984-1990 (राजीव गांधी): इस दौरान मतदाता सूची में डिजिटलीकरण की शुरुआत हुई, लेकिन तकनीकी सीमाओं के कारण गड़बड़ियां बनी रहीं।
1990-2014: विभिन्न सरकारों के दौरान मतदाता सूची में सुधार के लिए कई कदम उठाए गए, जैसे वोटर आईडी कार्ड (EPIC) की शुरुआत और ऑनलाइन पंजीकरण। फिर भी, डुप्लिकेट और फर्जी मतदाताओं की समस्या पूरी तरह खत्म नहीं हुई।
आजादी के बाद से मतदाता सूची में गड़बड़ियां तकनीकी और प्रशासनिक कमियों के कारण रही हैं। हालांकि, इन गड़बड़ियों को अक्सर राजनीतिक दलों ने अपने हित में इस्तेमाल करने की कोशिश की। नेहरू और इंदिरा के कार्यकाल में संवैधानिक ढांचे की कमजोरियों के कारण गड़बड़ियां थीं, लेकिन इन्हें व्यवस्थित साजिश सिद्ध करना मुश्किल है।
सोनिया गांधी का नागरिकता विवाद और मतदान
सोनिया गांधी के भारतीय नागरिकता और मतदाता सूची में उनके नाम को लेकर हाल ही में भाजपा के आईटी सेल प्रमुख अमित मालवीय ने सवाल उठाए।
बीजेपी नेता अमित मालवीय ने दावा किया कि “सोनिया गांधी का नाम 1980 में नई दिल्ली की मतदाता सूची में शामिल किया गया, जबकि उस समय उनके पास इटालियन नागरिकता थी। उन्होंने यह भी कहा कि 1983 में भी उनका नाम मतदाता सूची में था, जबकि उन्हें भारतीय नागरिकता 30 अप्रैल, 1983 को मिली। मालवीय ने 1980 की मतदाता सूची का एक अंश शेयर किया, जिसमें सोनिया गांधी का नाम मतदान केंद्र 145 के क्रमांक 388 पर दर्ज था।
भारतीय संविधान के अनुसार, केवल भारतीय नागरिक ही मतदाता सूची में पंजीकृत हो सकते हैं और मतदान कर सकते हैं। यदि सोनिया गांधी का नाम 1980 में मतदाता सूची में शामिल था, जबकि वे भारतीय नागरिक नहीं थीं, तो यह निर्वाचन कानून का उल्लंघन है।
सोनिया गांधी की नागरिकता
सोनिया गांधी ने 1968 में राजीव गांधी से शादी की, लेकिन उन्होंने 1983 तक भारतीय नागरिकता स्वीकार नहीं की। मालवीय ने सवाल उठाया कि “उन्हें नागरिकता स्वीकार करने में 15 साल क्यों लगे।”
कांग्रेस और गांधी परिवार ने इस मुद्दे पर कोई आधिकारिक जवाब नहीं दिया है, जिसे भाजपा ने संदेह के रूप में पेश किया।
संभावित कारण प्रशासनिक चूक
उस समय मतदाता सूची मैन्युअल रूप से तैयार की जाती थी। संभव है कि सोनिया गांधी का नाम गलती से शामिल हो गया हो, क्योंकि वे गांधी परिवार के साथ 1, सफदरजंग रोड पर रह रही थीं। इस मामले में कोई कानूनी कार्रवाई नहीं हुई, संभवतः क्योंकि यह मुद्दा उस समय ज्यादा उजागर नहीं हुआ।
सोनिया गांधी का नाम यदि बिना नागरिकता के मतदाता सूची में शामिल था, तो यह एक गंभीर गड़बड़ी है। लेकिन, इस मुद्दे को 40 साल बाद उठाना सियासी रणनीति का हिस्सा लगता है, जैसा कि आगे चर्चा की जाएगी।
नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में सियासत क्यों?
नरेंद्र मोदी के कार्यकाल (2014-वर्तमान) में मतदाता सूची और SIR को लेकर विवाद पहली बार इतने बड़े पैमाने पर उभरे हैं। खासकर बिहार विधानसभा चुनाव से पहले SIR पर विपक्ष का विरोध और सोनिया गांधी के नागरिकता विवाद का फिर से उठना सियासत को गर्म कर रहा है।
मोदी सरकार के दौरान मतदाता सूची के डिजिटलीकरण और आधार से जोड़ने की प्रक्रिया तेज हुई। इससे गड़बड़ियों को पकड़ना आसान हुआ, लेकिन साथ ही SIR जैसी प्रक्रियाओं पर सवाल भी उठे।
क्या है विपक्ष की रणनीति
बिहार में विधानसभा चुनाव नजदीक हैं, और विपक्ष को लगता है कि SIR के जरिए उनके वोट बैंक (विशेषकर अल्पसंख्यक और दलित समुदाय) को निशाना बनाया जा रहा है। भाजपा ने सोनिया गांधी के पुराने विवाद को उठाकर विपक्ष को घेरने की कोशिश की। यह कांग्रेस को नैतिक रूप से कमजोर करने और SIR के बचाव का हिस्सा है।
विपक्ष का दावा है कि “निर्वाचन आयोग और अन्य संस्थान सरकार के दबाव में काम कर रहे हैं। यह आरोप मोदी सरकार की मजबूत सत्ता के कारण ज्यादा मुखर हुआ है।”
विपक्ष की मंशा चुनावी लाभ
विपक्ष, खासकर कांग्रेस और राजद, बिहार में SIR को एक मुद्दा बनाकर अल्पसंख्यक और दलित वोटरों को अपने पक्ष में लामबंद करना चाहता है। निर्वाचन आयोग की निष्पक्षता पर सवाल उठाकर विपक्ष सरकार को कठघरे में खड़ा करना चाहता है। SIR को संविधान और लोकतंत्र के लिए खतरे के रूप में पेश करके विपक्ष राष्ट्रीय स्तर पर अपनी आवाज बुलंद करना चाहता है। सरकार और निर्वाचन आयोग का कहना है कि “SIR मतदाता सूची को शुद्ध करने के लिए जरूरी है।”
सोनिया गांधी के नागरिकता विवाद को उठाकर भाजपा विपक्ष को नैतिक और ऐतिहासिक आधार पर कमजोर करना चाहती है। बिहार में मजबूत स्थिति बनाए रखने के लिए भाजपा मतदाता सूची को “साफ” करने की कोशिश कर रही है, ताकि फर्जी वोटिंग की संभावना कम हो।
विपक्ष की कमियां सबूतों का अभाव !
विपक्ष ने SIR को “वोट चोरी” का हथियार बताया, लेकिन ठोस सबूत पेश नहीं किए। बिना सबूत के आरोप संवैधानिक संस्थानों की विश्वसनीयता को अनावश्यक रूप से नुकसान पहुंचाते हैं। SIR को रद्द करने की मांग बिहार चुनाव से पहले की रणनीति लगती है। विपक्ष को चाहिए कि वह पारदर्शी जांच की मांग करे, न कि प्रक्रिया को पूरी तरह खारिज करे। सोनिया गांधी के नागरिकता विवाद पर कांग्रेस की चुप्पी उनके नैतिक दावों को कमजोर करती है।
समाधान के सुझाव पारदर्शी SIR प्रक्रिया
निर्वाचन आयोग को SIR के हर चरण को सार्वजनिक करना चाहिए, जिसमें हटाए गए नामों की सूची और कारण शामिल हों। SIR और मतदाता सूची से संबंधित सभी आरोपों की स्वतंत्र जांच होनी चाहिए। मतदाता सूची को आधार और अन्य डिजिटल पहचान से जोड़कर गड़बड़ियों को कम किया जा सकता है। सभी दलों को एक संयुक्त मंच पर बैठकर मतदाता सूची की शुद्धता के लिए रणनीति बनानी चाहिए, ताकि सियासत कम हो।
मतदाता सूची पर जनता का भरोसा
वोटर लिस्ट और SIR को लेकर सियासत भारतीय लोकतंत्र की एक पुरानी बीमारी है। नेहरू और इंदिरा गांधी के कार्यकाल में तकनीकी और प्रशासनिक कमियों के कारण गड़बड़ियां थीं, लेकिन आज की सियासत में इसे राजनीतिक हथियार बनाया जा रहा है। सोनिया गांधी का नागरिकता विवाद एक गंभीर मुद्दा है, लेकिन इसका 40 साल बाद उठना सियासी मंशा को दर्शाता है। विपक्ष और सरकार दोनों को चाहिए कि वे लोकतंत्र की मजबूती के लिए मिलकर काम करें, न कि एक-दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश करें। निर्वाचन आयोग को अपनी स्वायत्तता और पारदर्शिता को और मजबूत करना होगा, ताकि मतदाता सूची पर जनता का भरोसा बना रहे।