प्रकाश मेहरा
नई दिल्ली। सतरहवीं लोकसभा, बल्कि संसद का शीतकालीन सत्र जिस तरह से संपन्न हुआ, वह सत्ता पक्ष और विपक्ष, किसी के लिए बहुत अच्छा नहीं कहा जा सकता। वैसे तो हरेक सत्र से देश को एक सकारात्मक दिशा मिलने की अपेक्षा रहती है, मगर इस सत्र से खास उम्मीद थी, क्योंकि यह न सिर्फ नए संसद भवन का पहला पूर्णकालिक सत्र था, बल्कि यह लोकसभा अपने आखिरी पड़ाव पर है। इसका अगला सत्र बजट का होगा और उसके बाद तमाम सांसद आम चुनाव में चले जाएंगे।
सत्र में ऐतिहासिक विधेयक पारित
मगर दुर्योग से इसके हिस्से आजाद भारत के संसदीय इतिहास में सर्वाधिक सांसदों के निलंबन का नकारात्मक रिकॉर्ड तो दर्ज हुआ ही, यह संसद की सुरक्षा में सेंध की गंभीर चिंता भी छोड़ गया। निस्संदेह, सरकार इस सत्र में कई ऐतिहासिक विधेयकों को पारित कराने में सफल रही, खासकर आईपीसी, सीआरपीसी व साक्ष्य अधिनियम की जगह भारतीय न्याय संहिता को पारित किए जाने के लिए इसे भावी पीढ़ियां याद करेंगी। मगर इनके साथ यह तथ्य भी नत्थी होगा कि जब यह विधेयक दोनों सदनों से पारित हो रहा था, तब विपक्षी बेचें लगभग खाली थीं। यह एक सुखद तस्वीर नहीं हो सकती।
सत्ता पक्ष और विपक्ष में तनातनी
संसद में गतिरोध या सत्ता पक्ष व विपक्ष में तनातनी कोई नई बात नहीं है, बल्कि यह जीवंत लोकतंत्र का एक लाजिम पहलू है, मगर इसकी भी एक सीमा है और उसका ख्याल दोनों पक्षों को रखना पड़ता है। निस्संदेह, सदनों के संचालन में महती जिम्मेदारी सत्ता पक्ष की होती है और प्रायः संसदीय कार्य मंत्री की काबिलियत ही बेहतर ‘फ्लोर मैनेजमेंट के आधार पर आकी जाती है। मगर विडंबना यह है कि हाल के वर्षों में केंद्रीय विधायिका की बात हो या फिर राज्य विधायिकाओं की, संसदीय गतिरोधों के दौरान अक्सर विभागीय मंत्रियों की सक्रियता उभरकर सामने नहीं आती। संसदीय कार्य मंत्रियों को चूंकि सभी दलों के शीर्ष नेतृत्व के साथ तालमेल बिठाना पड़ता है, इसलिए वे अक्सर प्रतिपक्ष पर कटु राजनीतिक टिप्पणी करने से बचते हैं, मगर मौजूदा समय में ऐसी स्वस्थ परंपराएं अपना वजूद खो रही हैं, जिसका खामियाजा हमारे संसदीय लोकतंत्र को भुगतना पड़ सकता है।
निलंबन पर विपक्ष का धरना
विपक्षी सांसदों ने दोनों सदनों से अपने निलंबन के विरोध में शुक्रवार को जंतर-मंतर पर धरना दिया और केंद्र सरकार को घेरने की कोशिश की। मगर सवाल यह है कि इस सत्र को ऐतिहासिक बनाने के लिए क्या उन्होंने अपने श्रेष्ठ संसदीय आचरण का प्रदर्शन किया? विपक्ष की यह संसदीय जिम्मेदारी थी कि विभिन्न विधेयकों पर अपने विचारों से वह एक मुकम्मल कानून बनाने में संसद की मदद करता, मगर उसने मंत्री विशेष के बयान पर अड़कर रणनीतिक चूक की और सरकार के लिए रास्ता सुगम ही बनाया। फिर संसद के भीतर उसकी ओर से लगातार आसन को लक्षित किया जाता रहा और निलंबन के बाद संसद परिसर में जिस तरह से सभापति का निरादर किया गया, उसमें वह सत्ता पक्ष से किसी सौहार्द की अपेक्षा भी कैसे कर सकता था ?
आगामी 2024 चुनाव में असर
इस पूरे सत्र के दौरान दोनों पक्षों से चूक हुई है और दोनों ने एक सुनहरा मौका गंवा दिया है। सत्ता पक्ष और विपक्ष आगामी आम चुनाव के मद्देनजर अपनी-अपनी पृष्ठभूमि तैयार करने में भूल गए कि दोनों को एक-दूसरे की आगे भी जरूरत पड़ेगी। उनको नहीं भूलना चाहिए कि उनके आचरण पर भारतीयों की ही नहीं, बल्कि तमाय मुल्कों में लोकतंत्र की चाह रखने वाले लोगों की भी पैनी नजर रहती है।
संसद में सत्ता पक्ष और विपक्ष में तनातनी नई बात नहीं है, यह जीवंत लोकतंत्र का एक लाजिम पहलू है, मगर इसकी भी एक सीमा है, जिसका ख्याल दोनों को रखना चाहिए- प्रकाश मेहरा