डॉ. दर्शनी प्रिय
प्राय: कहा जाता है एक औरत आगे बढ़ेगी तो समूचा परिवार, समाज और राष्ट्र आगे बढ़ेगा। स्त्री को केंद्र में रखकर गढ़ी गई इस उक्ति को समता, संतुलन समावेशीकरण के लिहाज से यदि सच मान भी लिया जाए तो गैरबराबरी का कलंक अब तक समाज के दामन से पूरी तरह धुल जाना चाहिए था पर ऐसा परिलक्षित नहीं होता। समाज में आर्थिक, राजनैतिक, शैक्षिक और सामाजिक मोचरे पर भले ही महिलाओं को समान अधिकार देने की पैरोकारी की जाती रही हो, लेकिन वास्तविकता मीलों दूर है। हाल ही में ओडिशा की महिला क्रिकेटर के साथ हुई आत्महत्या की घटना इस विमर्श के आधार को और पुख्ता करती है।
महिला क्रिकेटर राजश्री स्वाई की संदिग्ध परिस्थिति में मौत से परिवार में उपजे सवाल खेल के क्षेत्र में भेदभाव और अनियमितता के दावों को मजबूत करते हैं। राजश्री के पास मिले सुसाइड नोट में भेदभाव की बात लिखी है। साथी खिलाडिय़ों का भी मानना है कि अंतिम रूप से चयनित खिलाडिय़ों की सूची में नाम नहीं होने के चलते राजश्री बेहद तनाव में थी। राजश्री ने घर पर फोन कर कहा था कि वह अच्छा खेलती है उसे खुद पर विश्वास है फिर भी उसे मौका नहीं दिया जा रहा। बेहद दुखद और चौंकाने वाली इस घटना ने देश को हतप्रभ कर दिया है। सवाल है क्या ऐसे हालात एक दिन में उपजे हैं। जवाब है नहीं। जाहिर है इसके पीछे सैंकड़ों दिनों की भीषण मानसिक यंतण्रा, दमघोटू गलाकाट प्रतियोगिता, जीत का दबाव और प्रतिभा के साथ छेड़छाड़ जैसे बिंदू जिम्मेवार रहे हैं। हालात से संघर्ष कर, परिवार और समाज से खड़ी खोटी सुनकर बेटियां निषेध की परिधियों को लांघकर किसी तरह खुद को बाहर निकालती है और खेल जैसे क्षेत्र में स्थापित करने का साहस दिखा पाती है। तिस पर भेदभाव, असमानता और गैर बराबरी का जहर उनके आत्मविश्वास को इस कदर क्षत-विक्षत करता है कि वे खुद की आत्महंता बन जाती है। राजश्री के मामले में भी यही हुआ है।
उपरोक्त घटनाएं इस बात की बानगी है कि देश में युवा प्रतिभाएं मानसिक और भावनात्मक रूप से कमजोर पड़ रही है। असफलता, कॅरियर खराब होने का भय और परिवार समाज से दुत्कारने का डर उन्हें मौत के मुहाने तक खींच रहा है। समय आने पर ये तो ज्ञात हो जाएगा कि आत्महत्या की वजह क्या रही, लेकिन अब हमारे सतर्क होने का समय है। युवा खिलाडिय़ों को मनोवैज्ञानिक रूप से प्रशिक्षित किए जाने के साथ भावनात्मक सहयोग की भी जरूरत है। ऐसी चयन समितियों पर अंकुश लगाने के साथ जहां भेदभाव होते हो, हमें युवाओं को मानसिक रूप से जीवन के प्रत्येक हार जीत के लिए तैयार करना होगा। देश के प्रतिभाशाली खिलाडिय़ों को आत्महंता बनने से रोकने और उन्हें एक सुरक्षित माहौल देने के लिए सभी खेल संस्थानों, संघों और प्राधिकरणों और चयन समिति को एकजुट होकर काम करना होगा। खिलाड़ी चाहे महिला हो या पुरु ष वे हमारी राष्ट्रीय संपदा है। उन्हें एक सुरक्षित और संस्कारित और समतापूर्ण माहौल में निखरने का अवसर मिलना ही चाहिए। मानसिक, शारीरिक और भावनात्मक उन्नयन एक स्वस्थ्य खेल परंपरा की पहली शर्त है अगर वही दूषित हो तो देश अंतरराष्ट्रीय स्तर के उम्दा खिलाड़ी कैसे तैयार कर सकेंगे। बदलाव की इस मुहिम में अभिभावक और खेल संस्थाओं को तटस्थ होकर सोचना होगा विशेषकर महिला खिलाडिय़ों के पक्ष में क्योंकि उनकी राह बेहद मुश्किल भरी होती है।