नई दिल्ली: इजराइल पर हमास के हमले के बाद से ही भारत में इस मुद्दे पर काफी बहस हो रही है और हमेशा की तरह इस मुद्दे पर भी लोग दो अलग अलग विचारों में बंट गये हैं और इजराइल हमले की भारत की राजनीति पर असर ना पड़े, ये संभव भी नहीं था। जाहिर है, भारत के वोट बैंक पर भी इजराइल-हमास की लड़ाई का असर पड़ेगा, लिहाजा राजनीति भी उस हिसाब से अपनी अपनी बिसात बिछा रही है।
लेकिन, इजराइल पर हमले के बाद कांग्रेस की प्रतिक्रिया आने में काफी वक्त लगा और ऐसा लगा, कि कांग्रेस शुरूआत में इजराइल में हमास के व्यापक नरसंहार को देखकर असहज अवस्था में थी। भारत की मुख्य विपक्षी पार्टी जहां फ्लिप-फ्लॉप अवस्था में थी, वहीं सत्तारूढ़ बीजेपी, आतंकवादी हमले की निंदा करने और इज़राइल के साथ एकजुटता व्यक्त करने में स्पष्ट रही है।
बदले में, चुनावी मौसम में आतंकवाद से लड़ने की प्रतिबद्धता पर दोनों दलों के बीच राजनीतिक खींचतान में एक नई शिकन आ गई है।
भारत और मध्य पूर्व के बीच इटरेक्टिक पॉलिटिकल गतिशीलता और गहरी हो गई है। कुछ दशक पहले तक भारत पर निश्चित तौर पर मुस्लिम देश दबाव बनाने में कामयाब हो जाते थे, लेकिन 21वीं सदी में हालात बदल गये हैं। भारत की विदेश नीति की प्रकृति बदल रही है और हाल के दशकों में जैसे मध्य पूर्व विकसित हुआ है, वैसे ही भारतीय सोच भी विकसित हुई है।
लेकिन प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यकाल के दौरान मध्य पूर्व पर भारतीय नीति में बदलाव अधिक परिणामी रहे हैं।
भारत की मध्य-पूर्व नीति में पांच महत्वपूर्ण परिवर्तन आए हैं।
पहला परिवर्तन
पीएम मोदी ने इजरायल के साथ भारत के संबंधों को बंद कमरे से बाहर लाया और इजराइल को अपनाने में पहले जो हिचकिचाहट देखी जाती थी, उसे पूरी तरह से खत्म कर दिया। हालांकि, इजराइल से दूरी बनाने की नीति पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने अपने कार्यकाल में खत्म की थी और पी वी नरसिम्हा राव ने इज़राइल के साथ पूर्ण राजनयिक संबंध स्थापित किये।
जबकि, अटल बिहारी वाजपेयी ने भारत-इजराइल रणनीतिक संबंधों की नींव रखी और इजरायली प्रधान मंत्री की मेजबानी के लिए दिल्ली की अनिच्छा को समाप्त किया। लेकिन यूपीए सरकार की मध्य-पूर्व नीति में इजराइल फिर से अछूत होने लगा। जाहिर तौर पर इसकी सबसे बड़ी वजह वामपंथी पार्टियों का दबाव और वोट बैंक पॉलिटिक्स थी। लिहाजा, कांग्रेस सरकार के दौरान भारत ने इजराइल के संबंधों को लेकर पर्दा डालने की नीति अपनाई।
इसके विपरीत, मोदी सरकार ने भारत और इज़राइल के बीच के संबंधों को तेजी से आगे बढ़ाया और इस दौरान भारत के हितों को सबसे आगे रखा गया। नरेन्द्र मोदी, इजराइल की यात्रा करने वाले पहले भारतीय प्रधानमंत्री बने, वहीं इजराइल में भी जैसा अमेरिकी राष्ट्रपति का स्वागत किया जाता है, उसी तरह का स्वागत नरेन्द्र मोदी का किया गया।
दूसरा परिवर्तन
एनडीए सरकार ने भारत की स्थिति को जमीनी हकीकत के करीब लाने की कोशिश की है। जबकि कांग्रेस का माननाहै, कि दिल्ली को “फिलिस्तीनी कारण” का खामियाजा भुगतना होगा (या कम से कम इसका दिखावा करना होगा), वहीं, एनडीए सरकार इस तथ्य के साथ सामने आई है, कि कई अरब देशों ने बिना किसी पूर्व शर्त के इजरायल के साथ संबंध बनाने शुरू कर दिए हैं।
हमास और अन्य ताकतों के हिंसक मजहबी आतंकवाद से न केवल इजराइल, बल्कि पश्चिम एशिया के उदारवादी अरब देशों को भी खतरा है। लिहाजा, इन साझा चिंताओं ने इज़राइल और कई अरब राज्यों के बीच सहयोग के लिए काफी जगह खोल दी है। हालांकि, यह अफ़सोस की बात है, कि प्रधान मंत्री बेंजामिन नेतन्याहू की चरमपंथी राजनीति ने इज़राइल को अरबों के साथ साझेदारी में “न्यू मिडिल ईस्ट” बनाने की संभावनाओं का पूरा फायदा उठाने से रोक दिया।
तीसरा परिवर्तन
फिलिस्तीन के अंदर भी फिलिस्तीन प्राधिकरण और गाजा में हमास के बीच विवाद काफी गहरा हो गया है। हालांकि ये धारणा, कि मोदी सरकार फिलिस्तीन पर भारत की पारंपरिक नीति से अलग लाइन ले रही है, ये पूरी तरह से सच नहीं है।
मोदी सरकार की नीति में अभी भी ‘फिलिस्तीन कारण’ बना हुआ है, लेकिन मोदी सरकार ने हमास के खिलाफ साफ स्टैंड लिया है। प्रधानमंत्री मोदी ने साल 2018 में रामल्ला की यात्रा भी की थी और इजरायल-फिलिस्तीन संबंधों में संकट के समाधान के लिए दो-राज्य समाधान का समर्थन करना जारी रखा था।
लेकिन, मोदी सरकार आतंक के सवाल को टालने के लिए तैयार नहीं है, जैसा कि कांग्रेस कार्य समिति ने सोमवार को किया था या हमास हमले पर चुप रहने के लिए “मूल कारणों” (फिलिस्तीन प्रश्न) के पीछे छिपना चाहती थी। कांग्रेस ने अभी तक हमास के हमलों की निंदा नहीं की है और वजह साफ है, अगले साल चुनाव होने हैं और हमास की आलोचना का मतलब मुस्लिमों को नाराज करना होगा।
चौथा परिवर्तन
इज़राइल के साथ भारत की वर्तमान एकजुटता पर राजनीतिक फोकस पिछले दशक में अरब दुनिया के साथ दिल्ली के संबंधों के असाधारण परिवर्तन को छुपाता है। अरब मुद्दों के समर्थन पर अपनी सभी बयानबाजी के बावजूद, यूपीए सरकार अरब देशों के साथ संबंधों को आधुनिक बनाने के लिए संघर्ष करती रही।
लेकिन एनडीए शासन के तहत, संयुक्त अरब अमीरात, सऊदी अरब और मिस्र, भारत के महत्वपूर्ण रणनीतिक साझेदार के रूप में उभरे हैं। यदि भारत अतीत में तेल समृद्ध खाड़ी के प्रति अपने व्यापारिक दृष्टिकोण से परेशान था, तो खलीजी राजधानी आज आर्थिक विकास में भारत को बड़े पैमाने पर योगदान देने का वादा करती है।
पांचवां परिवर्तन
मोदी सरकार ने मध्य पूर्व में भारत के पारंपरिक पश्चिम विरोधी रुख को समाप्त कर दिया। यानि, भारत पहले मध्य पूर्व में ये दिखाने की कोशिश करता था, कि वो पश्चिम को ज्यादा पसंद नहीं करता है, लेकिन मोदी सरकार ने इस नीति को खत्म कर दिया और भारत ने इजराइल और यूएई के साथ I2U2 ग्रुप का निर्माण भी किया है। इसके अलावा सऊदी अरब, यूएई और अमेरिका के साथ मिलकर भारत ने मिडिल ईस्ट होते हुए यूरोप पहुंचने का गलियारा तैयार करने के लिए भी समझौता किया है।
हमास के आतंक की भारत की स्पष्ट आलोचना उसे पश्चिम के समान ही खड़ा करती है, यहां तक कि रूस, चीन और वैश्विक दक्षिण के अधिकांश देश आतंकवादी हमले पर “डबल स्टैंडर्ड” वाली प्रतिक्रिया दे रहे हैं। जबकि, भारत की प्रतिक्रिया की स्पष्टता, उसकी इंडिया-फर्स्ट विदेश नीति को रेखांकित करती है।
सबसे बड़ा परिवर्तन
मोदी सरकार ने मध्य-पूर्व की अपनी विदेश नीति में सबसे बड़ा बदलाव ये किया है, कि भारत और अरब देशों के बीच की कूटनीति में धर्म को पूरी तरह से बाहर निकाल दिया गया है।
धर्म के आधार पर उपमहाद्वीप का विभाजन और इस्लामी एकजुटता के नाम पर मध्य पूर्व में समर्थन जुटाने की पाकिस्तान की कोशिश ने इस क्षेत्र के साथ भारत के संबंधों को गंभीर रूप से जटिल बना दिया। घरेलू स्तर पर मुस्लिम वोटों के लिए कांग्रेस के दावे ने इसे और भी उलझा रखा था।
वहीं, मुस्लिम एकता के नाम पर पाकिस्तान भी भारत को परेशान करता रहता था और कश्मीर पर मुस्लिम देशों का रूख पाकिस्तान से अलग हो सकता है, ये पहली बार भारत ने मोदी सरकार के कार्यकाल में ही देखा है। लिहाजा, मोदी सरकार की बदली मिडिल ईस्ट पॉलिसी से भारत को कई फायदे हुए हैं। लेकिन शायद कांग्रेस उस बदलाव को वोट बैंक पॉलिटिक्स के लिए नजरअंदाज कर रही है।