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समीक्षा: नदियों पर संवाद बढ़ाने पर ज़ोर देती विश्व बैंक की रिपोर्ट

'द रेस्टलेस रिवर: यारलुंग-सांगपो-सियांग-ब्रह्मपुत्र-जमुना' रिपोर्ट में फैक्ट्स का खज़ाना है जो संवाद के लिए ज़रुरी साबित हो सकता है। लेकिन इस रिपोर्ट को पढ़ने वाले सभी लोग आंकड़ों से आगे बढ़कर रिपोर्ट में दिए महत्वपूर्ण सिफारिशों तक नहीं पहुंच पाएंगे।

पहल टाइम्स डेस्क by पहल टाइम्स डेस्क
September 15, 2022
in राष्ट्रीय, विशेष
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नदियां

अपनी यात्रा के दौरान, 75 से अधिक प्रमुख सहायक नदियां यारलुंग-सांगपो-सियांग-ब्रह्मपुत्र-जमुना नदी में बहती हैं। फोटो: गणेश पंगारे

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Joydeep Gupta 


अगर आप पॉलिसी मेकर, रिसर्चर या पत्रकार हैं और यारलुंग-सांगपो-सियांग-ब्रह्मपुत्र-जमुना जैसे विभिन्न नामों वाली नदी से आपका कोई रिश्ता है, तो फिर ‘द रेस्टलेस रिवर: यारलुंग-सांगपो-सियांग-ब्रह्मपुत्र-जमुना’, एक ऐसी रिपोर्ट है जिसे आपको अपने कंप्यूटर की हार्ड डिस्क में सहेज कर रख लेना चाहिए।

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इसमें आंकड़ों का भंडार है जो निश्चित रूप से आपके लिए उपयोगी साबित हो सकते हैं। लेकिन काश विश्व बैंक समूह द्वारा प्रकाशित 428 पेज की इस रिपोर्ट के पहले भाग को फैक्ट्स की एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत नहीं किया गया होता।

इस रिपोर्ट में बेहतरीन तस्वीरें शामिल हैं। लगभग सभी तस्वीरें, इसके संपादकों में से एक, गणेश पंगारे द्वारा ली गई है। लेखकों की सूची देखकर यह समझ आता है कि कौन, किसके विशेषज्ञ हैं।

संपादकों में पंगारे, बुशरा निशात, ज़ियावेई लियाओ और हल्ला माहेर क़द्दूमी के नाम शामिल हैं। ये सभी प्रसिद्ध विशेषज्ञ हैं। रिपोर्ट का दूसरा भाग दिलचस्पी से पढ़ा जा सकता है। लेकिन इस रिपोर्ट का पहला हिस्सा, यानी पृष्ठ 238 तक, सिर्फ़ फैक्टचेक या तथ्य-जांच के लिए रेफ्रन्स मटीरीअल के रूप में ही इस्तेमाल हो सकता है।

इस रिपोर्ट में बहुत सारे फैक्ट्स दिए गए हैं। उदाहरण के तौर पर: ट्रांस बाउंड्री नदी बेसिन में सबसे हालिया जनसंख्या अनुमान 13 करोड़ लोगों का है। यारलुंग सांगपो के उद्गम स्थल अंगसी ग्लेशियर के चीनी वैज्ञानिकों द्वारा हाल ही में की गई खोज के बारे में भी विवरण दिया गया है। जलवायु परिवर्तन के युग में यह पता लगाना महत्वपूर्ण है: एक प्रमुख सहायक ग्लेशियर, चेमायुंगडुंग का अध्ययन करने वाले चीनी वैज्ञानिकों ने 2011 में बताया कि 1974 और 2010 के बीच इसके क्षेत्र में 5.02 फीसदी की कमी आई थी और इसके आगे का निकला हुआ हिस्सा प्रतिवर्ष 21 मीटर की दर से अपना स्थान छोड़ रहा था।

घड़ियाल
बेहद नाज़ुक श्रेणी में रखे गए लुप्तप्राय घड़ियाल- मछली खाने वाला मगरमच्छ- एक समय पाकिस्तान से म्यांमार तक मीठे पानी की नदी प्रणालियों में पाए जाते थे। आज ये भारत और नेपाल में कुछ ही स्थानों पर पाए जाते हैं। (फोटो: गणेश पंगारे)

रिपोर्ट में हाइड्रो-मॉर्फोलॉजी यानी जल-आकृति विज्ञान, बायोडायवर्सिटी यानी जैव विविधता, कृषि, जल विद्युत, प्रदूषण के बारे में जानकारियां हैं। यारलुंग सांगपो दुनिया की सबसे ऊंची नेविगेबल रिवर यानी नौगम्य नदी (नौगम्य किसी जलनिकाय में जल की गति की एक स्थिति है जिसमें किसी नदी, नहर, या झील की गहराई, चौड़ाई और इसमें बहने वाले जल की गति इतनी हो कि कोई जलयान इसे आसानी से पार कर जाये। मार्ग में आने वाली बाधाएं जैसे कि चट्टान और पेड़ ऐसे हों कि उनसे आसानी से बचकर निकला जा सके, साथ ही पुलों की निकासी भी पर्याप्त होनी चाहिए। पुल इतने ऊंचे हों कि पोत इनके नीचे से आसानी से निकल जाये) है। और फिर यह भारत में प्रवेश करते ही सियांग के रूप में परिवर्तित होने के लिए दुनिया की सबसे गहरी घाटी में गिरती है। इनके अलावा, कई अन्य बेहद महत्वपूर्ण जानकारियों का जिक्र इस रिपोर्ट में है।

रिपोर्ट से आपको पता चलता है कि पूरे बेसिन में सर्दियों का औसत तापमान आधा डिग्री बढ़ गया है, और तिब्बत में ग्लेशियर, किस हद तक जलवायु परिवर्तन के कारण पीछे हट रहे हैं। ये सभी महत्वपूर्ण जानकारियां हैं। लेकिन इन जानकारियों को कुछ इस तरह से प्रस्तुत किया गया है कि बेसिन पर पहले से काम कर रहे लोगों को छोड़कर, शायद ही कोई और इन जानकारियों की तरफ आकर्षित हो।

रिपोर्ट में एक महत्वपूर्ण सिफारिश है: “बेसिन योजनाकारों के लिए किसी भी तरह के अफसोस की गुंजाइश नहीं है, उनको अपस्ट्रीम में पानी की कम उपलब्धता और डाउनस्ट्रीम में बाढ़ में वृद्धि के लिए तैयार रहना होगा।” लेकिन यह बात भारी-भरकम आंकड़ों के भीतर दब गई है जिससे संभव है कि इस पर ध्यान ही न जाए।

इस रिपोर्ट में भारत और बांग्लादेश में तटबंध-आधारित बाढ़ प्रबंधन प्रथाओं की आलोचना है, लेकिन एक बार फिर यह बात इतने ढेर सारे आंकड़ों के साथ आती है कि हो सकता है कि जल्दी-जल्दी पढ़ने में किसी पाठक का ध्यान एक महत्वपूर्ण सिफारिश पर न जाए: “बदलते समय के साथ बाढ़ प्रबंधन योजनाओं और रणनीतियों के पुन: परीक्षण की आवश्यकता है।”

रिपोर्ट में कहा गया है कि 20वीं सदी के मध्य में ब्रह्मपुत्र घाटी से मछलियों की लगभग 200 प्रजातियां गायब हो गई हैं। ऐसा खासकर असम में सैखोवा घाट और धनश्री मुख के बीच हुआ है। रिपोर्ट में प्रदूषण और अत्यधिक मछली पकड़ने को नियंत्रित करने के लिए आवश्यक कदमों को भी सूचीबद्ध किया गया है। इसमें कहा गया है कि बांध किस तरह से मछली प्रवास मार्गों को रोकते हैं। लेकिन फिर, वही समस्या यहां भी है कि जिस तरह से ये सब प्रस्तुत किया गया है और इतने ज्यादा आंकड़े भर दिए गए हैं कि इसका निष्कर्ष खो सकता है।

यह रिपोर्ट सिर्फ़ उस वक़्त किसी आम पाठक के लिए दिलचस्प बनती है जब चर्चा बेसिन में रहने वाले लोगों की संस्कृति, इतिहास, समाज और आजीविका के बारे में होती है, जहां नीति निर्माण में बेसिन में रहने वाले लोगों को शामिल करने और नीति निर्माण में स्थानीय ज्ञान को जोड़ने के लिए ट्रांस बाउंड्री यानी सीमा पार सहयोग की आवश्यकता की बात का जिक्र है। इस रिपोर्ट में ट्रांस बाउंड्री यानी सीमा पार सहयोग पर कुछ महत्वपूर्ण सिफारिशें हैं:

  • एक बहुउद्देशीय बेसिन-वाइड दृष्टिकोण को बढ़ावा देना
  • पानी के बंटवारे से ध्यान हटाकर पानी के लाभों को बांटने पर ध्यान देना
  • आपसी सहयोग में भरोसा और विश्वास बहाल करना
  • पूर्वी हिमालयी देशों को संयुक्त शोध करने चाहिए
  • अंतरराष्ट्रीय मानकों का पालन करते हुए जल संसाधनों की लागत और लाभों को साझा करने के लिए मेकनिज़म स्थापित करना
  • गंगा-ब्रह्मपुत्र-मेघना बेसिन में जल, जलविद्युत और बाढ़ प्रबंधन में समन्वय, सुविधा और सहयोग को मजबूत करने के लिए
  • मेकनिज़म और संस्थागत व्यवस्था की स्थापना
  • सीमा पार जल संसाधनों के विकास के लिए संयुक्त परियोजनाओं की खोज करना
  • मौसम विज्ञान, जल विज्ञान, आर्थिक और पर्यावरणीय आंकड़ों और सूचनाओं को समय पर साझा करने के लिए एक बेसिन-वाइड डेटा बैंक और प्रणाली स्थापित करना

बाद के इन दिलचस्प अध्यायों में से एक को लेकर प्रख्यात विशेषज्ञ जयंत बंद्योपाध्याय बताते हैं: “गवर्नेंस के लिए परंपरागत दृष्टिकोण, जो कि केवल इंजीनियरिंग संरचनाओं पर आधारित है, अपर्याप्त होगा … भविष्य के हस्तक्षेप सफल हों, इसके लिए इंटरडिसिप्लिनरी नॉलेज यानी बहु विषयक ज्ञान की भूमिका केंद्रीय होगी।”

असम में बाढ़ और वहां के निवासियों के बीच संबंधों के बारे में रिपोर्ट में लिखते हुए, पत्रकार और शोधकर्ता संजय हजारिका कहते हैं, “पर्यावरणीय और आर्थिक स्थितियों की तरह ही बाढ़ एक राजनीतिक प्रक्रिया का भी चित्रण करती है। यह कमजोर और मजबूत के बीच की कहानी है जिसमें एक तरफ गरीब और वंचित हैं तो दूसरी तरफ कानून निर्माता और नीति निर्माता हैं।”

“कुछ मामलों में, नागरिक समाज, इस दरार को भरने के लिए आगे आ रहा है। लेकिन क्या कोई संवाद के बारे में बात कर रहा है … कोई भी कम्युनिकेशन और कॉम्प्रिहेंशन यानी संवाद और अवधारणा के बीच बड़े अंतर को देख सकता है। एक संवाद में सभी प्रमुख हितधारकों- वे लोग जो संघर्ष और उसके परिणाम स्वरूप होने वाली समस्याओं से सबसे अधिक प्रभावित होते हैं, को शामिल किया जाना चाहिए। केवल उन्हीं लोगों को शामिल नहीं किया जाना चाहिए जो खुद को हितधारक- सरकार और उसकी एजेंसियां और साथ ही साथ व्यवसाय- के रूप में देखते हैं। जब तक सबसे अधिक हाशिए पर रहने वाले हमारे लोगों, जो कि अन्य समूहों के बीच नदी पर निर्भर हैं, को वार्ता की मेज पर उनका प्रतिनिधित्व नहीं दिया जाता, तब तक बढ़ते दबाव और हिंसा के अलावा स्थितियां नहीं बदलेगी।”

हाशिये पर रहने वाले लोगों के लिए अपमान से मुक्ति कहां है?
संजय हजारिका, पत्रकार और शोधकर्ता

अपने अनुभवों के आधार पर हजारिका लिखते हैं, “बाढ़ आती है और रातों-रात लोग अपने घरों, खेतों, पशुधन और जीवन की बचत को खो देते हैं, बिना खाद्य सुरक्षा और अपने कपड़ों तक को न बदल पाने के हालात में हफ्तों और महीनों तक तटबंधों और सड़कों पर, मानवीय गरिमा के लिहाज से बुनियादी ज़रूरतों के बिना ही जीने के लिए मजबूर होते हैं। और लोग आजादी की बात करते हैं? हाशिये पर रहने वाले लोगों के लिए अपमान से मुक्ति कहां है? हमारे नाम पर बोलने का दावा करने वालों को सबसे पहले इसका समाधान निकालने दीजिए। दूसरे देशों को घेरने और असहमति जताने वाले लोगों को गाली देने के बजाय, उन्हें हमारे लोगों को बचाने और उनकी आर्थिक स्थिति में सुधार करने के प्रयासों में भाग लेने दें।”

राजनीतिक सीमाओं के पार संवाद होने के लिए विशेषज्ञों, शोधकर्ताओं और पत्रकारों का ये जुनून बहुत ज़रुरी है। साथ ही, डेटा निश्चित रूप से रचनात्मक चर्चा के लिए महत्वपूर्ण आधार है, लेकिन ये ज़रुरी है कि सुपर स्ट्रक्चर आंकड़ों से परे भी जाए। इसे यारलुंग-सांगपो-सियांग-ब्रह्मपुत्र-जमुना बेसिन में रहने वाले लोगों की सामान्य दृष्टि से बनाया जाना चाहिए। यह रिपोर्ट उस संवाद में योगदान दे सकती है। यदि आंकड़ों को प्राथमिक भूमिका में रखने की जगह सहयोग देने वाली भूमिका में रखा जाता तो यह रिपोर्ट ज्यादा पठनीय साबित हो सकती थी और यह अधिक योगदान दे सकती थी।


साभार: www.thethirdpole.net

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