प्रकाश मेहरा
नई दिल्ली। इस बार का आम चुनाव सिर्फ कुछ राजनीतिक शख्सियतों की हार-जीत का फैसला नहीं करने वाला, इसे भारतीय राजनीति में नए मूल्यों की स्थापना का भी जनमत-संग्रह माना जाना चाहिए। आगामी 4 जून का जनादेश सियासत के साथ समाज को भी बहुत गहरे तक प्रभावित करने वाला साबित होगा। इस चुनाव की तुलना हम पहले आम चुनाव से कर सकते हैं।
मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूं, क्योंकि 1951-52 में हुए पहले आम चुनाव ने कुछ बुनियादी सिद्धांत स्थापित किए थे। तब तक हमें आजाद हुए सिर्फ पांच वर्ष हुए थे। विभाजन के घाव हरे थे। राजा-रजवाड़े, जमींदार और भूपति गांवों में गहरी पैठ रखते थे। वे शताब्दियों से सत्ता के हिस्सेदार थे और उन्हें इससे बेदखली कतई मंजूर नहीं थी। कोई कहता भी कि देश आजाद हो गया है, तो उनका जवाब होता कि हमारे पुरखे तमाम सत्तापतियों के बदलने के बावजूद अपना प्रभुत्व कायम रखने में कामयाब थे। हम लोकतांत्रिक भारत में भी अपना स्थान सुरक्षित रख लेंगे।
लोकतांत्रिक देश अपनी पहचान कैसे कायम रख सकेंगे?
गांधीजी की हत्या को तब तक चार बरस बीत चुके थे। गोवा जैसी एकाध रियासत को छोड़ दें, तो देश का एकीकरण भी सरदार वल्लभभाई पटेल की अगुवाई में सलीके से निपट गया था। कश्मीर से कन्याकुमारी और कामाख्या से कच्छ तक तिरंगा पूरी आन-बान-शान से लहरा रहा था। ऐसे में, जवाहरलाल नेहरू स्वप्निल समाजवाद की चमकीली रहगुजर गढ़ने में जुटे थे। पहला आम चुनाव तय करने वाला था कि हमारे अंदर लोकतंत्र के प्रति कितनी आस्था है और बतौर लोकतांत्रिक देश हम-अपनी पहचान लंबे समय तक कैसे कायम रख सकेंगे? कभी ब्रिटिश साम्राज्य के प्रधानमंत्री रहे विंस्टन चर्चिल ने अपनी चिर-परिचित जहरीली भाषा में भविष्यवाणी की थी: ‘भारत की राजनीतिक पार्टियां भारतीय जनता की नुमाइंदगी नहीं करतीं। यह मानना कि वे उनका प्रतिनिधित्व करती हैं, एक भ्रम के सिवा कुछ भी नहीं।… भारत सरकार को इन तथाकथित राजनीतिक वर्गों को सौंपकर दरअसल हम उसे ऐसे बदमाशों को सौंप रहे हैं, जिनका कुछ वर्षों में नामोनिशान भी न बचेगा।’
लोकतंत्र के प्रवाह को बाधित कैसे!
तय है, समूची दुनिया की नजर हम पर थी और हम उस कठिन इम्तिहान में ऐसे पास हुए कि आज तक हमारी जम्हूरियत के कदम नहीं लड़खड़ाए। कोई बाहरी आक्रमण, आपातकाल जैसी घटनाएं अथवा कोई आर्थिक अवरोध भी लोकतंत्र के प्रवाह को बाधित नहीं कर सका।
उसी चुनाव से तय हुआ था कि आने वाले दिनों में राजा- महाराजा इतिहास की पोथियों में सिमट जाएंगे। दलितों और पिछड़ों का ऐतिहासिक पिछड़ापन धीमे-धीमे समाप्त होने लगेगा और अल्पसंख्यकों को बराबर के हक- हुकूक हासिल होंगे। नेहरू ने जिस रास्ते पर चलना शुरू किया था, उसी पर यह देश कुछ व्यवधानों के बावजूद लगभग पैंसठ साल तक चलता रहा, मगर पिछले दस सालों से उसे तर्क-सम्मत तरीके से चुनौती दी जा रही है।
कल का लुभावना सह-अस्तित्व आज तुष्टिकरण कहलाता है। कुछ लोग इसे बहुसंख्यकवाद कह सकते हैं, पर उन्हें भूलना नहीं चाहिए कि खुद को पाक-साफ और लोकतांत्रिक बताने वाले देश भी इससे अछूते नहीं हैं। इस चुनाव में अगर भारतीय जनता पार्टी बहुमत के साथ लौटती है, तो तय हो जाएगा कि पुराने मूल्यों पर नए रंग-रोगन को फैसलाकुन मतदाता ने मन से स्वीकार कर लिया है।
आस्था पर चोट पहुंचाना कैसे हो सकता है?
कभी पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपने राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद की भावनाओं को अनदेखा करते हुए सोमनाथ मंदिर के लोकार्पण में जाने से इनकार कर दिया था। उन्हें लगता था कि एक ‘सेक्युलर’ देश के प्रधानमंत्री को अपनी धार्मिक आस्था के इजहार में सावधानी बरतनी चाहिए। मौजदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सोच उनसे अलग है। वह अजान की आवाज सुनते ही अपना भाषण रोक देते हैं, पर इसके बावजूद राम मंदिर के प्राण-प्रतिष्ठा समारोह में मुख्य यजमान बनने से भी उन्हें कोई परहेज नहीं। जब विपक्ष इस पर ऐतराज करता है, तो भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ताओं का तर्कसम्मत प्रतिप्रश्न होता है- ‘अपनी आस्था का अनुपालन दूसरे की आस्था पर चोट पहुंचाना कैसे हो सकता है?’
लोकतांत्रिक देश के राजनेता
यही नहीं, लोक-कल्याण की नीतियों के ठोस क्रियान्वयन के चलते प्रधानमंत्री मोदी ने लाभार्थियों का एक नया वर्ग तैयार किया है। यह वर्ग जातियों के सदियों पुराने बंधनों की मोदी के मामले में अवहेलना कर देता है। इसके साथ वह महिलाओं और युवकों में अपनी जबरदस्त पैठ बनाने में कामयाब रहे हैं। सीएसडीएस ने एक सर्वे में पाया था कि भारतीय जनता पार्टी को वोट देने वाले दस में से तीन लोग सिर्फ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर भाजपा को वोट देते हैं। इससे पहले सिर्फ जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी यह दर्जा हासिल कर सके थे। याद रहे, यदि वह चुनाव जीतते हैं, तो तीन आम चुनाव लगातार जीतने वाले दूसरे प्रधानमंत्री होंगे। अगर गुजरात के सत्ता-काल को इसमें जोड़ दें, तो यह किसी भी लोकतांत्रिक देश के राजनेता के लिए स्पृहा करने जैसा कीर्तिमान होगा।
सवाल उठता है कि यह मूल्य परिवर्तन हो क्यों रहा है?
विपक्ष कोई सार्थक ‘नैरेटिव’ क्यों नहीं गढ़ पा रहा ? इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि क्षेत्रीय पार्टियों ने मतदाताओं का मन रह-रहकर तोड़ा है। समाजवाद, क्षेत्रवाद, वर्गवाद के आधार पर शुरू होने वाली पार्टियों के नेता सत्ता में आने के बाद पहले जातिवादी हुए और फिर परिवारवादी। इनसे सबसे पहले वे लोग विमुख हुए, जो किसी नेक मकसद से उनके साथ जुड़े थे और फिर परिवार के बोलबाले ने अपने सजातियों में भी दरारें डालनी शुरू कीं। यही वजह है कि परिवार के नियामक के गुजर जाने या शिथिल पड़ जाने के बाद कुनबा देखते-देखते बिखर गया। महाराष्ट्र में ठाकरे और पवार, बिहार में पासवान, उत्तर प्रदेश में पटेल, आंध्र में रेड्डी, झारखंड में सोरेन और हरियाणा में चौटाला परिवार इसके उदाहरण हैं। जरा सोचिए, इन लोगों के समर्थकों के दिल पर क्या बीतती होगी, जिन्होंने इन पार्टियों में अपना भविष्य देखा था और आज वे अपने आदर्श नेताओं के उत्तराधिकारियों को एक-दूसरे के सामने खड़ा पाते हैं?
सांस्कृतिक परिवर्तन की शुरुआत!
इस दौर में जिसने परिवार के साथ सिद्धांतों को भी पकड़े रखा, वे आज भी राज कर रहे हैं। तमिलनाडु में द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम की पकड़ यही प्रमाणित करती है। कर्नाटक के सिद्धारमैया ने जब भाजपा के प्रखर राष्ट्रवाद के सामने अपना आधार सिमटता पाया, तो उन्होंने कन्नड़िगा स्वाभिमान को आगे कर दिया। पिछले दिनों उनका फैसला कि बेंगलुरु में सारे’ साइनबोर्ड’ प्रमुखता के साथ कन्नड़ भाषा का इस्तेमाल करेंगे, खासा चर्चा में रहा। इसका अनुपालन इतनी सख्ती और तत्परता से किया गया कि जिन 50 हजार से अधिक संस्थानों को नोटिस जारी किए गए थे, उनमें से 49 हजार से अधिक ने आनन-फानन में इसे अमली जामा पहना डाला। यह उसी तरह के सांस्कृतिक परिवर्तन की शुरुआत है, जैसी फैजाबाद, इलाहाबाद, अहमद नगर आदि के नाम परिवर्तन के साथ शुरू हुई थी।
मतलब साफ है, 2024 का आम चुनाव देश को तीसरी महाशक्ति बनाने का जनादेश होगा, तो उसके साथ कुछ नए मूल्यों की प्रतिष्ठापना भी होगी, जो आने वाले दिनों में भारतीय राजनीति और समाज के लिए नए नीति-निर्देशक तत्व साबित होंगे।