नई दिल्ली: अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की मुलाकात खत्म तो हो गई है, मगर कई बिंदुओं पर चर्चाओं का भी दौर जारी है. ये मुलाकात दस साल बाद पुतिन की अमेरिका यात्रा के कारण और भी ऐतिहासिक मानी जा रही थी. हालांकि उम्मीदें जितनी बड़ी थीं, नतीजे उतने ही निराशाजनक साबित हुए.
लगभग तीन घंटे की बातचीत के बाद भी यूक्रेन युद्ध पर कोई ठोस समझौता सामने नहीं आ सका. ऊपर से प्रेस कॉन्फ्रेंस भी दोनों नेताओं ने 12 मिनट में निपटा दिया बगैर मीडिया के सवालों के जवाब दिए. ट्रंप-पुतिन वार्ता ने ये साफ कर दिया कि संवाद जरूरी है, लेकिन कठिन. कुल मिलाकर यह मुलाकात उम्मीदें जगाने के साथ-साथ नई चिंताएं भी छोड़ गई है. आइए इसे विस्तार से समझते हैं.
सकारात्मक
पहला: पुतिन का वैश्विक मंच पर लौटना
अलास्का की इस बैठक का सबसे बड़ा हाईलाइट यही रहा कि व्लादिमीर पुतिन एक बार फिर अंतरराष्ट्रीय मंच पर धाक जमाते नजर आए. फरवरी 2022 में यूक्रेन पर हमले के बाद पश्चिमी देशों ने रूस को पूरी तरह अलग-थलग कर दिया था, कड़े प्रतिबंध लगाए गए थे. लेकिन अब वापसी हुई तो सीधे दुनिया के सबसे ताकतवर शख़्स अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के साथ. ट्रंप ने न सिर्फ रेड कार्पेट बिछाकर बल्कि तालियों और मुस्कुराहटों से पुतिन का स्वागत किया. इस शानदार स्वागत ने पुतिन को वो मोमेंट दे दिया जिसकी उन्हें लंबे समय से तलाश थी.
दूसरा: ट्रंप फिर से पुतिन के लिए करेंगे बैटिंग
ट्रंप ने पुतिन का स्वागत करते हुए संकेत दिया कि वे उनके लिए राजनयिक बैटिंग करने को तैयार हैं. अमेरिका के पारंपरिक सहयोगी यूरोपीय देशों के बीच यह संदेश गया कि ट्रंप की प्राथमिकता रूस को बातचीत की मेज पर बनाए रखना है, भले ही इसके लिए पश्चिमी एकजुटता पर दबाव क्यों न पड़े.
तीसरा: भारत की भूमिका और ट्रम्प का दांव
इस बैठक के राजनीतिक और कूटनीतिक संकेत भारत के लिए भी अहम हैं, क्योंकि बातचीत से पहले ट्रंप ने भारत के रूस से तेल आयात को निशाना बनाते हुए बयान दिया था. एक रेडियो इंटरव्यू में ट्रम्प ने दावा किया कि भारत पर लगाए गए अमेरिकी टैरिफ ही वह कारण हैं, जिनकी वजह से पुतिन वार्ता को तैयार हुए. विशेषज्ञ मानते हैं कि यह दबाव भारत के जरिए रूस को संदेश देने की ट्रंप की रणनीति का हिस्सा है. चूंकि मीटिंग में कुछ ठोस नहीं निकला है तो इस स्थिति में अमेरिका भारत को फिर से टारगेट नहीं कर सकता.
नकारात्मक
पहला: तीन साल से जारी जंग खत्म नहीं होगी
नकारात्मक पक्षों की बात करें तो सबसे पहली चिंता यही है कि बातचीत के बावजूद युद्ध जारी रहेगा. किसी भी समझौते पर न पहुंच पाने से जमीनी हालात जस के तस बने रहेंगे और आम लोगों की पीड़ा बढ़ती जाएगी. रूसी राष्ट्रपति पुतिन यूक्रेन के साथ युद्ध अपनी शर्तों पर खत्म करना चाहते हैं. यही एक वजह भी रही होगी कि अलास्का की मीटिंग से युद्ध को खत्म करने की दिशा में कोई सहमति नहीं बन पाई.
दूसरा: यूरोप और अमेरिका पर भरोसे की कमी
दूसरी बड़ी चिंता यह है कि यूरोप और अमेरिका के सहयोगी देशों का भरोसा कम होगा. अगर अमेरिका रूस को लेकर नरमी दिखाता है, तो यूरोपीय राष्ट्रों को लग सकता है कि उनके सुरक्षा हितों को दरकिनार किया जा रहा है. इस मीटिंग से पहले भी यूरोप में यूक्रेन के सहयोगी देशों ने जोर देकर कहा था कि रूस के साथ किसी भी तरह की शांति वार्ता में यूक्रेन को शामिल किया जाना चाहिए.
तीसरा:अमेरिका के लिए संतुलन साधने की चुनौती
तीसरी अहम चुनौती अमेरिका के लिए रूस और यूरोप के बीच संतुलन साधने की है. एक ओर ट्रंप पुतिन के साथ संबंध सुधारना चाहते हैं, दूसरी ओर उन्हें नाटो देशों की अपेक्षाओं को भी नजरअंदाज नहीं करना है. यह संतुलन साधना अमेरिका की विदेश नीति के लिए मुश्किल राह बन सकता है.