एक साथ इन दोनों पैंतरेबाजियों का हिस्सा रहना किसी भी देश के लिए संभव नहीं होगा। क्या ये संभव है कि कोई देश साथ-साथ चीन के खिलाफ अमेरिकी लामबंदी और दुनिया पर अमेरिकी वर्चस्व खत्म करने की चीनी योजना का हिस्सा बना रहे?
अमेरिकी पत्रिका फॉरेन अफेयर्स को अमेरिकी शासक वर्ग का मुखपत्र समझा जाता है। उसी पत्रिका में आए एक ताजा लेख में साफ कहा गया है कि भारत एक साथ पश्चिमी देशों और रूस-चीन के खेमों में रहे, यह स्थिति ज्यादा लंबे समय तक नहीं चल सकती। वो मौका शायद जल्द ही ऐसा आएगा, जब अमेरिका उससे अपना पक्ष चुन लेने के लिए कहेगा। इस राय से सहमत होने की पूरी वजहें हैं। ये दोनों खेमे एक दूसरे के खिलाफ पैंतरेबाजी में जुटे हुए हैँ। इसके बीच इन पैंतरेबाजियों का हिस्सा रहना किसी भी देश के लिए संभव नहीं होगा। क्या ये संभव है कि भारत एक साथ चीन के खिलाफ अमेरिकी लामबंदी और दुनिया पर अमेरिकी वर्चस्व खत्म करने की चीनी योजना का हिस्सा बना रहे? इस ताजा खबर पर गौर कीजिए। ईरान ने शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) के सामने एक नई मुद्रा तैयार करने का प्रस्ताव रखा है। ईरान ने कहा है कि एससीओ के सदस्य देशों को उसी प्रस्तावित मुद्रा के जरिए आपस में कारोबार करना चाहिए। ईरान ने कहा है कि अपनी मुद्रा होने पर एससीओ के सदस्य देश पश्चिमी प्रतिबंधों के असर से भी खुद बचा सकेंगे।
ईरान उन देशों में शामिल है, जिन पर अमेरिका और उसके साथी देशों ने कड़े प्रतिबंध लगा रखे हैँ। इन देशों में रूस और चीन भी हैँ। गौरतलब है कि रूस और चीन के बीच आपसी मुद्रा में कारोबार में बीते तीन महीनों में भारी बढ़ोतरी हुई है। बीते तीन महीनों में इन दोनों देशों के बीच चार बिलियन डॉलर का भुगतान रुबल और युवान में हुआ। ये उसके एक साल पहले की तिमाही की तुलना में एक हजार प्रतिशत से भी ज्यादा है। तो साफ है कि रूस, चीन और ईरान डॉलर का विकल्प ढूंढना चाहते हैँ। क्या भारत भी इस प्रयास में सहभागी बनेगा? और ऐसा हुआ तो क्या अमेरिका को यह बर्दाश्त होगा? जानकारों का कहना है कि अगर एससीओ में ईरान के प्रस्ताव पर सहमति बनी, तो उसे अमेरिकी वर्चस्व वाली अंतरराष्ट्रीय वित्तीय व्यवस्था के लिए सीधी चुनौती के रूप में देखा जाएगा। अब देखने की बात होगी कि इस जटिल स्थिति से भारत कैसे निपटता है?