नेटफ्लिक्स पर आ रही नई-नई सीरीज देखें तो लगता है कि मानो इस देश में कहानियों और कंटेंट का कितना जबर्दस्त अकाल है. अगर आइडिया के स्तर पर कोई कहानी नई लग भी रही हो तो उसने देखने के बाद तो लगता है कि अपने ही बाल नोच लो.
पिछले काफी समय से नेटफ्लिक्स पर रिलीज होने वाली एक नई सीरीज को लेकर काफी हंगामा बरपा हुआ था. नाम था- ‘कॉल माय एजेंट: बॉलीवुड’. नाम में एक किस्म का नयापन था. टीजर, ट्रेलर और सीरीज का पोस्टर देखकर लग रहा था कि दिवाली के पहले कुछ मजेदार इंटरटेन्मेंट होने वाला है.
बॉलीवुड के इतने सारे पॉपुलर चेहरों और ग्लैमर से भरी हुई सीरीज की कास्टिंग ही सबसे रोचक जान पड़ रही थी. रजत कपूर से लेकर सोनी राजदान, लारा दत्ता, रिचा चड्ढा, सारिका, अक्षरा हसन, नंदिता दास और जैकी श्रॉफ तक लग रहा था मानो पूरा बॉलीवुड ही इसमें समा गया है. और मार्केटिंग तो ऐसे हो रही थी कि मानो बॉलीवुड के कितने सारे राज खुलने वाले हैं. जाहिर है, आइडिया में एक नयापन तो था.
लेकिन अगर आपने इस वीकेंड ये सीरीज देख ली है तो बताने की जरूरत नहीं कि गुब्बारे में सूई चुभोई जा चुकी है. और अगर आप आने वाले दिनों में इसे देखने की योजना बना रहे हैं तो आपका भगवान ही मालिक है. इस सीरीज को देखने के बाद होगा यूं कि आप आसमान से गिरकर सीधे खजूर के पेड़ पर जा लटकेंगे. उम्मीदों का फुग्गा जितनी तेजी से फूल रहा है, उतनी ही तेज आवाज के हाथ फटेगा और कान के पर्दे हिल जाएंगे.
कॉल माय एजेंट: बॉलीवुड इतनी खराब सीरीज है कि उसके लिए खराब शब्द का इस्तेमाल करते हुए भी बड़ा खराब लग रहा है. मुमकिन है खराब बुरा मान जाए कि माना कि मैं खराब हूं, लेकिन इतना खराब भी नहीं कि जितनी खराब वो सीरीज है.
किसी भी पैमाने पर कस लीजिए, उसे हर पेपर में सिर्फ जीरो नंबर मिलेंगे. सबसे पहले बात करते हैं कहानी की. मुख्य कहानी ये है कि मुंबई में एक एजेंसी है, जिसका काम बॉलीवुड के सितारों के लिए लॉबिइंग करना, उन्हें रोल दिलाना, फिल्मों के कॉन्ट्रैक्ट साइन कराना आदि है. वही, जो एजेंट काम होता है. सिर्फ बॉलीवुड ही नहीं, पूरी दुनिया की सारी बड़ी फिल्म इंडस्ट्री ऐसे ही एजेंट के थ्रू चला करती हैं. सारा टैलेंट हंट ऐसे ही होता है.
तो कहानी ये है कि इस एजेंसी में काम करने वाला पांच एजेंट हैं और पांचों की पांचों एकदम लचर और एकदम बेकार. किसी भी कैरेक्टर का कोई सिर-पैर नहीं है. फीमेल कैरेक्टर को देखकर लगता है कि उसे सिर्फ लेस्बियन बनाने और सीरीज में थोड़ा ग्लैमर डालने के लिए ठूंसा गया है. बाकी सीरीज के अंत तक ये भी समझ नहीं आता कि ये सारे के सारे चरित्र आखिर इसमें कर क्या रहे हैं.
साफ और थोड़े शब्दों में कहें तो इस सीरीज में न तो कहानी है, न डायरेक्शन है, न कंटेंट हैं, न कैरेक्टर है, न सिर है और न ही पैर है.
कहानी कहां से शुरू होकर कहां जाती है, कुछ पता ही नहीं चलता. बीच में भदोही जाते-जाते भटिंडा के रास्ते मुड़ जाती है. लुकिंग लंदन, टॉकिंग टोक्यो टाइप इस सीरीज को देखते हुए ऐसा लगता है कि बनाने से पहले बनाने वालों को कोई आइडिया नहीं था कि वो बनाना क्या चाह रहे हैं.
हालांकि कहा तो ये जा रहा है कि ये सीरीज एक फ्रेंच सीरीज की कहानी से प्रेरित है. फ्रेंच सीरीज तो हमने नहीं देखी, लेकिन गट फीलिंग कहती है कि वो चाहे कितनी भी खराब हो, इसी बॉलीवुडिया सीरीज जितनी खराब तो नहीं होगी.
ऐसा लगता है कि पांच लोगों को इकट्ठा करके उन्हें बस कैमरे के सामने खड़ा कर दिया गया. वहीं सेट पर बैठे-बैठे कहानी लिख दी गई और कलाकारों से कहा गया कि अपने मन से जो डायलॉग अच्छा लगे, बोल दें. बेसिकली सीरीज का हर चरित्र चिडि़याघर के छूटे हुए जानवरों की तरह जान पड़ता है, जो एकदम से बेलगाम हो गया है और बावरा होकर इधर-उधर भाग रहा है.
कुछ रंगीन बैकग्राउंड, सुंदर सेट, हसीन चेहरों और खूबसूरत कपड़ों के अलावा इस पूरी सीरीज में देखने लायक कुछ भी नहीं है. एक दिया मिर्जा वाला हिस्सा थोड़ा ठीक-ठाक बन पड़ा है. हालांकि बहुत लचर और दिशाहीन ढंग से सुनाई गई वो कहानी भी थोड़ी बेहतर इसलिए जान पड़ती है क्योंकि उसमें दिया मिर्जा थोड़ी ईमानदार नजर आती हैं. इसका भी पूरा क्रेडिट दिया मिर्जा की क्रेडिबिलिटी को ही जाता है.
कुल मिलाकर हमारा कहना सिर्फ इतना है कि अपने रिस्क पर इसे देखें. और बहुत सारी उम्मीदें लेकर तो बिलकुल भी न देखें. घर के चार काम निपटाते, आलमारी में कपड़े सजाते, डस्टिंग करते हुए इस सीरीज पर एक नजर फिराई जा सकती है. लेकिन ये लगना चाहिए कि काम तो जरूरी कुछ और हो रहा था, सीरीज तो साइड में टेलीविजन पर बस चल रही थी.