Pranay Kumar
किसी भी उदार एवं लोकतांत्रिक समाज में शिक्षा ही परिवर्तन का सबसे सशक्त एवं सबल संवाहक होता है। उसमें वांछित परिवर्तन किए बिना समृद्ध, सशक्त, विकसित एवं आत्मनिर्भर समाज की कल्पना भी नहीं की जा सकती। परंतु परिवर्तन स्वीकार करना तो दूर, दुर्भाग्य से उसकी हर पदचाप पर भारत का तथाकथित उदार एवं प्रगतिशील खेमा विवाद पैदा करना एवं हाय-तौबा मचाना शुरु कर देता है।
ताजा विवाद राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) द्वारा पाठ्यपुस्तकों में किए जा रहे बदलाव पर खड़ा किया जा रहा है। यह विवाद योगेंद्र यादव और सुहास पालशिकर द्वारा परिषद की 6 किताबों से अपना नाम हटाए जाने की माँग के बाद शुरु हुआ। उसके बाद देश के 33 अन्य शिक्षाविदों ने भी एनसीईआरटी की पुस्तकों से अपना नाम हटाने की माँग की और उसके निदेशक को पत्र लिखकर पाठ्यक्रमों में किए जा रहे बदलाव पर विरोध जताया।
अब इस बदलाव के समर्थन में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) के अध्यक्ष जगदीश कुमार समेत देश के शीर्ष विश्वविद्यालयों के कुलपतियों, अनेकानेक शिक्षण-संस्थाओं के निदेशकों, संस्था-प्रमुखों एवं लगभग 240 शिक्षाविदों ने साझा बयान जारी कर आरोप लगाया है कि कुछ लोग अपने स्वार्थ एवं बौद्धिक अहंकार में बीते तीन महीने से परिषद को बदनाम करने की कोशिश कर रहे हैं तथा पाठ्यक्रमों को अद्यतन बनाने की प्रक्रिया में जान-बूझकर अड़ंगा डाल रहे हैं।
उल्लेखनीय है कि पाठ्यक्रम को उपयोगी बनाए रखने के उद्देश्य से एनसीईआरटी समय-समय पर उसमें वांछित परिवर्तन करती रही है। परंतु विगत 17 वर्षों यानी 2006 से पाठ्यपुस्तकों एवं पाठ्यक्रमों में कोई मूलभूत परिवर्तन नहीं किया गया है। हाँ, बच्चों पर पाठों का भार कम करने, विषयवस्तु के दुहराव से बचने एवं स्थानीय, राष्ट्रीय एवं व्यावहारिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए कोविड-काल और उसके बाद के वर्षों में भिन्न-भिन्न कक्षाओं के कुछ विषयों के पाठ्यक्रमों में चंद पाठ जोड़े या घटाए अवश्य गए हैं। सोचने वाली बात है कि जब लगभग हर 15 वर्ष के अंतराल पर पीढ़ियाँ बदल जाती हैं तब क्या नई पीढ़ी की शिक्षा संबंधी सोच, रुचि, अपेक्षा एवं आवश्यकता नहीं बदलेगी? क्या उसकी अभिरुचियों एवं आवश्यकताओं को पाठ्यपुस्तकों में स्थान नहीं मिलना चाहिए? क्या विद्यार्थी-केंद्रित शिक्षा महज़ नारों तक सीमित रह जाएगी?
ज्ञान एवं सूचनाओं के पल-पल विस्फोट वाले आज के तकनीकी युग में पाठ्यक्रमों एवं पाठ्यपुस्तकों को यथावत ढोते रहने की ज़िद क्या तर्कसंगत एवं न्यायोचित कही जा सकती है? क्या यह सत्य नहीं कि बिना परिवर्तन के कोई भी विषय प्रासंगिक, समकालीन एवं जीवनोपयोगी नहीं रह जाएगा? क्या इसमें भी कोई दो राय हो सकती है कि भारत की युवा आबादी के लिए आज मूल्यपरक, कौशल-आधारित रोजगारोन्मुखी शिक्षा की महती आवश्यकता है?
यही कारण है कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 के अंतर्गत छठी कक्षा से ही व्यावसायिक प्रशिक्षण देने की बात कही गई है। इसके लिए मिडिल स्तर पर सप्ताह में ढाई घंटे तथा सेकंडरी स्तर पर तीन घंटे का समय रखने को कहा गया है। विद्यार्थियों के मूल्यांकन में भी व्यावहारिक ज्ञान (प्रैक्टिकल) का मान (वेटेज) 75 प्रतिशत रखा गया है। आज कॉरपोरेट जगत से लेकर अधिकांश संस्थाएँ एक ही समय में एक से अधिक कार्यों में दक्ष एवं कुशल यानी मल्टीटास्किंग अभ्यर्थियों को काम पर रखना पसंद करती हैं। इसके लिए राष्ट्रीय शिक्षा नीति में बहु-विषयक ज्ञान (मल्टी डिसिप्लिनरी) पर बल दिया गया है और मुख्य (कोर) के साथ-साथ सहायक (माइनर) पाठ्यक्रम के चयन का भी विकल्प रखा गया है।
विद्यार्थियों में सहजता, सामाजिकता, सर्जनात्मकता, अनुशासन एवं नेतृत्व-कौशल आदि को बढ़ावा देने के लिए पाठ्य सहगामी क्रियाकलापों, योग एवं खेलकूद आदि की विशेष भूमिका सर्वविदित है। ऐसी गतिविधियाँ उन्हें तनाव एवं अवसाद से मुक्त रखने में न केवल विद्यार्थी-काल में अपितु जीवन भर सहायता करती हैं। क्या इन सभी लक्ष्यों की प्राप्ति पाठ्यक्रम में परिवर्तन के बिना संभव होगी?
ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में आज चीजें बड़ी तेजी से बदल रही हैं। वैश्विक प्रतिस्पर्द्धा वाले आज के दौर में हमें भी विकसित दुनिया के साथ क़दम मिलाकर चलना होगा। इसके लिए शिक्षा के आधारभूत संसाधन, पाठ्यपुस्तकों की विषयवस्तु तथा शिक्षण-पद्धत्ति आदि में आमूल-चूल परिवर्तन करना होगा। क्या यह भी बताने की आवश्यकता है कि भौतिकी, रसायनशास्त्र, जीव विज्ञान, कंप्यूटर, सूचना-प्रौद्योगिकी, वाणिज्य, अर्थशास्त्र, भूगोल एवं पर्यावरण जैसे अनेक विषय अद्यतन न किए जाने की स्थिति में अप्रासंगिक, अनुपयोगी एवं कालबाह्य सिद्ध होंगें? इन विषयों को अद्यतन (अपडेटेड) बनाए रखने के लिए इनसे संबंधित नवीन शोध एवं अनुसंधान के निष्कर्षों को पाठ्यपुस्तकों में अनिवार्यतः सम्मिलित करना होगा।
प्रायः यह देखने में आता है कि इतिहास, साहित्य एवं राजनीतिशास्त्र के पाठ्यक्रमों पर सबसे अधिक विवाद होता है। उसमें थोड़ा-बहुत परिवर्तन किए जाने पर भी विभिन्न राजनीतिक दलों एवं बौद्धिक खेमों की ओर से विरोध का स्वर सुनाई पड़ने लगता है। लेकिन क्या केवल दिल्ली-केंद्रित शासकों के अतिरंजित विवरणों के स्थान पर संपूर्ण भारतवर्ष के राजवंशों का वास्तविक एवं प्रामाणिक विवरण क्या राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता की भावना को विकसित करने में सहायक नहीं होगा? इतिहास की पाठ्यपुस्तकों के माध्यम से क्या इस देश की आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक चिंतन-प्रक्रिया, जीवन-दर्शन एवं त्योहारों-परंपराओं के पीछे की वैज्ञानिकता और सामाजिकता आदि को समझना-समझाना सार्थक एवं उपयोगी नहीं रहेगा?
प्रश्न यह भी उठता है कि इतिहास की विषयवस्तु राजाओं, सामंतों-सुल्तानों या राज्य-विस्तार की आकांक्षा से किए गए आक्रमणों-षड्यंत्रों-संधियों तक ही क्यों सीमित रहनी चाहिए? इतिहास को पराजय नहीं, जय एवं संघर्ष की गाथा के रूप में पढ़ाए जाने पर युवाओं में साहस और स्वाभिमान का संचार होगा। उनके पुरुषार्थ एवं संकल्प को बल मिलेगा। भला कौन नहीं जानता कि साहित्य जड़ों से जोड़ता और मूल्यों को सींचता है! वह शक्ति, शील, सौंदर्य एवं सुरुचि का बोध विकसित करता है। वह छीजते विश्वासों और लुप्त होती जा रही संवेदनाओं के भयावह दौर में जीवन के प्रति आस्था को मज़बूती प्रदान करता है तथा मानवीय मूल्यों के प्रति संवेदनशील बनाता है। क्या उसका उपयोग सामाजिक, सांस्कृतिक, राष्ट्रीय एवं मानवीय संवेदनाओं को जागृत करने के लिए नहीं किया जाना चाहिए?
यह सत्य है कि तमाम उतार-चढ़ाव एवं आरोप-प्रत्यारोप के बीच भी भारतीय लोकतंत्र उत्तरोत्तर सशक्त एवं परिपक्व हुआ है। गिने-चुने की तुलना में भारतीय जन-मन को प्रभावित करने वाले सब प्रकार के राजनीतिक दर्शनों को पढ़ना-पढ़ाना विद्यार्थियों की समझ विकसित करने में सहायक होगा। विविधता में एकता एक नारे या स्लोगन की तरह दुहराया जाता है, पर सामान्य तौर पर विद्यार्थियों की दृष्टि भाषा, लिंग, जाति, क्षेत्र, पंथ आदि के नाम आए दिन होने वाले झगड़े-विवाद पर अधिक जाती है। ऐसे में बाहरी तौर पर दिखाई पड़ने वाले इन तमाम भेदभाव के बीच भी पूरे देश को एकत्व के भाव से जोड़ने वाले तत्त्वों एवं विचारों की व्यापक चर्चा पाठ्यपुस्तकों में होनी चाहिए। विद्यार्थियों में राष्ट्रबोध, नागरिकबोध एवं संवैधानिक मूल्यों के प्रति आस्था विकसित करने पर भला किसी को क्यों आपत्ति होनी चाहिए?
सच तो यह है देश का हर प्रबुद्ध नागरिक एवं जागरूक अभिभावक, शिक्षक व विद्यार्थी पाठ्यक्रम में परिवर्तन की उम्मीद वर्षों से लगाए बैठे हैं। उसमें अनावश्यक विलंब निराशाजनक है। पाठ्यक्रम में परिवर्तन समय की माँग है और उसका विरोध कोरी हठधर्मिता एवं मूढ़ता है।
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं।