अजीत द्विवेदी
वैसे तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दूसरे कार्यकाल की तीसरी सालगिरह 30 मई को है लेकिन आज से ठीक आठ साल पहले यानी 26 मई 2014 को उन्होंने पहली बार प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी। इस लिहाज से बतौर प्रधानमंत्री उनके आठ साल पूरे हो गए। सो, यह मौका है उनके पहले कार्यकाल के पांच साल और दूसरे कार्यकाल के तीन साल के कामकाज की तुलना करने का। आमतौर पर जब मतदाता किसी सत्तारूढ़ दल को लगातार दूसरी बार मौका देते हैं तो उसके पीछे यह उम्मीद काम करती है कि पहले कार्यकाल में सरकार ने जो दिशा तय की है वह उस दिशा में ज्यादा तेज रफ्तार से आगे बढ़ेगी। यह उम्मीद भी रहती है कि पहले कार्यकाल में सरकार ने जो योजनाएं बनाई हैं या देश-समाज के लिए जो एजेंडा तय किया है उसे अंतिम परिणति तक पहुंचाया जाएगा या पहुंचाने का और सघन प्रयास होगा।
नरेंद्र मोदी की सरकार के दूसरे कार्यकाल में उम्मीदें कुछ ज्यादा थीं और ऐसा इसलिए था क्योंकि उन्होंने अपने पहले कार्यकाल में बार बार कहा था कि उनको 70 साल के गड्ढे भरने हैं। उन्होंने हर क्षेत्र में आजादी के बाद से चली आ रही यथास्थिति को बदलने का वादा किया था। लोगों ने उनके इस वादे पर भरोसा किया। लेकिन क्या दूसरे कार्यकाल के तीन साल पूरे होने के बाद यह कहा जा सकता है कि पहले कार्यकाल में देश को जो दिशा मिली थी, जो योजनाएं बनीं थी और जो एजेंडा तय किया गया था उसे आगे बढ़ाया गया है? असल में पहले कार्यकाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कई बड़ी आर्थिक योजनाओं की घोषणा की थी और आर्थिक नीतियों में बड़ा बदलाव किया था। गुण-दोष के आधार पर उनका आकलन अपनी जगह है लेकिन मोदी सरकार आर्थिक बदलाव की पहल करने के लिए ठोस और साहसी कदम उठाते हुए थी। इसी तरह राजनीति को पूरी तरह से बदलने वाली कई योजनाओं की घोषणा प्रधानमंत्री ने की थी। दूसरे कार्यकाल में किसी बड़े सुधार की पहल नहीं हुई है और न पहले से घोषित योजनाओं को आगे बढ़ाने का प्रयास हुआ है।
पहली मोदी सरकार का मुख्य एजेंडा आर्थिक सुधार और देश को आर्थिक रूप से सक्षम बनाने का था। इसके लिए मेक इन इंडिया योजना की घोषणा हुई थी और उसी समय पहली बार लोगों ने ईज ऑफ डूइंग बिजनेस यानी कारोबार सुगमता के बारे में सुना था। ये दोनों एक दूसरे से जुड़े हुए थे। भारत में कारोबार आसान बनाने के लिए सरकार नीतिगत बदलाव कर रही थी ताकि देशी-विदेशी कंपनियां भारत में विनिर्माण का काम शुरू करें और दुनिया भर में भारत में बने उत्पाद पहुंचें। मेक इन इंडिया अभियान के दो घोषित लक्ष्य थे। पहला, भारत में 10 करोड़ रोजगार पैदा करना और दूसरा भारत के सकल घरेलू उत्पाद में विनिर्माण सेक्टर की हिस्सेदारी 16 से बढ़ा कर 25 फीसदी करना। अब इस लक्ष्य के बारे में कोई बात नहीं करता है। दूसरे कार्यकाल के तीन साल में तो कहीं इसकी चर्चा सुनने को नहीं मिली। कह सकते हैं कि इन तीन सालों में से पहले दो साल तो कोरोना महामारी में निकल गए। लेकिन भारत का विनिर्माण सेक्टर आज जिस स्थिति में है उसके लिए सिर्फ कोरोना जिम्मेदार नहीं है।
आज भारत के सकल घरेलू उत्पादन में विनिर्माण सेक्टर की हिस्सेदारी 16 से घट कर 13 फीसदी हो गई है। कहां तो इसे नौ फीसदी बढ़ाना था, उलटे इसमें तीन फीसदी की कमी आ गई। जिस समय मेक इन इंडिया अभियान की घोषणा हुई थी उस समय विनिर्माण सेक्टर में पांच करोड़ रोजगार था, जो अब घट कर तीन करोड़ से कम हो गया। यानी पांच से दस होने की बजाय पांच से तीन करोड़ हो गया। इस योजना की विफलता के कई कारण हैं। उन कारणों पर अलग से विचार की जरूरत है लेकिन इसमें संदेह नहीं है कि मोदी सरकार ने अच्छी मंशा से पहल की थी। आर्थिक सुधारों के लिए ही एक दुस्साहसी पहल नोटबंदी भी थी। देश से काला धन खत्म करने की मंशा से बिना सोचे-समझे पांच सौ और एक हजार रुपए के नोट चलन से हटा दिए गए थे। इसके बाद हड़बड़ी में वन नेशन, वन टैक्स की योजना के तहत जीएसटी लागू किया गया था।
नरेंद्र मोदी ने पहली बार प्रधानमंत्री बनने के तीन साल के अंदर ये सारी योजनाएं घोषित कर दी थीं। मेक इन इंडिया, ईज ऑफ डूइंग बिजनेस, स्टार्ट अप इंडिया, डिजिटल इंडिया, स्वच्छ भारत मिशन, नोटबंदी, जीएसटी आदि सारी योजनाएं एक के बाद एक घोषित हुईं। ऐसा लग रहा था कि सचमुच पिछले 70 साल में जो काम टुकड़ों में या मंथर गति से हो रहे थे उन्हें रफ्तार दी जा रही है। लेकिन कहीं नीतिगत कमियों तो कहीं नीतियों पर अमल की गड़बड़ी के चलते इनमें से कोई भी योजना सिरे नहीं चढ़ी। इसके लिए सरकार ही जिम्मेदार है। लेकिन यह कहने में हिचक नहीं है कि पहले कार्यकाल में आर्थिक बदलाव के लिए साहसी और बड़ी पहल हुई थी। इसके मुकाबले दूसरे कार्यकाल में आर्थिक सुधारों को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। सरकार ने कृषि और श्रम नीतियों में सुधार का कानून जरूर पास कराया लेकिन किसानों के विरोध की वजह से कृषि कानून वापस लेने पड़े और श्रम कानूनों को लागू ही नहीं किया गया। इसके उलट दूसरे कार्यकाल में सरकार की दिशा बदल गई। दूसरे कार्यकाल का पूरा फोकस भारतीय जनसंघ के दिनों में तय किए गए राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के एजेंडे पर हो गया।
दूसरे कार्यकाल की शुरुआत जम्मू कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 को समाप्त करने और राज्य के विभाजन के साथ हुई। 30 मई को दूसरी बार बनी मोदी सरकार ने मॉनसून सत्र में यानी अगस्त 2019 में अनुच्छेद 370 समाप्त कर दिया। इसके बाद सरकार ने नागरिकता कानून में संशोधन करके पड़ोसी देशों से प्रताडि़त होकर भारत आने वाले सभी गैर मुस्लिमों को नागरिकता देने का प्रावधान किया। जिस तीन तलाक को सुप्रीम कोर्ट ने अवैध घोषित कर दिया था उसे कानून बना कर केंद्र सरकार ने अपराध घोषित किया। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद प्रधानमंत्री मोदी ने अयोध्या में भव्य राममंदिर के निर्माण का शिलान्यास किया। प्रधानमंत्री ने काशी कॉरिडोर देश को समर्पित किया। इसके साथ ही भाजपा की राजनीति और सरकार का नीतिगत रास्ता दोनों बिल्कुल दूसरी दिशा में मुड़ गए। अब पूरा फोकस हिजाब और हलाल मीट पर है या शहरों-कस्बों के नाम बदलने और ऐतिहासिक गलतियों को ठीक करके उन धर्मस्थलों को वापस हासिल करने पर हो गया है, जिन्हें कथित तौर पर मुस्लिम शासकों ने नष्ट कर दिए थे। अब समूचा राजनीतिक विमर्श बुलडोजर केंद्रित हो गया है।
सवाल है कि जब पहले कार्यकाल में मोदी सरकार ने आर्थिक विकास और सामाजिक-राजनीतिक बदलाव के इतने बड़े एजेंडे घोषित किए और उनके पूरा होने की उम्मीद में लोगों ने उसे दूसरा कार्यकाल दिया तो फिर सरकार उन्हीं एजेंडों पर कायम क्यों नहीं रही? क्या इसका कारण यह है कि क्रियान्वयन की कमियों या संसाधनों व इच्छा शक्ति की कमी की वजह से ये योजनाएं फेल हो गईं या फेल होती दिखीं इसलिए उन्हें आगे बढ़ाने या उन्हीं पर टिके रहने का जोखिम नहीं लिया गया? यह भी कारण हो सकता है कि इन योजनाओं की आरंभिक असफलता ने सरकार को चुनावी नुकसान की आशंका में डाल दिया हो और वह उन योजनाओं की ओर लौटी है, जिनसे चुनावी सफलता सुनिश्चित होती है।