मेरी सहज, सरल और सुपठ्य भाषा थी. क्योंकि भाषा की अनिवार्य शर्त है सम्प्रेषण.आप जो कहते हैं वह दूसरा समझ जाय यही भाषा की सहज होने की शर्त है. दूसरी भाषाओं से शब्दों को आत्मसात करने की सर्वग्राहिता ही भाषा को समृद्ध बनाती है. पर अपने संपादक जी भाषा की शुद्धता के आग्रही है. संपादक जी से भाषा को लेकर अपना लम्बा संवाद हुआ. संपादक जी ने कहा- ये भाषा ठीक नहीं है. हिन्दी में दूसरी भाषा के शब्द हमारी भाषा के शब्दों को खा रहे हैं. सो भाषा की शुद्धता बनाए रखनी चाहिए. संपादक जी स्टेशन को स्थानक और पीएम को प्रमं कहने कि ज़िद पर हैं. वे मेरे संपादक रहे हैं, मैं उनका बहुत आदर करता हूँ. इसलिए मैंने कहा कोशिश करता हूं. क्योंकि कोशिश करने से ही होता है. वैसे कुछ लोगों का बिना कोशिश किए भी हो जाता है.
तो भंतो! संपादक जी के कहे मुताबिक उनकी वाली हिंदी लिखने की कोशिश कर रहा हूँ. सही रास्ते पर हूं. तो बताइएगा. नहीं तो पुर्न: मूषकों भव तो होना ही है. ग्रीष्म के ताप से शरीर संतप्त था. काया स्वेद कणों से आच्छादित थी. ब्राह्ममूहुर्त में ही जागृत हुआ था पर अरूणोदय के बाद ही विचरण को निकला था, कि समीप के उद्यान में विकृत जलयंत्र निर्झरिणी का स्वरूप ले चुका था. सूर्य रश्मि की प्रगलभ्ता अठखेलियां कर रही थीं. वहीं निर्झरिणी से एक सद्य: स्नाता अवगुंठित नवयौवना बाहर आती दिखी. मैं उसके सौन्दर्य का अवगाहन कर ही रहा था तभी एक भग्नदूत हॉफता कांपता आता है और जल के संचित भंडारण के समाप्त होने का संदेश देता है. मैं किंकर्तव्यविमूढ़ था. स्वंय को क्षीणवयु प्रतीत करने लगा. ग्रीष्म का तांडव धीरे धीरे बढ़ रहा था. मस्तिष्क यतकिंचित काम कर रहा था. इधर कोरोना के विषाणु संचरण को लेकर अपरमित आशंकाओं से मन व्यथित था.
विचार आया कि आशंका के विलोपीकरण के लिए संपादक जी से प्रत्यक्ष संवाद करूं. वह दिल्ली के सुदूर दक्षिण गुड़गाँव में रहते हैं. मैंने लघु और अकण्टकाकीर्ण मार्ग ज्ञात करने के लिए संगणक खोला. अर्न्तजाल संपर्क न होने से यह प्रायोजन निष्फल रहा. अर्न्तजाल टूटने की उपालम्भ अंकित कराया. फिर दूसरा प्रयास भ्रमणभाष यंत्र से किया. उससे ज्ञात हुआ कि महानगरी ऊपरगामी वाहन से ही यह दूरी किन्चित अल्पकाल में पूरी हो सकती है. विशेष सूच्य है कि यह वाहन अग्रगामी भी है और पश्यगामी भी. मैं अपने समाचार वाहिका कार्यस्थल से एक धारिका ले संपादक जी से प्रत्यक्ष मिलने के लिए गत हुआ. रास्ते में एक विकट दृश्य था. एक दुर्घटनाग्रस्त द्विचक्रिका के भग्नावशेष पड़े मिले. दुर्घटना से पीड़ित दोनों पक्ष मल्लयुद्ध में सन्नद्ध थे. विद्धांग-बद्ध-कोदण्ड-मुष्टि-खर-रुधिर-स्राव.
लौहपथ पर दौड़ रहे वाहन की गति अब तीव्र थी. आकाशमुखी अट्टालिकाएं दृष्टिगोचर हो रही थीं. गगनचुंबी भवन मेरे चेतना प्रवाह पर स्मृति बिम्बो का अंकन कर रहे थे. तब तक मेरा स्थानक आ चुका था. मैं पद संचालन करते संपादक जी के आवास तक पहुँचा. द्वार की साज सज्जा मेरा कौतुक बढ़ा रही थी. द्वार के उस पार संपादक जी और इस पार मेरा प्रश्नाकुल मन. संपादक जी लोहितलोचन थे. मुझे संपादक के कोप का हेत्वाभास हो रहा था. मैं त्वरित वेग से आधोमुखस्वानासन की मुद्रा में आ गया और पादगुंष्ठासन से लौटता उठ खड़ा हो श्रद्धापूर्वक और शुद्ध अंतकरण से प्रणाम निवेदित किया. मैं उनके भवन में प्रवेश कर ही रहा था कि संपादक जी बोले. तुम्हारा यह भाषा विपथन क्यों? मैंने कहा यह समानानुभूति है. काश्यां मरणात् मुक्ति. कबीर उसी काशी के निवासी थे इसे मिथ्या ठहराने के लिए वो मगहर चले गए. उनका उवाच संस्कृत कबीरा कूप जल, भाषा बहता नीर’.
कसौली का उल्लेख महाकाव्य रामायण में है
संपादक जी नाराज़गी में बोले ये मिथ्या कैसे? मैंने कहा ‘ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या.’ वे बोले ये जगत कौन? मैंने कहा जगत प्रकाश नड्डा नही.एक और जगत है., “ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत्. तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विध्दनम्.”. इसका यहॉं क्या सन्दर्भ? मैंने कहा जो त्याग करता है वहीं भोग पाता है. संपादकजी अब मेरे विरुद्ध प्रत्यूह,-क्रुद्ध विषम हूह, विच्छुरित वह्नि लोहित लोचन थे. बोले तुम अनर्थ कर रहे हो. मैंने कहा बहुत देर से जठराग्नि से पीड़ित हूँ. कुछ उदरपूर्ति करें तात. बुभुक्षिंत न प्रतिभाति किन्चित्. उन्होंने कुछ खाद्य पदार्थ भक्षण के लिए प्रेषित किया. संपादक उवाच “ यहॉं का तापमान उष्णता के बन्ध तोड रहा है. कहीं शीत प्रदेश में चलना चाहिए. वरना यह उष्णता मस्तिष्क की ओर बढ़ सकती है. तब और तॉंडव करेगी. तय हुआ कि हमें हिमालय की हिमाच्छादित श्रृंखलाओं की ओर चलना चाहिए.
विचार बना कि कसौली की ओर प्रयाण हो. अन्वेषी भाव से. यात्रा में मस्तिष्क सक्रिय रहता है. यात्रा अपनी सांस्कृतिक परम्पराओं के अन्वेषण का गाम्भीर भाव प्रयास है. भारतीय संस्कृति की मूल परम्परा को समझने के लिए भारतीय आख्यानों, तीर्थों, मिथकों, और वाचिक परम्परा के भीतर पैठने के लिए यात्रा ज़रूरी है. तो इस अभियान में हम हिमाचल प्रदेश के कसौली के लिए चले. समुद्र सतह से इसकी ऊँचाई लगभग 1951 मीटर है.
इस स्थान का उल्लेख महाकाव्य रामायण में है. पौराणिक कथाओं के अनुसार संजीवनी पहाड़ी से लौटते समय हनुमान जी ने इसी स्थान पर अपने पद पंकज रखे थे. हरीतिमा से आच्छादित इस स्थान का नाम पर्वत की एक धारा के नाम पर पड़ा जो जबली और कसौली के बीच से बहती है और जिसे कौसल्या कहा जाता है. प्रचलित मान्यता यह भी है कि इसके नाम का मूल ‘कुसुमावली’ है, जिसका अर्थ है ‘पुष्प कतार’. जल विभाजक एक उपत्यका इस घाटी को शिमला और सोलन में बॉंटती है. 19 वीं शताब्दी में कसौली गोरखा राज्य का महत्वपूर्ण भाग बन गया. बाद में ब्रिटिश लोगों ने इस जगह को बटालियन शहर में बदल दिया गया. कसौली की दूरी शिमला से लगभग 70 किलोमीटर और चंडीगढ़ से 57 किलोमीटर है. 19वीं शताब्दी में बने इस शहर की अलग सी खूबसूरती ही हर साल प्रवासियों को यहां खींच लाती है. भ्रमण के लिहाज से ही नहीं, मधुयामिनी के लिए भी कसौली सुविधा जनक है. चारों तरफ ऊंचे-ऊंचे पहाड़ और चीड़ के जंगलों से घिरे कसौली का नजारा किसी सुंदर चित्र से कम नहीं लगता.
यह समूह यात्रा थी. समूह यात्रा एक जीवन सन्दर्भ है. अकेले विचरने से न रस प्रवाहित होता है न प्राकृतिक सौन्दर्य का अवगाहन होता है. न व्यक्ति रस निष्पत्ति को आत्मसात् कर पाता है. इसलिए हम सभी के साथ सभी का होकर चले. आत्मबोध और आत्मदर्शन के लिए. इस आत्मदर्शन का प्राकृतिक सौन्दर्य से साधारणीकरण है. बुद्धि से युक्त होकर निर्वैयक्तिकता का सुख है. संविद विश्रान्ति का सुख. रसेश्वरी भाव से डूबने उतराने का सुख. कसौली के पहाड़, जंगल और फूलों से सजे रास्ते पैदल चलने पर एक अलग ही आनंद और शांति का पान कराते है कसौली के हिमाच्छादित शिखर देखते ही बनते है. कसौली में सूर्य की किरणें प्रचण्ड हैं. तृतीया का चन्द्रमा सुहावना लगा. सायंकाल मनोरम और शीत से ढँका है. सजीवता एवं कमनीयता से परिपूर्ण है. प्रकृति एवं मनुष्य में तादात्म्य स्थापित है.
कसौली में प्रवास से दो दिन पहले शरद पूर्णिमा का चाँद
दुर्गम उत्तुंग शिखर की चुनौतियों से साक्षात्कार की संभावना यहॉं भले न हों पर चंडीगढ़ शिमला राजमार्ग से पार्श्व में प्राचीन बसाए हुए पर्वतीय स्थल के रूप में कसौली विख्यात है. पर्यटन की दृष्टि से यदि विवेक जागृत हो तो सबसे महत्वपूर्ण है ऋतुचर्या का पालन. यहाँ पहुंचकर पूर्व दिशा में उदित होते भगवान भास्कर का दर्शन अत्यंत मनोहारी व कल्याणकारी होता है. इस मनोरम स्थान पर वास्तव में आख़ेट कर्म निषिद्ध है. परंतु पर्यटकों द्वारा बड़े पैमाने पर सामिष खाद्य पदार्थों की माँग की जाती है. कसौली की उपत्यकाओं पर चीड़ वृक्षों की बहुतायत और सर्प से भी वक्राकार मार्गों पर चलकर ऐसा महसूस होता है कि हिमगिरि ने कोई जादू फूंक दिया है. यद्यपि जल प्रपात और झरनों का अभाव है परंतु घाटियों पर मेघाच्छादन से ऐसा प्रतीत होता है कि पंखयुक्त शावक सी हंस बालाओ का समूह समूचे व्योम को मंडित कर रहा है.
कसौली में प्रवास से दो दिन पहले शरद पूर्णिमा का चाँद ने हमें आसक्त किया था और कार्तिक कृष्ण पक्ष की द्वितीया का चाँद जब उदित हुआ तो विस्मय के साथ सभी कह पड़े साधु साधु. चंद्रमा की सुंदरता देखते ही बनती थी अंतश्चेतना ने ही प्रेरित किया कि प्रातः काल सूर्योदय का भी अवलोकन करना समीचीन होगा. सूर्योदय से पहले हम सब जागृत अवस्था में होटल के प्रांगण में विराजे और ऐसा प्रतीत हुआ कि पर्वतों के ऊपर पूर्व दिशा से जैसे व्योम से कोई नवयौवना मुस्कराकर देख रही हो और यह सोच रही हो कि देखो तो मेरे प्रियतम दिनकर आने वाले हैं यह आहट पाकर मेरे साथ रात्रि का सहचर प्रेमी चंद्र अब पश्चिम की ओर भाग रहा है और भागते हुए उसका मुख कांतिहीन होता जा रहा है.
हरिवंश राय बच्चन के शब्दों में रात का राजा अब भिखारी होकर धीरे धीरे विदाई ले रहा है. कल जब यह उदित हुआ था तो इसका स्वरूप इतना सजीला और पांडुर था परंतु रात भर के अभिसार ने अब उसे कान्ति हीन करके निस्तेज कर दिया है और वह अब भागते हुए सूर्य से दूर जा रहा है कि कहीं उसका मान मर्दन न हो जाए. अभी तो पूर्व दिशा की नायिका के प्रियतम भगवान भास्कर का रथ क्षितिज के इस पार नहीं आया फिर भी उनके अनुचरों ने चन्द्रमा को परेशान कर रखा है. मेरे पराक्रमी स्वामी से इतना भय!! इसके बाद क्षण भर में भगवान भास्कर बादलों के ओट से बाहर आए. और कसौली की घाटी में जैसे ही द्रव रूपी स्वर्ण की बारिश हो गई. पराक्रमी स्वामी ने ही हर दिशा में उदारतापूर्वक अपनी रश्मियाँ फैलायी. उदित हो रहे सूर्य ने हम सब में एक ऐसी ऊर्जा भरी की विचरण की अभिलाषा प्रबल हो उठी. हमारा दल भ्रमण हेतु निकल पड़ा. आश्रय स्थल के ही समीप प्रात: विचरण के दौरान ग्रामीणों ने बताया कि इस क्षेत्र में व्याघ्र आदि जंतु गण विचरण करते पाए जाते हैं. लेकिन जिस प्रकार भवनों में कपाट और गवाक्ष आदि लगे थे उससे प्रतीत हो रहा था कि वह व्यक्ति हमें मिथ्या सूचना दे रहा है.
रस्किन बॉन्ड का कसौली में हुआ था जन्म
आंग्लभाषा के उत्कृष्ट लेखक और 500 से ज्यादा कहानियां, उपन्यास, संस्मरण और कविताओं के रचियता रस्किन बॉन्ड (Ruskin Bond) का जन्म यहीं हुआ था. ख़ुशवंत सिंह यहीं ज़्यादा समय रहे. 1857 में जब भारत की आज़ादी की पहली लड़ाई या सिपाही विद्रोह प्रारंभ हुआ तब कसौली ने भी भारत के सैनिकों के बीच एक विद्रोह देखा. इन लोगों ने गोरखा लोगों के साथ हाथ मिलाया परंतु बाद में गोरखाओं के विद्रोह से हटने के बाद उन लोगों ने उन्हें छोड़ दिया. इन सैनिकों को ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा बेरहमी से दंडित किया गया. वर्तमान में कसौली भारतीय सेना के छावनी शहर के रूप में जाना जाता है. यह मूलतः सैनिक छावनी है. 1850 में इसे पहली बार छावनी बनाया गया, तब से आज तक कसौली देश की प्रमुख छावनियों में गिना जाता है. कैंटोनमेंट अस्पताल के सामने से घाटी का विहंगम दृश्य के साथ ही चीड़ के झुरमुट के बीच से सूर्यास्त का कभी न भूलने वाला दृश्य भी दिखता है. जय जय!