कौशल किशोर
नई दिल्ली। नागरिकता कानून में संशोधन लागू करने पर अमरीका की प्रतिक्रिया का प्रतिकार करते हुए विदेश मंत्रालय विभाजन की पीड़ा नजरंदाज करने की बात का ध्यान दिलाती है। इसकी संवैधानिकता पर सवाल उठाने वाली 200 से ज्यादा केस की एक साथ सुनवाई सुप्रीम कोर्ट में चल रही है। चीफ जस्टिस की अध्यक्षता वाली संवैधानिक पीठ ने स्थगन आदेश देने से इंकार किया है। जनता द्वारा चुनी संसद ने 2019 में संशोधन किया और बीते 11 मार्च की अधिसूचना से इंतजार भी खत्म हो गया है। इससे 31 दिसंबर 2014 से पहले पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से भारत आए हिन्दू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई शरणार्थी शीघ्र नागरिकता पाने के अधिकारी होते हैं। पीड़ितों को राहत अवश्य मिलेगा। पर व्यर्थ विरोध प्रदर्शन करने वाले भी कम नहीं हैं। इसके साथ भारत घुसपैठियों व शरणार्थियों के मामले में अपनी नीति भी याद दिलाती है।
पाकिस्तान में भी इसका असर दिख रहा है। इसके बाद खैबर पख्तूनख्वा प्रांत में 200 वर्ष पुराने मंदिर पर हमला किया गया। स्वाबी जिले के रज्जर तहसील के दगई गांव में स्थित मंदिर को स्थानीय लोगों ने मुश्किल से बचाया। वहां पर अब अल्पसंख्यकों की संपत्तियों की कीमत गिरने लगी और कम दाम पर बेचने के लिए विवश किया जाने लगा है। सरकार के प्रवक्ता इस कानून की आलोचना कर चुके हैं। पाकिस्तान की संसद में भी 16 दिसंबर 2019 को प्रस्ताव पारित इसे समानता के अंतर्राष्ट्रीय मानकों के विरुद्ध बताया गया था।
अमेरिकी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता मैथ्यू मिलर की चिंता कितनी जायज है! विदेश मंत्री एस. जयशंकर और अमरीकी राजदूत एरिक गार्सेटी की बातचीत में भी उन्हीं की प्रतिक्रिया ध्वनित हो रही। इस कानून को लागू करने पर नजर रखने की धौंस दे रहे हैं या धार्मिक स्वतंत्रता का आदर करने जैसे लोकतांत्रिक सिद्धांत का उपदेश दे रहे। क्या यह स्पष्ट नहीं है? आशा करना चाहिए कि इस उदारता को अपना कर अमेरिका अपने देश में पहले नस्लभेद व रंगभेद का संकट दूर करेगा। ईसाइयत और इस्लाम के बूते खड़े राष्ट्र अपनी जमीन पर भेदभाव की समस्या दूर किए बिना भारत को शिक्षा देने के अधिकारी कैसे हो सकते हैं? पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा विभाजन की इस नीति की पहले से याद दिलाते रहे। सुप्रीम कोर्ट में इसकी सुनवाई अप्रैल के दूसरे सप्ताह में तय हुई है। इसका मतलब हुआ लोक सभा चुनाव के इस मौसम में यह बहस का मुद्दा बना ही रहेगा।
अरकान क्षेत्र के रोहिंग्या मुसलमानो को पनाह देने के बदले मुस्लिम देश वैमनस्य की खेती करने में लगे हैं। उपदेश की यह नीति इस्लाम के पैरोकारों की पोल खोल देती है। असम समेत पूर्वोत्तर के राज्यों में घुसपैठियों की समस्या से मुक्ति की मांग उठती रही है। बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के अल्पसंख्यक शरणार्थी स्वाभाविक रूप से भारत में पनाह पाने वाले होते हैं। आज इस वजह से अरविन्द केजरीवाल जैसे नेता इनकी संख्या कई गुणा बढ़ा बता रहे हैं। अपने ही लोगों को भ्रमित करने का यह एक उदाहरण है। 31 दिसम्बर 2014 से पहले पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से भारत आए जिन लोगों को इस संशोधन का लाभ मिलेगा उनकी कुल संख्या 31,313 है। इस पर गृह मंत्रालय की रिपोर्ट में 25,447 हिंदू, 5,807 सिख, 55 ईसाई, 2 बौद्ध और 2 पारसी के शामिल होने की बात कही गई है। इसके बात भी अभिनव चंद्रचूड़ जैसे विद्वान अधिवक्ता यहूदियों के नाम पर सवाल उठाते हैं। भारतीय लोकतंत्र के उदारता की व्याख्या हो रही है। भाजपा शरणार्थी और घुसपैठियों के मामले में अपने घोषणा पत्र में वर्णित विरोधाभास को न सिर्फ साफ करती है, बल्कि दोनों वादों को निभाने की दिशा में आगे बढ़ती दिख रही है।
भारत विभाजन की विभीषिका से अनभिज्ञ लोग इस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करने के वाजिब अधिकारी भी नहीं हैं। यायाति के पूर्वज को मिले अभिशाप की तरह आजादी के साथ आर्यावर्त को विभाजन का अभिशाप भी मिला था। औपनिवेशिक मानसिकता की तरह ही इसके निशान भी दूर नहीं हुए हैं। इसकी निशानियां दूर करने का भी भाजपा के घोषणा पत्र में वादा किया गया था। अयोध्या में मंदिर निर्माण की तरह पार्टी उपमहाद्वीप में विभाजन के पीड़ितों को राहत देने की घोषणा पूरी करती है। इसी तरह एक दिन नारी शक्ति वंदन कानून भी परिसीमन के बाद लागू किया जाएगा।
लोक सभा में 9 दिसम्बर 2019 को गृह मंत्री अमित शाह द्वारा नागरिकता कानून में इस संशोधन का विधेयक पेश किया गया। उन्होंने कहा था कि पिछली सरकार ने भी 13,000 हिंदुओं और सिखों को नागरिकता दी थी। परंतु मोदी सरकार हिंदू और सिखों सहित छह प्रताड़ित अल्पसंख्यकों को नागरिकता का अधिकार दे रही है। दो घंटे की बहस के बाद अन्नाद्रमुक, जनता दल (यू), अकाली दल और बीजू जनता दल के सदस्यों समेत 293 सांसदों ने पक्ष में और 82 सांसदों ने विपक्ष में मतदान किया। अगले दिन राज्य सभा में बीजू जनता दल, तेलगु देसम पार्टी व वाईएसआर कांग्रेस सदस्यों समेत 125 सांसदों ने पक्ष में और 99 सांसदों ने विपक्ष में मतदान किया।
अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश भी अखण्ड भारत का हिस्सा था। इस्लाम के नाम पर अलग होने से विभाजन की विभीषिका भी देखने को मिली। क्या किसी एक दिवस में इसे समेटा जा सकता है? यह दो करोड़ लोगों के विस्थापन और 20 लाख लोगों के अकाल मृत्यु का कारण साबित हुआ। दिल्ली में सड़ती लाशों के संकट पर गांधी जी को अनशन करन करना पड़ा था। इस तुगलकी फरमान से जिन पर बीती उन पर आज भी निशानियां मिलती है। महर्षि दयानंद आर्यावर्त में स्वदेशी राज का सपना देखते रहे और सावरकर अखण्ड भारत का सपना लिए विदा हो गए। इस काम से केन्द्र सरकार उनके सपनों के प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करती दिखती है।