प्रकाश मेहरा
अयोध्या: सन 1949 से 2024 तक हम हिन्दुस्तानियों ने तमाम सलीके और शऊर सीख लिए हैं। 1949 के ‘चमत्कार’ को मैं चुनौती नहीं दे रहा, पर अपने मकसद को अंजाम तक पहुंचाने के लिए चमत्कारों की जगह स्थापित व्यवस्था से ही काम चलाया जा सकता है। रामलला का यह मंदिर इस नई, पर बेहद स्वस्थ परंपरा की निशानी है।: प्रकाश मेहरा
वह ईस्वी सन् 1949 की ठंडी रात थी। तारीख थी, 22-23 दिसंबर। उस रात अयोध्या में जो हुआ, वह किसी ‘चमत्कार’ से कम नहीं था। बाद में, वहां सुरक्षा ड्यूटी पर तैनात हवलदार अबुल बरकत ने तत्कालीन जिला मजिस्ट्रेट को अपने आधिकारिक बयान में बताया कि 22 और 23 दिसंबर, 1949 के बीच की रात उसने करीब दो बजे इमारत के अंदर एक खुदाई रोशनी कौंधते देखी, जिसका रंग सुनहरा था और उसमें उसने एक चार-पांच वर्ष के देवतुल्य बालक को देखा। इस दृश्य को देखकर वह सकते में आ गया। जब उसकी चेतना लौटी, तब उसने देखा कि मुख्य द्वार का ताला टूटा पड़ा है और असंख्य हिंदुओं की भीड़ भवन में प्रवेश कर सिंहासन पर प्रतिष्ठित मूर्ति की आरती तथा भये प्रगट कृपाला, दीन दयाला की स्तुति कर रही है।
जाहिर है कि मंदिर खुल चुका था और प्रतिदिन पूजन शुरू हो गया था। अब इसे दुनिया की कोई ताकत रोक नहीं सकती थी। राम जन्मभूमि के उद्धार के लिए किसी न किसी रूप में सोलहवीं शताब्दी से जारी अनवरत आंदोलन का आजाद हिन्दुस्तान में यह पहला अहम पड़ाव था।
सैंतीस साल बाद, वर्ष 1986; तारीख – 1 फरवरी। शाम चार बजकर बीस मिनट पर फैजाबाद (अब अयोध्या) के जिला जज फैसला सुनाते हैं कि रामलला जहां विराजमान हैं, उसका ताला खोल दिया जाए। लगभग दस किलोमीटर दूर स्थित मंदिर में सिर्फ चालीस मिनट की सीमित अवधि में ताला तोड़ दिया जाता है। जिस अधिकारी के पास इस ताले की चाबी थी, उसे बुलाने तक की जहमत नहीं उठाई जाती। उस वक्त हजारों लोग वहां रामलला की जय-जयकार कर रहे थे। आजाद भारत में इस अविराम संघर्ष का यह दूसरा अहम पड़ाव था।
…और अब
कुछ घंटे बाद, यानी 22 जनवरी, 2024 की दोपहर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक भव्य समारोह में रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा के गर्वीले संवाहक बनेंगे। वह इस आयोजन के मुख्य यजमान हैं। उन्होंने इस पावन दायित्व का हक बड़े जतन से जुटाया है। चार दशकों से मोदी किसी न किसी रूप नने में ‘मंदिर मुक्ति आंदोलन’ से जुड़े हुए हैं। मंदिर का निर्माण भी उन्हीं के कार्यकाल में शुरू हुआ। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत उनके साथ होंगे। संघ के शिव संकल्प के बिना यह अनुष्ठान असंभव था।
ऐसा लगता है, जैसे काल-चक्र यहां अपने पांच सौ वर्ष की पुराने सफर को विराम देने जा रहा है।
देश-विदेश से आए लगभग आठ हजार अति विशिष्ट अतिथि इन ऐतिहासिक लम्हों के साक्षी बनने जा रहे हैं। मंदिर का निर्माण अभी पूरा नहीं हुआ है, पर जानने वाले जानते हैं कि मूर्तियों की प्राण-प्रतिष्ठा ही पूजन के लिए पर्याप्त होती है। भारतीय संस्कृति में भक्ति लोकमानस की भावना की उपज मानी जाती है। लोग इस स्थान को ही शताब्दियों से मंदिर का मान देते आए हैं।
जिन्हें भरोसा न हो, वे एक बार अपने आस-पास नजर दौड़ा देखें। आपको हर ओर ‘राम-लहर’ उमड़ती दिखाई देगी। हर रोज दर्जनों की संख्या में रिलीज होने वाले ‘भजन’, चौराहों पर बिकती राम पताकाएं, घर-घर पहुंचते संघ के नहां कार्यकर्ता इस भाव को धार देने में जुटे हैं। अक्षत और रोली मैं की पुड़िया के साथ वे 22 जनवरी को घर-घर दीये जलाने की अपील कर रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी इस अपील को दोहरा दिया है। कहते हैं, जब राम वन से लौटे थे, तब वहां काई के हर घर में दीये जले थे। क्या कल हम समूचे देश में ऐसा होते देखेंगे ? संघ ने तो विदेश में रह रहे भारतवंशियों से भी यही उम्मीद की है।
रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा क्या नया इतिहास रचने जा रही है?
इस मंदिर की सबसे बड़ी खासियत यह है कि यह सर्वोच्च अदालत के अनुमोदन और स्वीकृति के साथ बन रहा है। तय है, सन 1949 से 2024 तक हम हिन्दुस्तानियों ने तमाम सलीके और शऊर सीख लिए हैं। 1949 के ‘चमत्कार’ को मैं चुनौती नहीं दे रहा, पर अपने मकसद को अंजाम तक पहुंचाने के लिए चमत्कारों की जगह स्थापित व्यवस्था से ही काम चलाया जा सकता है। रामलला का यह मंदिर इस नई, पर बेहद स्वस्थ परंपरा की निशानी है। वजह? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली हुकूमत ने 1986 जैसी जल्दबाजी नहीं दिखाई। कानून का सहारा लिया। इस संकुल की स्थापना को लेकर इसीलिए विरोध के स्वर बुलंद नहीं हो पा रहे।
और तो और, बरसों तक बाबरी मस्जिद के वादी और पैरोकार रहे इकबाल अंसारी तक इस प्राण-प्रतिष्ठा समारोह में हिस्सा लेने को तत्पर हैं। यहां फतेहपुर जेल में बंद एक कैदी जियाउल हक का उल्लेख जरूरी है। उसने कारागार के नियमों के तहत पिछले दो महीने में जो काम किए, उसका मेहनताना सौ रुपये बनता है। वह इस राशि को रामलला की भेंट चढ़ाना चाहता है। अयोध्या के सैकड़ों मुस्लिम परिवार आज भी पूजन सामग्री की कारीगरी से जुड़े हैं। हर बात पर हिंदू-मुसलमान करने वाले चाहें, तो इससे सबक ले सकते हैं। राम सबके थे, सबके रहेंगे ! उनकी नगरी अयोध्या हमेशा से सांप्रदायिक भावों से खुद को बचाती आई है, इस बार भी उसने अपनी इस रवायत को पूरी आन-बान-शान के साथ कायम रखा है।
इस अर्चना संकुल को संपूर्णता तक पहुंचने में तीन साल तक लग सकते हैं। उत्तर प्रदेश की योगी सरकार की मंशा इस कस्बे को विशाल धर्मनगरी का स्वरूप देने की है। यह संयोग ही है कि लगभग 108 एकड़ में उभरने वाला यह मंदिर परिसर अपने क्षेत्रफल में ईसाइयों की धर्मनगरी वेटिकन के बराबर होगा। वेटिकन भी 108.7 एकड़ में फैली हुई है।
यहां एक और बात याद दिलाना चाहूंगा। मंदिर की चर्चा में अक्सर मस्जिद की बात पीछे छूट जाती है। सुप्रीम कोर्ट ने मस्जिद के लिए भी जमीन आवंटित करने का आदेश दिया था। अब सरकार द्वारा आवंटित उसी जमीन पर मस्जिद के निर्माण की हलचल भी शुरू हो गई है। कहते हैं कि रमजान के पवित्र माह में यह नेक काम शुरू हो जाएगा। अच्छा होगा, मंदिर और मस्जिद, दोनों समय से संपूर्णता को प्राप्त कर लें। यह संपूर्णता सिर्फ भवनों की नहीं, बल्कि धर्मों के पीछे छिपी भावना की होनी चाहिए। बिना भावना के भुवन कैसा?
यही वजह है कि मैं अयोध्या को वेटिकन से बिल्कुल अलग मानता हूं। वहां कैथोलिक पंथ का सर्वोच्च मुकाम जरूर है, पर अयोध्या में कुछ बरस बाद मंदिर और मस्जिद एक साथ एक सा पैगाम देते नजर आएंगे। क्यों न सिख, ईसाई, जैन और बौद्ध भी अपना एक-एक श्रद्धा केंद्र वहां स्थापित करें?
क्या सभी धर्मों और पंथों के धर्माचार्य इस पर गौर फरमाएंगे ?