प्रकाश मेहरा
उत्तरकाशी: उत्तरकाशी की ताजा घटना ने दो साल पहले उत्तराखंड के ही तपोवन सुरंग हादसे की याद ताजा कर दी। उसमें भी कई मजदूरों की जान पर बन आई थी, जिनको बाहर निकालने के लिए भारी मशक्कत करनी पड़ी। हालांकि, दोनों घटनाओं में एक बुनियादी फर्क यह है कि तपोवन हादसे में ग्लेशियर टूटने के कारण टनल में पानी के तेज बहाव के साथ गाद जमा हो गई थी और मजदूर फंस गए थे, जबकि उत्तरकाशी हादसे की वजह तकनीकी, और कुछ हद तक लापरवाही मानी जा रही है। यह घटना क्यों और कैसे हुई, इसका पूरा विवरण को जांच के बाद ही सामने आएगा, परइस हादसे ने पर्यावरण बनाम विकास की बहस को एक बार फिर जिंदा कर दिया है।
पहाड़ के बारे में कहा जाता है कि यहां छोटी सी भौगोलिक घटना भी काफी असर डालती है, चाहे उसका प्रभाव तुरंत पड़े या कुछ दिनों के बाद। इसका अर्थ यह है कि अगर पहाड़ पर हल्की तीव्रता का भी कोई भूकंप आता है, तो स्थानीय संरचना की वजह से यह जरूरी नहीं है कि वह तत्काल अपना असर दिखाए। इसमें कुछ दिनों या महीनों का वक्त लग सकता इसी है। तरह, मानवीय त्रुटियों का असर भी तुरंत नहीं दिख सकता। और जब पहाड़ की संरचना कमजोर हो, तो ऐसी परिस्थितियां काफी खतरनाक साबित हो सकती हैं। लिहाजा, सोचने का विषय यह है कि पहाड़ आखिर कमजोर क्यों पड़ते जा रहे हैं? यह सही है कि हिमालय की बनावट इसे दुनिया की सबसे नई और कमजोर पर्वत श्रृंखला बनाती है, क्योंकि यह पहाड़ इंडियन और यूरेशियन प्लेट्स के आपस में टकराने से बना है, जो आज भी जारी है। मगर यह अब अनियोजित विकास की कीमत भी चुका रहा है। हिमालय क्षेत्र में जल-विद्युत परियोजनाओं, सड़कों व रेल पटरियों का जाल बिछाया जा रहा है। चार घाम परियोजना को लेकर तमाम तरह के सवाल उठते रहे हैं। कहा जा रहा है कि अगले एक दशक में उत्तराखंड में 66 टनल बनाने की योजना है, जिनमें से 18 चालू भी हो गए हैं। जोशीमठ में ही जब घरों में दरारे पड़ने के मामले सामने आए थे, तब भूवैज्ञानिकों का मानना था कि मानव-जनित कार्यों के कारण करीब 6,000 फुट की ऊंचाई पर स्थित चमोली का यह शहर कई जगहों पर धंस रहा है। उत्तराखंड आपदा प्रबंधन प्राधिकरण ने भी कुछ इसी तरह के तर्क दिए थे। ये सब तस्दीक कर रहे हैं कि कहीं न कहीं चूक जरूर हो रही है, जिस पर तत्काल ध्यान देना होगा।
हालांकि, इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि पहाड़ की ऊंचाई पर विकास के काम नहीं होने चाहिए। बुनियादी सुविधाओं के अभाव के कारण ही अब कई पहाड़ी गांव वीरान हो चुके हैं। यहां गांव के गांव खाली हैं। इसलिए, पहाड़ पर रहने वालों को भी बिजली, पानी, सड़क आदि की सुविधाएं मिलनी चाहिए। मगर हां, इस विकास की रूपरेखा पर गहन विचार-विमर्श की जरूरत है। अनियोजित विकास पर्वतों पर ही नहीं, मैदानी इलाकों पर भी भारी पड़ सकते हैं। विशेषकर, पहाड़ अगर हिमालय के हों, क्योंकि इसके नीचे करीब 20 मिलीमीटर प्रतिवर्ष की गति से इंडियन प्लेट आज भी यूरेशियन प्लेट के नीचे घुस रही हैं। इस कारण इसकी सतही करने संरचना एकमुश्त पत्थर जैसी नहीं है, बल्कि बड़े-बड़े बोल्डर पत्थर मिट्टी से बंधे हैं। ऐसे में, पहाड़ों को काटकर किए जाने वाले निर्माण इसकी मजबूती की परीक्षा लेने लगते हैं। यह तो भला हो 2005 में किए गए नीतिगत बदलाव का कि आपदा प्रबंधन अधिनियम बनाकर यह तय किया गया कि आपदा आने से पहले के बचाव-उपायों पर हमें ज्यादा ध्यान देना चाहिए।
फिलहाल, उत्तराखंड में सड़क, रेल, जलविद्युत से जुड़ी कई तरह की परियोजनाएं चल रही हैं। इनमें न जाने कितनी सुरंग बनाने की जरूरत होगी। ऐसे में, इस तरह के हादसे संकेत हैं कि साल 2005 के अधिनियम का शायद ईमानदारी से पालन नहीं किया जा रहा। हमें इस पर गौर करना होगा, साथ ही, निर्माण-कार्यों से पहले भू-तकनीक पहलू का भी विशेष ध्यान रखना होगा। इन इलाकों को लेकर खास संवेदनशीलता की दरकार है। हमें पहाड़ों के लिए ऐसा विकास चाहिए, जिससे यहां की भौगोलिक बनावट अक्षुण्ण रहे और यहां की पारिस्थितिकी को भी चोट न पहुंचे।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)