नई दिल्ली: नोट के बदले वोट का जिन्न फिर बाहर आ गया है. इसकी चर्चा तेज हो गई है. सुप्रीम कोर्ट ने 25 साल पुराने पांच जजों के अपने ही फैसले को फिर से समीक्षा करने को सात जजों की पीठ गठित की है. उम्मीद जताई जा रही है कि आए दिन कुछ जनहित में नया करने वाले चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ इस मामले में कुछ अलग करने वाले हैं.
साल 1998 में पीवी नरसिंह राव केस में सुप्रीम कोर्ट ने 3/2 के बहुमत से फैसला सुनाया था, उसकी आड़ में बड़ी संख्या में सांसद-विधायक जेल जाने से बचे हुए हैं. जबकि उनके खिलाफ बड़ी संख्या में मामले सामने आ चुके हैं. इसी तरह के एक मामले में जब झारखंड मुक्ति मोर्चा की नेता, शिबू सोरेन की बहू सीता सोरेन पर आरोप लगे तो वह सुप्रीम कोर्ट पहुंचीं और सर्वोच्च अदालत से 1998 में आए फैसले के आलोक में राहत की मांग की.
इसी मसले की सुनवाई के दौरान चीफ जस्टिस ने इस पूरे मामले को सात जजों की पीठ को सौंप दिया. नवगठित पीठ को यह तय करने की जिम्मेदारी दी गई है कि वह नोट के बदले वोट के बाद भी सांसद-विधायक को वह सुरक्षा मिलनी चाहिए या नहीं? देखना रोचक होगा कि सर्वोच्च अदालत इस मामले में क्या फैसला सुनाती है?
क्या था पूरा मामला और सांसदों को राहत देने वाला कानून?
पीवी नरसिंह राव की अल्पमत में आई सरकार को बचाने के लिए झारखंड मुक्ति मोर्चा और जनता दल के सांसदों पर आरोप था कि उन्होंने पैसा लेकर राव सरकार को बचाने को वोट किया. सरकार बच तो गई लेकिन शोर-शराबे के बीच मामला सीबीआई के पास जांच को पहुंचा.
एजेंसी ने जांच में पुख्ता किया कि अजित को छोड़ सभी सांसदों ने नोट के बदले सदन में वोट किया था. अजित ने वोट नहीं डाला. मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा. वकीलों ने सुप्रीम कोर्ट में पांच जजों के सामने जो तर्क दिए उनमें संविधान के अनुच्छेद 105 का हवाला दिया जो सांसदों को राहत देता है.
इसी तरह की राहत विधायकों के संदर्भ में अनुच्छेद 194 देता है. इस तरह नोट के बदले वोट के मामले में 3/2 के बहुमत से जो फैसला दिया उसमें कहा गया कि जिन सांसदों ने रिश्वत लेकर सदन में वोट किया, आपराधिक मुकदमे से मुक्त होंगे. क्योंकि कथित रिश्वत संसदीय वोट के संदर्भ में थी.
चौंकाने वाला हो सकता है फैसला
सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता अश्विनी कुमार दुबे कहते हैं कि 25 साल बाद किसी फैसले की समीक्षा के लिए पांच जजों का फैसला सात जजों की पीठ को सौंपा जाना कई मामलों में अनूठा है. सात जजों की पीठ जब सुनवाई करेगी तो यह बहस सुनने वाली होगी और फैसला उससे ज्यादा चौंकाने वाला हो सकता है. क्योंकि इस केस में कानूनन दो ही संभावना बनती है. एक-पीठ पांच जजों की पीठ के साथ जाए. दो-उस फैसले के खिलाफ आदेश दे.
पहला आदेश आता है तब तो कोई चौंकाने वाली बात नहीं होगी लेकिन अगर फैसला उलट आया तो बहुत बड़ी संख्या में सांसद-विधायक मुश्किल में पड़ेंगे, जो अब तक शिकायत, प्रमाण होने के बावजूद अनुच्छेद 105 (2), अनुच्छेद 194 (2) और सुप्रीम कोर्ट के 1998 में आए फैसले का सहारा लेते हुए बचते आ रहे हैं.
अदालत के पास सांसदों-विधायकों के खिलाफ़ अलग-अलग तरीके से दर्ज मामलों, जांचों का पर्याप्त डाटा है, जो ईडी, सीबीआई जैसी सरकारी मशीनरी ने ही समय-समय पर उपलब्ध करवाया है. नौ सौ से ज्यादा सांसदों-विधायकों के खिलाफ मामले बीते कई सालों से देश की अदालतों में अटके पड़े हैं. सीबीआई भी कई मामलों की जांच कर रही है.
अगर सात जजों की पीठ ने पांच जजों की पीठ के पुराने फैसले को पलटा तो यह एक ऐतिहासिक फैसला साबित होगा भले ही केंद्र सरकार कानून के जरिए उस फैसले को पलट दे लेकिन नजीर तो बन ही जाएगी. इसकी संभावना इसलिए भी है क्योंकि मौजूदा केंद्र सरकार ने भी 1998 में आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले का समर्थन कर चुकी है.